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रियासतकाल से जशपुर राजपरिवार मना रहा है ये अनोखा दशहरा

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Published : Oct 9, 2019, 8:34 AM IST

Updated : Oct 9, 2019, 1:40 PM IST

जशपुर दशहरा के ऐतिहासिक महत्व पर गौर करें, तो रियासत काल में जनजातीय समुदाय और तत्कालीन राजाओं का आपसी सामंजस्य इतना मजूबत था कि दस दिनों तक चलने वाले इस महाउत्सव में हर रीति-रिवाज में समाज के सभी वर्ग की बराबर की भागीदारी होती थी.

जशपुर का राजपरिवार

जशपुर: शक्ति की उपासना और असत्य पर सत्य की जीत के प्रतीक का पर्व दशहरा रियासतकाल की गौरवशाली परंपरा के साथ मनाया गया. जशपुर दशहरा आज भी रियासतकाल की ऐतिहासिक संगठन की कहानी बयां करता है. यहां का दशहरा राजपरिवार के साथ मनाए जाने वाले सभी वर्ग समुदाय का सबसे बड़ा पर्व है जो अनूठी वनवासी परंपरा से जुड़ा है.

जशपुर राजपरिवार का दशहरा

जशपुर दशहरा के ऐतिहासिक महत्व पर गौर करें, तो रियासत काल में जनजातीय समुदाय और तत्कालीन राजाओं का आपसी सामंजस्य इतना मजूबत था कि दस दिनों तक चलने वाले इस महाउत्सव में हर रीति-रिवाज में समाज के सभी वर्ग की बराबर की भागीदारी होती थी.

जशपुर का राजपरिवार
जशपुर का राजपरिवार

नवरात्र के पहले दिन से लेकर रावण दहन तक के हर अनुष्ठान में समाज के हर वर्ग को जो जिम्मेदारी बांटी गई थी, उसे उसी परिवार के सदस्य 27 पीढ़ियों से निभाते आ रहे हैं.

करीब एक हजार से चली आ रही है परंपरा

  • जशपुर रियासत के उत्तराधिकारी और तत्कालीन राजा रणविजय सिंह देव का मानना है कि 800 से एक हजार साल के आस-पास से यह दशहरा मनाया जाता है.
  • उनका कहना है कि पहले यहां डोम राजाओं का राज हुआ करता था, जिन्हें हमारे पूर्वज राजा सुजान राय ने हराकर इस दशहरे की शुरुआत की थी.
  • दशहरा उत्सव जशपुर का महाउत्सव इसलिए भी है क्योंकि इस उत्सव में धर्म, जाति, संप्रदाय के बंधनों को पीछे छोड़ यहां के निवासी एक स्थान पर सद्भावनापूर्वक एकत्रित होकर असत्य पर सत्य की जीत के लिए एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं.
  • उत्सव में उत्साह सिर्फ रावण वध का नहीं बल्कि आधुनिकता में इस परंपरा को बचाए रखने का भी है.
    प्रतिमा ले जाते हुए राजपरिवार के लोग
    प्रतिमा ले जाते हुए राजपरिवार के लोग

अनुष्ठान विश्व कल्याण के लिए
नवरात्र के पहले दिन से शुरू होने वाले अनुष्ठान का विशेष महत्व है. जशपुर रियासत की सत्ता को संचालित करने वाले देव बालाजी के मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर यहां पूजा की जाती है.

  • राजपुरोहित पंडित विनोद मिश्रा ने बताया कि, 'यह अनुष्ठान विश्व कल्याण की प्रार्थना के साथ राज परिवार के सदस्यों, आचार्य, बैगाओं और नागरिकों के द्वारा शुरू किया जाता है.'
  • झांकी के रूप में पक्की डाड़ी से पवित्र जल, गाजे- बाजे के साथ देवी मंदिर में लाया जाता है, जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्ज्वलित की जाती है.
  • इसी के साथ नियमित रूप से 21 आचार्य के मार्गदर्शन में राज परिवार के सदस्यों सहित नगर और ग्रामों से आए श्रद्वालु मां दुर्गा की उपासना, राजसी और तांत्रिक विधि से करते हैं. अनुष्ठान में पूरे नवरात्र तक हजारों की संख्या में श्रद्वालु शामिल होते हैं.
    धुमधाम से मनाया गया जशपुर दशहरा
    धुमधाम से मनाया गया जशपुर दशहरा

मां काली का 8 सौ साल पुराना मंदिर
नवरात्र की पूजा यहां के आठ सौ साल पहले स्थापित काली मंदिर से होती है, जहां 21 आचार्य हर दिन विश्व कल्याण के लिए अनुष्ठान करते हैं. इस मंदिर की स्थापना राज परिवार ने की थी, जिसमें मां काली की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा आचार्य खगेश्वर मिश्रा द्वारा की गई थी. यहां हर एक त्योहार में नगरवासियों और जनजातियों में पूजा पद्वति में कुछ विभिन्नतांए हैं, लेकिन दशहरा महोत्सव में बैगा, पुजारी, आचार्य सभी एक पंरपरा का निर्वहन करते हैं. किसी की भी अनुपस्थिति होती है, तो पूरा उत्सव अधूरा होता है.

नियमित हवन-पूजन के साथ अनोखी मान्यता
नवरात्र के दौरान मां काली और बालाजी मंदिर में नियमित रूप से हवन-पूजन में श्रद्धालु लीन रहते हैं. वहीं षष्ठी के दिन वन दुर्गा को दशहरा के अवसर पर इस विशेष अनुष्ठान में शामिल करने के लिए न्योता दिया जाता है.

  • आमंत्रण के लिए षष्ठी के दिन शाम में विशेष झांकी निकलती है, जो देवी मंदिर से लगभग दो किलोमीटर पर स्थिति ग्राम जुरगुम जाती है.
  • वन दुर्गा के साथ मां काली की सेना के रूप में 64 योगिनियों को भी आमंत्रण दिया जाता है.
  • यगिनियों के साथ वे बुरी आत्माएं आमंत्रित होती हैं, जिन्हें सतकर्मा के लिए मां काली ने अपने नियंत्रण में लिया था.
  • मान्यता है कि, यहां पर तांत्रिक बेल का पेड़ है, जिसमें आम के पौधे भी उगे हैं. षष्ठी के दिन आमंत्रण देने के बाद वन दुर्गा को सप्तमी के दिन लेने के लिए भी आचार्य झांकी के साथ जाते हैं.
  • यहां से सप्तमी के दिन वन दुर्गा के प्रतीक के रूप में बेल के फल को लाया जाता है और उसे देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है.

बालाजी की भव्य सवारी
विजयादशमी के दिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु जिले भर से यहां के बालाजी मंदिर में एकत्रित हुए और भगवान बालाजी की विशेष पूजा अर्चना के बाद उन्हें लकड़ी से बने विशेष रथ में स्थापित किया गया.

  • एक रथ में जहां भगवान होते हैं, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित और राज परिवार के सदस्य होते हैं. शोभायात्रा यहां के रणजीता स्टेडियम में पहुंची. इस स्थान को रैनी डांड कहा जाता है.
  • रणजीता मैदान में नगर के विभिन्न स्थलों से निकली मां दुर्गा की शोभा यात्रा भी पहुंचती है, यहां कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है, जिसमें भव्य रावण सहित कुंभकर्ण, मेघनाथ व अहिरावण के पुतले जलाए गए.

नीलकंठ दर्शन करना माना जाता है शुभ
लंका दहन के बाद अपराजिता पूजा होती है, जिसके बाद दशहरा के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है. यह विशेष बैगा के द्वारा यहां के बालाजी मंदिर में लाया जाता है.

  • इस दिन नीलकंठ पक्षी को देखना शुभ माना जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि, रावण वध के समय रावण ने हनुमान को उनके वास्तवित रूप में पहचान लिया था और हनुमान ने शिव के नीलकंठ रूप में दर्शन दिए थे.
  • इसके बाद ही रावण को मुक्ती मिली थी. यहां के लोगों की मान्यता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है तो पूरे विश्व के लिए यह वर्ष शुभ होता है, वह नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है.

जशपुर: शक्ति की उपासना और असत्य पर सत्य की जीत के प्रतीक का पर्व दशहरा रियासतकाल की गौरवशाली परंपरा के साथ मनाया गया. जशपुर दशहरा आज भी रियासतकाल की ऐतिहासिक संगठन की कहानी बयां करता है. यहां का दशहरा राजपरिवार के साथ मनाए जाने वाले सभी वर्ग समुदाय का सबसे बड़ा पर्व है जो अनूठी वनवासी परंपरा से जुड़ा है.

जशपुर राजपरिवार का दशहरा

जशपुर दशहरा के ऐतिहासिक महत्व पर गौर करें, तो रियासत काल में जनजातीय समुदाय और तत्कालीन राजाओं का आपसी सामंजस्य इतना मजूबत था कि दस दिनों तक चलने वाले इस महाउत्सव में हर रीति-रिवाज में समाज के सभी वर्ग की बराबर की भागीदारी होती थी.

जशपुर का राजपरिवार
जशपुर का राजपरिवार

नवरात्र के पहले दिन से लेकर रावण दहन तक के हर अनुष्ठान में समाज के हर वर्ग को जो जिम्मेदारी बांटी गई थी, उसे उसी परिवार के सदस्य 27 पीढ़ियों से निभाते आ रहे हैं.

करीब एक हजार से चली आ रही है परंपरा

  • जशपुर रियासत के उत्तराधिकारी और तत्कालीन राजा रणविजय सिंह देव का मानना है कि 800 से एक हजार साल के आस-पास से यह दशहरा मनाया जाता है.
  • उनका कहना है कि पहले यहां डोम राजाओं का राज हुआ करता था, जिन्हें हमारे पूर्वज राजा सुजान राय ने हराकर इस दशहरे की शुरुआत की थी.
  • दशहरा उत्सव जशपुर का महाउत्सव इसलिए भी है क्योंकि इस उत्सव में धर्म, जाति, संप्रदाय के बंधनों को पीछे छोड़ यहां के निवासी एक स्थान पर सद्भावनापूर्वक एकत्रित होकर असत्य पर सत्य की जीत के लिए एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं.
  • उत्सव में उत्साह सिर्फ रावण वध का नहीं बल्कि आधुनिकता में इस परंपरा को बचाए रखने का भी है.
    प्रतिमा ले जाते हुए राजपरिवार के लोग
    प्रतिमा ले जाते हुए राजपरिवार के लोग

अनुष्ठान विश्व कल्याण के लिए
नवरात्र के पहले दिन से शुरू होने वाले अनुष्ठान का विशेष महत्व है. जशपुर रियासत की सत्ता को संचालित करने वाले देव बालाजी के मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर यहां पूजा की जाती है.

  • राजपुरोहित पंडित विनोद मिश्रा ने बताया कि, 'यह अनुष्ठान विश्व कल्याण की प्रार्थना के साथ राज परिवार के सदस्यों, आचार्य, बैगाओं और नागरिकों के द्वारा शुरू किया जाता है.'
  • झांकी के रूप में पक्की डाड़ी से पवित्र जल, गाजे- बाजे के साथ देवी मंदिर में लाया जाता है, जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्ज्वलित की जाती है.
  • इसी के साथ नियमित रूप से 21 आचार्य के मार्गदर्शन में राज परिवार के सदस्यों सहित नगर और ग्रामों से आए श्रद्वालु मां दुर्गा की उपासना, राजसी और तांत्रिक विधि से करते हैं. अनुष्ठान में पूरे नवरात्र तक हजारों की संख्या में श्रद्वालु शामिल होते हैं.
    धुमधाम से मनाया गया जशपुर दशहरा
    धुमधाम से मनाया गया जशपुर दशहरा

मां काली का 8 सौ साल पुराना मंदिर
नवरात्र की पूजा यहां के आठ सौ साल पहले स्थापित काली मंदिर से होती है, जहां 21 आचार्य हर दिन विश्व कल्याण के लिए अनुष्ठान करते हैं. इस मंदिर की स्थापना राज परिवार ने की थी, जिसमें मां काली की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा आचार्य खगेश्वर मिश्रा द्वारा की गई थी. यहां हर एक त्योहार में नगरवासियों और जनजातियों में पूजा पद्वति में कुछ विभिन्नतांए हैं, लेकिन दशहरा महोत्सव में बैगा, पुजारी, आचार्य सभी एक पंरपरा का निर्वहन करते हैं. किसी की भी अनुपस्थिति होती है, तो पूरा उत्सव अधूरा होता है.

नियमित हवन-पूजन के साथ अनोखी मान्यता
नवरात्र के दौरान मां काली और बालाजी मंदिर में नियमित रूप से हवन-पूजन में श्रद्धालु लीन रहते हैं. वहीं षष्ठी के दिन वन दुर्गा को दशहरा के अवसर पर इस विशेष अनुष्ठान में शामिल करने के लिए न्योता दिया जाता है.

  • आमंत्रण के लिए षष्ठी के दिन शाम में विशेष झांकी निकलती है, जो देवी मंदिर से लगभग दो किलोमीटर पर स्थिति ग्राम जुरगुम जाती है.
  • वन दुर्गा के साथ मां काली की सेना के रूप में 64 योगिनियों को भी आमंत्रण दिया जाता है.
  • यगिनियों के साथ वे बुरी आत्माएं आमंत्रित होती हैं, जिन्हें सतकर्मा के लिए मां काली ने अपने नियंत्रण में लिया था.
  • मान्यता है कि, यहां पर तांत्रिक बेल का पेड़ है, जिसमें आम के पौधे भी उगे हैं. षष्ठी के दिन आमंत्रण देने के बाद वन दुर्गा को सप्तमी के दिन लेने के लिए भी आचार्य झांकी के साथ जाते हैं.
  • यहां से सप्तमी के दिन वन दुर्गा के प्रतीक के रूप में बेल के फल को लाया जाता है और उसे देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है.

बालाजी की भव्य सवारी
विजयादशमी के दिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु जिले भर से यहां के बालाजी मंदिर में एकत्रित हुए और भगवान बालाजी की विशेष पूजा अर्चना के बाद उन्हें लकड़ी से बने विशेष रथ में स्थापित किया गया.

  • एक रथ में जहां भगवान होते हैं, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित और राज परिवार के सदस्य होते हैं. शोभायात्रा यहां के रणजीता स्टेडियम में पहुंची. इस स्थान को रैनी डांड कहा जाता है.
  • रणजीता मैदान में नगर के विभिन्न स्थलों से निकली मां दुर्गा की शोभा यात्रा भी पहुंचती है, यहां कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है, जिसमें भव्य रावण सहित कुंभकर्ण, मेघनाथ व अहिरावण के पुतले जलाए गए.

नीलकंठ दर्शन करना माना जाता है शुभ
लंका दहन के बाद अपराजिता पूजा होती है, जिसके बाद दशहरा के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है. यह विशेष बैगा के द्वारा यहां के बालाजी मंदिर में लाया जाता है.

  • इस दिन नीलकंठ पक्षी को देखना शुभ माना जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि, रावण वध के समय रावण ने हनुमान को उनके वास्तवित रूप में पहचान लिया था और हनुमान ने शिव के नीलकंठ रूप में दर्शन दिए थे.
  • इसके बाद ही रावण को मुक्ती मिली थी. यहां के लोगों की मान्यता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है तो पूरे विश्व के लिए यह वर्ष शुभ होता है, वह नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है.
Intro:रियासतकालीन सामाजिकस संगठन की मिशाल जशपुर दशहरा

भगवान बालाजी की निकली भव्य सवारी
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जशपुर शक्ति की उपासना व असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक का पर्व दशहरा रियासतकाल की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप मनाया जाता रहा है। जशपुर दशहरा आज भी रियासतकाल की ऐतिहासिक संगठन की कहानी बयान करता है। यहां का दशहरा राजपरिवार के साथ मनाया जाने वाला सभी वर्ग समुदाय का सबसे बड़ा पर्व है जो अनूठी वनवासी परंपरा से जुड़ी है।

जशपुर दशहरा के ऐतिहासिक महत्व पर गौर करें तो रियासत काल में जनजातीय समुदाय और तात्कालीन राजाओं का आपसी सामंजस्य इतना मजूबत था कि दस दिनों तक चलने वाले इस महा उत्सव में हर रीति रिवाज में समाज के सभी वर्गं की बराबर की भागीदारी थी। नवरात्र के पहले दिन से लेकर रावण दहन तक के हर अनुष्ठान में समाज के हर वर्ग को जो जिम्मेदारी बांटी गई थी, उसे उसी परिवार के सदस्य 27 पीढ़ियों से निभाते आ रहे हैं।

Body:जशपुर रियासत के उत्तराधिकारी ओर तत्कालीन राजा रणविजय सिंह देव का मानना है कि 8 सो से हजार साल के आस पास से यह दशहरा यहाँ मनाया जाता है, उनका कहना है कि पहले यहाँ डोम राजाओं का राज हुवा करता है जिन्हें हमारे पूर्वज राजा सुजान राय ने हरा कर हजार साल पहले इस दशहरे की सुरुवात की थी, दशहरा उत्सव जशपुर का महा उत्सव इसलिए भी है क्योंकि इस उत्सव में धर्म, जाति, संप्रदाय के बंधनों के काफी पीछे छोड़ यहां के निवासी एक स्थान पर सद्भावना पूर्वक एकत्रित होकर असत्य पर सत्य की जीत के लिए एक दूसरे क शुभकामनाएं देते हैं। उत्सव में उत्साह सिफर् रावण वध का नहीं बल्कि आधुनिकता में इस परंपरा क बचाए रखने का भी उतना ही उत्साह यहां के लगों में होता है।

अनुष्ठान विश्व कल्याण के लिए

नवरात्र के पहले दिन से शुरू होने वाले अनुष्ठान का विशेष महत्व है। जशपुर रियासत की सत्ता को संचालित करने वाले देव बालाजी भगवान के मंदिर और काली मंदिर से अस्त्र-शस्त्रों को लाकर यहां पूजा की जाती है। राजपुरोहित पंडित विनोद मिश्रा ने बताया कि यह अनुष्ठान विश्व कल्याण की प्रार्थना के साथ राज परिवार के सदस्यों, आचार्यं , बैगाओं और नागरिकों के द्वारा प्रारंभ किया जाता है। झांकी के रूप में पक्की डाड़ी से पवित्र जल गाजे- बाजे के साथ देवी मंदिर मे लाया जाता है, जहां कलश स्थापना कर अखंड दीप प्रज्वलित की जाती है। इसी के साथ नियमित रूप से 21 आचार्य के मार्गदर्शन में राज परिवार के सदस्य सहित नगर व ग्रामों से आए श्रद्वालु मां दुर्गा की उपासना वैदिक, राजसी और तांत्रिक विधि से करते हैं। अनुष्ठान में पूरे नवरात्र तक हजारों की संख्या में श्रद्वालु शामिल होते हैं।


8 सौ साल पुराना मंदिर मां काली का

नवरात्र की पूजा यहां के आठ सौ साल पहले स्थापित काली मंदिर से होती है, जहां 21 आचार्य हर दिन विश्व कल्याण के लिए अनुष्ठान करते हैं। इस मंदिर की स्थापना राज परिवार ने की थी, जिसमें मां काली की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा आचार्य खगेश्वर मिश्रा के द्वारा की गई थी। यहां हर एक त्योहार में नगरवासियों और जनजातियों में पूजा पद्वति में कुछ विभिन्नतांए हैं, लेकिन दशहरा महोत्सव में बैगा, पुजारी, आचार्य सभी एक पंरपरा का निर्वहन करते हैं। किसी की भी अनुपस्थिति होती है तो पूरा उत्सव अधूरा होता है।

नियमित हवन पूजन

नवरात्र के दौरान मां काली व बालाजी मंदिर में नियमित रूप से हवन, पूजन में श्रद्वालु लीन रहते हैं, वहीं षष्ठी के दिन वनदुर्गा को दशहरा के अवसर पर इस विशेष अनुष्ठान में शामिल करने के लिए आमंत्रण दिया जाता है। आमंत्रण के लिए षष्ठी के दिन शाम में विशेष झांकी निकलती है, जो देवी मंदिर से लगभग दो किलोमीटर पर स्थिति ग्राम जुरगुम जाती है। वनदुर्गा के साथ मां काली की सेना के रूप में 64 योगिनियों को भी आमंत्रण दिया जाता है। यगिनियों के साथ वे बुरी आत्माएं आमंत्रित होती हैं, जिन्हें सतकर्मांे के लिए मां काली ने अपने नियंत्रण में ले लिया था। मान्यता है कि यहां पर तांत्रिक बेल का पेड़ है, जिसमें आम के पौधे भी उगे हैं। षष्ठी के दिन आमंत्रण देने के बाद वन दुर्गा को सप्तमी के दिन लेने के लिए भी आचार्य झांकी के साथ जाते हैं। यहां से सप्तमी के दिन वनदुर्गा के प्रतीक के रूप में बेल के फ ल को लाया जाता है और उसे देवी मंदिर में स्थापित कर पूजा की जाती है। इन सभी परंपराओं का निर्वहन इस वर्ष भी किया गया।



निकली भगवान बालाजी की भव्य सवारी

आज विजयादशमी के दिन हजारों की संख्या में श्रद्वालु जिले भर से यहां के बालाजी मंदिर में एकत्रित हुवे और भगवान बालाजी की विशेष पूजा अर्चना के बाद उन्हें लकड़ी से बने विशेष रथ में स्थापित किया जाता है। एक रथ में जहां भगवान होते हैें, वहीं दूसरे रथ में पुरोहित व राज परिवार के सदस्य होते हैं। शोभा यात्रा यहां के रणजीता स्टेडियम में पहुँची। इस स्थान को पहले रैनी डांड कहा जाता है। रणजीता मैदान में नगर के विभिन्न स्थलों से निकली मां दुर्गा की शोभा यात्रा भी पहुंचती है, यहां कृत्रिम लंका का निर्माण किया जाता है, जिसमें भव्य रावण सहित कुंभकर्ण, मेघनाथ व अहिरावण के पुतले जलाए जाएंगे। हनुमान के द्वारा लंका दहन किया जाता है।

Conclusion:नीलकंठ दर्शन

लंका दहन के बाद अपराजिता पूजा होती है जिसके बाद दशहरा के दिन अंतिम कार्यक्रम के रूप में रणजीता मैदान में भगवान के रथ से नीलकंठ पक्षी के उड़ाने की पंरपरा है। यह विशेष बैगा के द्वारा यहां के बालाजी मंदिर में लाया जाता है। इस दिन नीलकंठ पक्षी को देखना शुभ माना जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि रावण वध के समय रावण ने हनुमान क उनके वास्तवित रूप में पहचान लिया था और हनुमान ने शिव के नीलकंठ रूप में दर्शन दिए थे। इसके बाद ही रावण को मुक्ती मिली थी। यहां के लोगों की मान्यता है कि यदि नीलकंठ पूर्व और उत्तर की ओर उड़ता है तो पूरे विश्व के लिए यह वर्ष शुभ होता है, वह नीलकंठ यदि अन्य दिशाओं की ओर उड़ता है तो प्राकृतिक आपदाओं सहित अन्य परेशानियों का संकेत होता है। नीलकंठ क राजपरिवार के सदस्यों द्वारा उड़ाया जाता है।

बाइट 1नरेश मिश्रा राज पुरोहित
बाइट 2 विनोद मिश्रा राज पुरोहित
बाइट 3 हिमांशु वर्मा नागरिक जशपुर
बाइट राजा रणविजय सिंह देव (जशपुर राजा)

तरुण प्रकाश शर्मा
जशपुर
Last Updated : Oct 9, 2019, 1:40 PM IST
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