सरगुजा: खुद को समाज से वंचित पाने का दर्द क्या हो सकता है, वह भला इन दिव्यांगों से बेहतर कौन समझ सकता है. कोई आंख से देख नहीं सकता तो किसी के पैर काम नहीं करते, तो किसी को सुनाई नहीं देता. इन्हें भी इसी कुदरत ने बनाया है, जिसने बाकी लोगों को बनाया है.
दिव्यांगों को साधारण समाज में रहना इतना आसान भी नहीं होता, जितना दिव्यांग दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में मंच से होने वाली भाषणों में सुनाई देता है. वास्तविकता तो यह है कि अक्सर इन दिव्यांगों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है. कई बार तो खुद इनके परिवार के लोग भी इन्हें इस स्थिति में अपना नहीं पाते हैं. हालांकि, इन सबके बीच कई लोग इनके लिए उम्मीद की किरण भी बनकर आते हैं. इन दिव्यांगों के लिए ऐसी ही एक उम्मीद की किरण है, कलावती पुनर्वास केंद्र, जहां निशक्तों को सहारा दिया जाता है.
बच्ची को मिली दृष्टि
यहां उनके रहने-खाने से लेकर पढ़ने-लिखने की तमाम जरूरतों का ख्याल रखा जाता है. सरगुजा के कलावती पुनर्वास केंद्र में आज 30 ऐसे लोग हैं, जो यहां रहकर जीने की कला सीख रहे हैं. संस्था ने यहां रहकर पढ़ने वाली बच्चियों की शादी भी कराई है. वहीं एक बच्ची के आंखों का ऑपरेशन भी कराया है.
सरकार से नहीं मिली कोई मदद
कलावती पुनर्वास केंद्र को एक दिव्यांग महिला ही संचालित करती है, खुद दिव्यांग होने से वो इन दिव्यांगों का दर्द बखूबी महसूस कर सकती हैं. शायद यही वजह है की संस्था को चलाने में आने वाली खर्च ने कभी इनकी हिम्मत नहीं तोड़ी. रीता अग्रवाल कलावती पुनर्वास केंद्र के लिए 2016 से सरकारी मदद की गुहार लगाकर थक चुकी है, सरकार ने आज तक इसपर कोई ध्यान नहीं दिया.
यह बात और है कि दिव्यांग दिवस पर यहां आयोजित बड़े-बड़े समारोहों के अवसर पर इसी संस्था से इन दिव्यांगों को मंच पर बुलाया जाता है. उन कार्यक्रमों में भाषण के साथ बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं और फिर इन्हें इसी हाल में लाकर छोड़ दिया जाता है.