बेमेतरा: छतीसगढ़ प्रदेश कृषि प्रधान प्रदेश है और यहां के किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. भले ही देश को आजाद हुए 70 वर्ष से अधिक हो गए हैं, लेकिन किसानों की बदहाली खत्म नहीं हुई है. छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर टिकी हुई है. देश की बहुत बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है. जिस देश में किसानों की मेहनत से रोटी मिलती है, वहीं इन भूमिपुत्रों के हितों की नीति सियासत की भेंट चढ़ जाती है. प्रदेश में उन किसानों की माली हालत ज्यादा दयनीय है, जो अधिया और रेगहा पर खेती कर जीवन यापन कर रहे हैं. देश के किसानों को लगातार मौसम, बाजार भाव और उपज में कमी के साथ खाद-बीज की कमी की मार झोलनी पड़ती है.
अधिया-रेगहा वालों की हालत बद से बदतर
भारत देश में किसानों की आत्महत्या एक ऐसा अभिशाप है, जो देश के माथे पर कलंक है. जिसे मिटाने के लिए किसानों के जीवन में खुशहाली लाना बेहद जरूरी है. यह तभी संभव है जब किसानों की हालत सुधरेगी और वे आर्थिक रूप से समृद्ध होंगे. देश में किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए कई प्रयास भी हुए हैं, लेकिन हर साल बदलते वक्त के लिहाज से ये सब नाकाम साबित हुए. वर्तमान में बढ़ती महंगाई के दौरे में किसानों की मुख्य समस्या खाद और कीटनाशकों की बढ़ती कीमत और फसल का सही दाम नहीं मिलना है. छत्तीसगढ़ में जिन किसानों के पास कम खेती है या खेती नहीं है, वे किसान अधिया और रेगहा पर खेती कर रहे हैं. अधिया यानी उपज का आधा हिस्सा खेत के मालिक को देनी होती है और रेगहा में खेत के मालिक को एक मुश्त पैसे देने होते हैं. इन दोनों ही हालात में भूमिहिन किसानों की खेती से आमदनी का एक बड़ा हिस्सा खेत के मालिक के पास चला जाता है. रही-सही कसर खाद-बीच और कीटनाशक के साथ बेमौसम बरसात पूरी कर देती है. पूरे देश में भूमिहिन किसानों की हालत लगभग ऐसी ही है.
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अधिया-रेगहा पर खेती करने वाले किसान परेशान
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में अधिया और रेगहा की खेती कर रहे किसानों ने बताया, वे लंबे समय से दूसरे की खेतों में खेती कर रहे हैं. बावजूद इसके उन्हें उनकी मेहनत का उचित दाम नहीं मिल पाता है. किसानों ने बताया, उन्हें आपदा राशि और फसल बीमा राशि भी नहीं मिल पाती है. उनकी खेती भगवान भरोसे होती है. बेमेतरा जिले में इन दिनों हरियाणा से आये किसान गन्ना की खेती कर रहे हैं. इससे यहां के किसानों में भी गन्ने की फसल की ओर झुकाव बढ़ा है. गन्ना किसान बताते हैं, जिले में रेगहा खेती के माध्यम से गन्ने की फसल उगाई जा रही है. रेगहा के लिए 15 हजार रुपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष खेत लिया जाता है. इसमें कम से कम 25 से 30 हजार रुपये की उपज होती है. रेग पर खेत लेने वाले किसान 15 हजार रुपये खेत मालिक को देता है, बचे 10 से 15 हजार के लिए वे पूरे साल दिन-रात मेहनत करता है. जिसमें खेतों में काम करने वाले मजदूरों को भी मेहनताना देना होता है. यदि प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारणों से फसल छति हुई तो मुआवजा केवल खेत मालिक को मिलता है और नुकसान किसान को. रेगहा की खेती करने वाले किसानों को इन सभी समस्याओं से गुजरना पड़ता है.
बाजार भाव की अनिश्चितता का दंश झेल रहे किसान
अक्सर यह बात सामने आती है कि किसानों ने उत्पादन खूब किया. दिन-रात एक करके मेहनत की, लेकिन उत्पादन कहां बिकेगा कितने में बिकेगा पता नहीं. इसके कारण मेहनत के बाद किसानों की कमर टूट जाती है. उत्पादन के बाद बिक्री नहीं होने से उपज सड़कों पर फेंकने और मवेशियों को खिलाने की बात सामने आती है. यह भी किसानों की किस्मत पर बड़ी कुठाराघात साबित होता है.
रेग या अधिया की खेती करने वाले किसानों को नहीं मिलता बीमा
रेग या अधिया की खेती कर रहे किसानों की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि उनकी फसल चौपट होने पर फसल का बीमा नहीं मिल पाता है. व्यवस्था ऐसी है कि फसल का बीमा बोनस खेत मालिक का होता है. जिसके कारण किसानों को क्षति हुई फसल का मुआवजा भी नहीं मिल पाता है. आलम यह है कि इन किसानों को ऋण भी नहीं मिल पाता है. जिसके कारण वे अत्याधिक ब्याज पर कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं. यहीं किसानों की विकराल समस्या है.
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किसानों के हालातों में नहीं हो रहा सुधार
अधिया या रेग की खेती कर रहे किसानों को कृषि की सरकारी नीति में किसानों को गारंटी के साथ संरक्षण नहीं मिलता. इसी का परिणाम है कि किसानों के आर्थिक हालात सुधरने की बजाय बिगड़ते चले जा रहे हैं. ऐसे किसानों के लिए अभी तक कोई ठोस नीति नहीं बनी है. जिससे यह कहा जा सके कि किसानों को नुकसान नहीं होगा. सरकारी नीति भी गजब की है, उद्योगों के लिए बड़ी बड़ी सब्सिडी अन्य कई सुविधाएं मिलती है, लेकिन कृषि प्रधान देश के अन्नदाताओं को कुछ भी नहीं मिलता है. सरकार यह कहने से नहीं हिचकती कि देश की आर्थिक हालात में कृषि की भूमिका है, लेकिन किसानों के आर्थिक हालातों पर कोई फिक्र नहीं करता है. जब भी किसानों के लिए नीति बनाने की बात होती है, किसानों को ही हाशिये पर रखा जाता है. यहीं कारण है कि घाटे के सौदे से किसान आत्मघाती कदम उठाने मजबूर हो जाते हैं यहीं कारण है कि भावी पीढ़ी का खेती से मोहभंग होता नजर आ रहा है.
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बेमेतरा जिला के अधिया और रेगहा खेती करने वाले किसान डमन कुमार, रमेश साहू और संतोष साहू ने बताया कि वे वर्षों से अधिया रेगहा की खेती करते आ रहे हैं, लेकिन हमारी आर्थिक हालात में कोई सुधार नहीं हुआ है. उन्होंने कहा कि हमारी रोजी-रोटी बस चल रही है. किसानों ने बताया कि जमीन उनके नाम पर नहीं होने और सरकारी कोई नीति नहीं होने के कारण फसल क्षति बीमा बोनस इन सभी का फायदा उन्हें नहीं मिल पाता है. किसानों ने बताया कि उनकी उपज सहकारी संस्थाओं में नहीं बिक पाती है. जिसके कारण वे दलालों से कम भाव में बेचने मजबूर हो जाते हैं. खेती के जानकार विमल सोनी ने बताया कि सहकारिता बैंक में शपथ पत्र के नमूने का पपत्र भराया जाता है. जिससे अधिया और रेगहा किसानों को डिटेल भरना होता है. जिससे जिन्हें खाद बीज मिल सके परंतु जानकारी के अभाव में अधियारा या रेगहा किसान इस ओर ध्यान नहीं देते. जिससे उन्हें आपदा के समय में अत्यधिक नुकसान होता है.