जगदलपुर: आज बस्तर दशहरा पर्व (Bastar Dussehra Festival) की एक और महत्वपूर्ण रस्म बेल पूजा (Worship) अदा की गई. इस रस्म में बेलवृक्ष और उसमें एक साथ लगने वाले दो फलों की पूजा का विधान है. ऐसे इकलौते बेल रस्म को बस्तर के लोग अनोखे और दुर्लभ तरीके से मनाते हैं. शहर से लगे ग्राम सरगीपाल में वर्षों पुराना एक बेलवृक्ष है, जिसमें एक के अलावा दो फल भी एक साथ लगते हैं. इसी बेलवृक्ष और जोड़ी बेल फल की पूजा-अर्चना परंपरा अनुसार संपन्न किया गया.
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वृक्ष के आगे और पीछे दो बेलवृक्ष हैं, लेकिन इनमें केवल एक ही फल लगता है. ऐसा यहां के ग्रामीण बताते हैं. आमतौर पर बस्तर दशहरा पर्व के प्रमुख विधानों की जानकारी आम लोगों तक पहुंचती रही है. बेल पूजा विधान की वास्तविकता के बारे में पता लगाने पर एक रोचक कहानी सामने आई है.
बेल रस्म के पीछे की कहानी क्या है?
बस्तर के राजकुमार कमलचंद भंजदेव (Prince Kamalchand Bhanjdev) ने बताया कि वास्तव में यह रस्म विवाहोत्सव से संबंधित है. उन्होंने बताया कि बस्तर के चालुक्य वंश के राजा सरगीपाल जंगल में शिकार करने गए थे, वहां इस बेलवृक्ष के नीचे खड़ी दो सुंदर कन्याओं को देख राजा ने उनसे विवाह की इच्छा प्रकट की, जिस पर कन्याओं ने उनसे बारात लेकर आने को कहा.
अगले दिन जब राजा बारात लेकर वहां पहुंचे तो दोनों कन्याओं ने उन्हें बताया कि वे उनकी ईष्टदेवी माणिकेश्वरी और दंतेश्वरी हैं. उन्होंने हंसी-ठिठोली में राजा को बारात लाने को कह दिया था, इससे शर्मिंदा राजा ने दंडवत होकर अज्ञानतावश किए गए अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगते हुए उन्हें दशहरा पर्व में शामिल होने का न्योता दिया. तब से यह विधान चला आ रहा है.
दरअसल दो जोड़ी बेल फल को दोनों देवियों का प्रतीक माना जाता है. हर साल बेल न्योता में राजा स्वयं इस गांव में आकर जोड़ी बेल फल को सम्मानपूर्वक पुजारी से ग्रहण करतें है और उसे जगदलपुर स्थित माई दंतेश्वरी के मंदिर में पूजा-अर्चना के साथ रखा जाता है. इन बेल फलों के गूदे का लेप माईजी के छत्र पर किया जाता है और इसी से राजा स्नान भी करते हैं. बेल पूजा विधान के दौरान गांव सरगीपाल में उत्सव जैसा माहौल रहता है. स्वागत और बेटी की विदाई दोनों का अभूतपूर्व नजारा यहां देखने को मिलता है.