सरगुजा: अम्बिकापुर के साहित्यकार विजय गुप्त छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद के सदस्य बनाये गये हैं. साहित्य की रचनाओं में वर्तमान को जींवत रखने वाले विजय गुप्त इस जिम्मेदारी को किस तरह निभाएंगे? इससे साहित्य जगत को क्या लाभ हो सकता है? इस विषय में ईटीवी भारत ने उनसे खास बातचीत की.
आईए जानते हैं उन्होंने क्या कहा?
सवाल : छत्तीसगढ़ साहित्य परिषद का उद्देश्य क्या है और आपको क्या जिम्मेदारियां दी गई हैं?
जवाब : सरगुजा सहित पूरे छत्तीसगढ़ में इसका मकसद ये है कि साहित्यिक सांस्कृतिक जागरूकता लाई जाये और साहित्यिक समझ को बढ़ाया जाये. पूरा छत्तीसगढ़ इस मामले में बहुत धनी है. यहां पुरातात्विक साहित्य भी है. यहा पर बहुत अच्छी साहित्यिक प्रतिभाएं भी हैं. अब तो लोग फिल्म में काम कर रहे हैं. फिल्म मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं, जर्नलिज्म कर रहे हैं, तो एक प्रकार से साहित्य और संस्कृति का जो विशाल संसार छत्तीसगढ़ में बसता है लेकिन वो बिखरा हुआ है. जैसे अभी भी कई जगहों में साहित्यकारों के बैठने के लिए जगह नहीं है, ऑडिटोरियम नहीं है. परिषद को बनाने का उद्देश्य यही है कि विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान लोग आये. अलग-अलग विधा के लोग छत्तीसगढ़ की साहित्य और सांस्कृति को आगे ले जाएं. देश में इसकी पहचान बने, एक तरह से ये एक बड़ा प्रयास है, मैं आशान्वित हूं कि ये परिषद बहुत अच्छा काम करेगी.
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सवाल : आपके साहित्यिक सफर की शुरूआत कैसे हुई और साहित्य में आपकी रुचि किन क्षेत्रों में है?
जवाब : सभी के साथ ऐसा होता है कि उस समय के जो साहित्यकार होते हैं, आपके पूर्वज होते हैं. उन्हीं से आप प्रभावित होते हो.मेरे साथ ऐसा ही हुआ. तुकबंदी से बात शुरू हुई थी और होते-होते साहित्य के प्रति उत्कट प्रेम जिसे कहते हैं वो मुझे हो गया. मैंने हिंदी साहित्य से एमए इसलिए भी किया था क्योंकि मैं साहित्य की अच्छी चीजों को जान सकूं, साहित्यिक प्रवत्तियों को समझ सकूं और अपने देश के और दुनिया के साहित्यिक रचनाओं को पढ़ सकूं. जब मैं बीए कर रहा था तो उस दौर में महाविद्यालयों में सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत अच्छे हुआ करते थे. थियेटर भी हुआ करता था. काव्य गोष्ठियां भी हुआ करती थी, प्रतियोगिता भी होती थी, तो उन प्रतियोगिताओं में मैं अक्सर भाग लेता था. कविता पाठ करता था मेरी रुचि संगीत में भी रही है, मैं गाता भी रहता था.गाना और लिखना साथ-साथ चलता रहा और फिर कुछ ऐसे शिक्षक भी मुझे मिले जिन्होंने मुझे प्रेरणा दी. मैं जो भी थोड़ा बहुत लिख पा रहा हूं, ये उनकी ही देन है. सरगुजा साहित्यिक और संस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध है. मैं अपनी रचनाओं में स्थानीय चीजों को रखता हूं. लोगों की तकलीफों पर लिखता हूं. क्योंकि जब तक आपकी रचनाओं में जीवन से जुड़ी बात ना हो, लोगों की समस्याओं की बात ना हो, तब तब तक साहित्य का कोई मतलब नहीं रहता. राजनीतिक परिवेश में अगर जनता के साथ कुछ गलत हो रहा है, तो मैं उसका प्रतिकार करना जरूरी समझता हूं.
सवाल : आपकी कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के बारे में बताइये?
जवाब : प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका थी. साम्य जिसका प्रकाशन और संपादन मैंने किया था. 40-42 वर्ष इस पत्रिका का प्रकाशन हो रहा है. प्रकाशन के शुरूआती दौर में मैंने सीखा कि जिस रचना में जनता की बात ना हो वो कला जीवित नहीं रह सकती. बहुत सी रचनाओं का पता नहीं चलता कि वो कहां गई. अगर आज प्रेमचंद याद आते हैं तो निराला याद आते हैं, राम विलास शर्मा याद आते हैं. हजारी प्रसाद द्विवेदी याद आते हैं तो क्यों याद आते हैं. आप सोचिये हरिशंकर प्रसाद आज भी गाये बजाये जाते हैं, आंशू और कामायनी की चर्चा आज भी होती है. हमारे क्षेत्र में सरगुजिहा बोली जाती है. लोक भाषाओं में भी यहां लोगों ने काम किया है. अनिरुद्ध नीरव बड़ा नाम है, जिन्होंने सरगुजिहा बोली में रचनाओं को स्थान दिलाया.