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दर्द एक, दास्तां अनेक: पूर्णिमा से कहते थे सियाराम, 'मैं लौटूं या न लौटूं तुम बच्चों का ध्यान रखना' - ताड़मेटला में शहीद सियाराम

10 साल पहले सुकमा की कोंटा तहसील के ताड़मेटला में जब नक्सलियों ने खूनी खेल खेला था, तब सियाराम अपना फर्ज निभाते-निभाते शहीद हो गए थे. पूर्णिमा तब से सिर्फ नाम में ही पूरी हैं, सियाराम के बिना उनका जीवन अधूरा है. पढें पूरी स्टोरी...

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शहीद सियाराम का परिवार
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Published : Apr 5, 2020, 9:40 PM IST

Updated : Apr 6, 2020, 12:07 AM IST

धमतरी: 10 साल पहले सुकमा की कोंटा तहसील के ताड़मेटला में जब नक्सलियों ने खूनी खेल खेला था, तब सियाराम अपना फर्ज निभाते-निभाते शहीद हो गए थे. पूर्णिमा तब से सिर्फ नाम में ही पूरी हैं, सियाराम के बिना उनका जीवन अधूरा है. वो चुपचाप कहती हैं कि जिंदगी बीत रही है. हमारा गुजारा हो रहा है. बच्चे पढ़ रहे हैं, लेकिन वो होते तो हाल कुछ और होता.

ताड़मेटला में शहीद हुए थे सियाराम

पूर्णिमा बताती हैं कि 5 अप्रैल को जब सियाराम 150 जवानों के साथ गश्त पर निकल रहे थे, तब उनकी आखिरी बार बात हुई थी. इसके बाद उनका फोन ऐसे बंद हुआ कि फिर कभी पूर्णिमा, सियाराम की आवाज नहीं सुन पाईं. दूसरे दिन खबर मिली की वे शहीद हो गए हैं. सरकार ने सियाराम के बड़े बेटे को बाल आरक्षक की नौकरी दी है. छोटा बेटा कॉलेज में है और बेटी मुस्कान पढ़ाई कर रही है और उनकी मां ने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया है.

tadmetala martyr siyaram story from dhamtari
शहीद सियाराम

1995 में हुई थी ज्वॉइनिंग

सियाराम ने जब सोचा कि कुछ करेंगे, तब से ही वे पुलिस विभाग उन्हें आकर्षित करता रहा. 1995 में उनका सपना सच हुआ और आरक्षक के पद पर किस्टाराम में तैनाती मिली. इसके बाद से वह परिवार से दूर रहकर भी बीहड़ नक्सल इलाके में अपनी सेवाएं देते रहे. बीजापुर, तोंगपाल ड्यूटी के दौरान उन्हें आरक्षक से प्रधान आरक्षक के पद पर पदोन्नति मिली. इसके बाद ड्यूटी के लिए दंतेवाड़ा के चिंतलनार में पोस्टिंग हुई.

बच्चों को लेकर चिंतित रहते थे शहीद सियाराम

5 अप्रैल साल 2010 के रोज सियाराम अपनी गश्ती दल के साथ बीहड़ जंगल में निकला था. गश्ती के दौरान कुछ फुर्सत के पल में उसने पत्नी पूर्णिमा ध्रुव से फोन पर बात भी किया. पूर्णिमा बताती हैं कि फोन पर वह जब भी बात करता तो सिर्फ बच्चों को लेकर ही ज्यादा पूछताछ करता था. इस बार भी उन्होंने, उससे यही कहा कि पुलिस की नौकरी है, नक्सली इलाका है, कब क्या हो जाए कुछ नहीं कहा जा सकता. मैं लौटूं या ना लौटूं तुम बच्चों को बेहतर भविष्य जरूर देना.

मीडिया के जरिए मिली थी शहादत की खबर

इसके बाद उसका फोन बंद हो गया अचानक फोन बंद होने के बाद पूर्णिमा ने कई दफे फोन लगाने की कोशिश की लेकिन कोई संपर्क नहीं हुआ. जब पति से संपर्क नहीं हुआ तब उसके बारे में जानकारी लेने पुलिस ऑफिस तक गई लेकिन वहां भी कोई जवाब नहीं मिला. बाद में मीडिया के जरिए पूर्णिमा को पता लगा कि उसके भाग्य ने उसके हिस्से शहीद की विधवा कहलाना लिखा है.

सियाराम की शहादत को अब एक दशक हो गए हैं. पूर्णिमा जब भी किसी नक्सली हमले में जवानों की मौत या किसी के हताहत होने की खबर अखबारों या टीवी में देखती हैं तो नाराजगी से भर जाती हैं. पूर्णिमा कहती हैं कि इस संघर्ष से किसी का भला नहीं होगा.

धमतरी: 10 साल पहले सुकमा की कोंटा तहसील के ताड़मेटला में जब नक्सलियों ने खूनी खेल खेला था, तब सियाराम अपना फर्ज निभाते-निभाते शहीद हो गए थे. पूर्णिमा तब से सिर्फ नाम में ही पूरी हैं, सियाराम के बिना उनका जीवन अधूरा है. वो चुपचाप कहती हैं कि जिंदगी बीत रही है. हमारा गुजारा हो रहा है. बच्चे पढ़ रहे हैं, लेकिन वो होते तो हाल कुछ और होता.

ताड़मेटला में शहीद हुए थे सियाराम

पूर्णिमा बताती हैं कि 5 अप्रैल को जब सियाराम 150 जवानों के साथ गश्त पर निकल रहे थे, तब उनकी आखिरी बार बात हुई थी. इसके बाद उनका फोन ऐसे बंद हुआ कि फिर कभी पूर्णिमा, सियाराम की आवाज नहीं सुन पाईं. दूसरे दिन खबर मिली की वे शहीद हो गए हैं. सरकार ने सियाराम के बड़े बेटे को बाल आरक्षक की नौकरी दी है. छोटा बेटा कॉलेज में है और बेटी मुस्कान पढ़ाई कर रही है और उनकी मां ने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया है.

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शहीद सियाराम

1995 में हुई थी ज्वॉइनिंग

सियाराम ने जब सोचा कि कुछ करेंगे, तब से ही वे पुलिस विभाग उन्हें आकर्षित करता रहा. 1995 में उनका सपना सच हुआ और आरक्षक के पद पर किस्टाराम में तैनाती मिली. इसके बाद से वह परिवार से दूर रहकर भी बीहड़ नक्सल इलाके में अपनी सेवाएं देते रहे. बीजापुर, तोंगपाल ड्यूटी के दौरान उन्हें आरक्षक से प्रधान आरक्षक के पद पर पदोन्नति मिली. इसके बाद ड्यूटी के लिए दंतेवाड़ा के चिंतलनार में पोस्टिंग हुई.

बच्चों को लेकर चिंतित रहते थे शहीद सियाराम

5 अप्रैल साल 2010 के रोज सियाराम अपनी गश्ती दल के साथ बीहड़ जंगल में निकला था. गश्ती के दौरान कुछ फुर्सत के पल में उसने पत्नी पूर्णिमा ध्रुव से फोन पर बात भी किया. पूर्णिमा बताती हैं कि फोन पर वह जब भी बात करता तो सिर्फ बच्चों को लेकर ही ज्यादा पूछताछ करता था. इस बार भी उन्होंने, उससे यही कहा कि पुलिस की नौकरी है, नक्सली इलाका है, कब क्या हो जाए कुछ नहीं कहा जा सकता. मैं लौटूं या ना लौटूं तुम बच्चों को बेहतर भविष्य जरूर देना.

मीडिया के जरिए मिली थी शहादत की खबर

इसके बाद उसका फोन बंद हो गया अचानक फोन बंद होने के बाद पूर्णिमा ने कई दफे फोन लगाने की कोशिश की लेकिन कोई संपर्क नहीं हुआ. जब पति से संपर्क नहीं हुआ तब उसके बारे में जानकारी लेने पुलिस ऑफिस तक गई लेकिन वहां भी कोई जवाब नहीं मिला. बाद में मीडिया के जरिए पूर्णिमा को पता लगा कि उसके भाग्य ने उसके हिस्से शहीद की विधवा कहलाना लिखा है.

सियाराम की शहादत को अब एक दशक हो गए हैं. पूर्णिमा जब भी किसी नक्सली हमले में जवानों की मौत या किसी के हताहत होने की खबर अखबारों या टीवी में देखती हैं तो नाराजगी से भर जाती हैं. पूर्णिमा कहती हैं कि इस संघर्ष से किसी का भला नहीं होगा.

Last Updated : Apr 6, 2020, 12:07 AM IST
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