पुल के बह जाने से गांव वालों पर मुसीबत का अंबार टूट पड़ा, बारिश के मौसम में नदी में आए सैलाब ने उनगा बाहर जाना दूभर कर दिया. हालांकि प्रशासन ने टूटे पुल के बगल में दूसरा पुल बनाने की कोशिश की लेकिन यह प्रयास बीरबल की खिचड़ी बन गया और 10 साल बाद भी अधूरा ही रह गया. लकड़ी से बना यह पुल सबूत है राजनीतिक जुमलेबाजी का, यह गवाह है सिस्टम के दिवालियापन का. ये सेतु उतरहण है गांववालों के मजबूत इरादे और एकजुटता का.
2011 में सामने आया था स्कैम
इस पुल निर्माण को लेकर 2011 में एक बड़ा स्कैम सामने आया. ग्रामीणों से विरोध के बाद कलेक्टर ने जांच समिति का गठन किया. समिति ने जांच रिपोर्ट में 23 लाख 99 हजार रुपए का अधिक मुल्यांकन पाया गया. आरोपी पर कार्रवाई भी की गई लेकिन छह साल गुजरने के बाद भी पुल उसी हाल में अटका है.
सबसे ज्यादा फजीहत को बारिश के दिनों में होती है एक ओर नीचे नदी, तो वहीं दूसरी ओर गिला लकड़ी का पुल. ग्रामीण अपनी जान जोखिम में डालकर इसे पार करते हैं, हर वक्त डर बना रहता है कि कहीं इन बल्लियों ने दगा दे दिया तो, जिंदगी डोर हमेशा-हमेशा के कट न जाए.
क्या कहना है ग्रामीणों का
ग्रामीण कहते हैं कि चुनाव के वक्त नेताजी आश्वासन का चोला ओढ़ाते हैं और फिर पांच साल के लिए फुर्र हो जाते हैं. नई सरकार के आते ही यहां के दो सौ तीस परिवारों में भी उम्मीद जागी है कि, उनकी गुहार सरकार तक जाएगी और वहां से खुशियों की सौगात लाएगी.