जगदलपुर : आपने धनिया, पुदीना या टमाटर की चटनी के बारे में तो काफी सुना होगा. लेकिन लाल चीटियों की चटनी के बारे में सुनकर थोड़ा अटपटा लग सकता है. आपको जानकर बेहद हैरानी भी होगी की इस चटनी को बस्तर के आदिवासी बड़े चाव से खाते हैं.
बस्तर के आदिवासी लाल रंग की चीटियों को पेड़ों से इकट्ठा करके इसकी चटनी बनाते हैं. जिसे स्थानीय बोलचाल में चापड़ा चटनी कहा जाता है. बस्तर के किसी पारंपरिक साप्ताहिक बाजार में आदिवासी महिलाएं पत्तों के दोने में लाल चीटियां बेचती आसानी से देखी जा सकती हैं. आदिवासी अपने खानपान में इस चटनी का इस्तेमाल सदियों से करते आ रहे हैं. कहा जाता है कि ये चटनी मेडिसिन का भी काम करती है.
ऐसे बनाते हैं चटनी
ग्रामीणों का कहना है कि मार्च, अप्रैल और मई का महीना आते ही लाल चीटियां जंगलों में सरगी, साल, आम और कुसुम के पेड़ों के पत्तों में बड़े पैमाने पर छत्ता बनाती हैं. ग्रामीण इन पेड़ों पर चढ़कर इन चीटियों को जमा कर लेते हैं. उन्होंने बताया कि अगर इसकी चटनी बनानी हो तो इसे पीसकर उसमें स्वाद अनुसार नमक और मिर्च मिलाते हैं. जिससे स्वाद काफी चटपटा हो जाता है. फिर इसे बड़े चाव से खाते हैं. वर्तमान में अब लोग इसमें अदरक और लहसुन भी मिलाने लगे हैं. जिससे इसका स्वाद और दोगुना बढ़ जाता है.
इन बिमारियों में मिलता है आराम
आदिवासी समुदाय में ऐसी मान्यता है कि चापड़ा चटनी स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होती है. इन चीटियों में भारी मात्रा में प्रोटीन और कैल्शियम पाया जाता है. इसके सेवन से मलेरिया और पीलिया जैसी बीमारियों से आराम मिलता है. साथ ही प्रतिरक्षा प्रणाली भी मजबूत होती है. जो बीमारियों से बचाने में काफी मददगार साबित होती है.
खुद को चीटियों से कटवाते आदिवासी
माना जाता है कि जब भी किसी आदिवासी को साधारण बुखार होता है तो वह पेड़ के नीचे बैठकर लाल चीटियों से खुद को कटवाते हैं. कहा जाता है कि इस प्रक्रिया से बुखार का असर कम हो जाता है. चीटियों में फार्मिक एसिड होने के कारण इनमें मेडिसिन के गुण पाए जाते हैं.
पर्यटकों को आ रही पसंद
इस चटनी को बस्तरिया डिश के नाम से देश-विदेशों से आए पर्यटकों को भोजन के साथ परोसा जाता है. साथ ही अब जगदलपुर शहर के रेस्टोरेंट्स और होटलों में भी डिमांड पर ये चटनी पर्यटकों को खिलाया जाता है.