सरगुजा: जिले के गौठानो मे स्वयं सहायता समूह की महिलाएं खेती के नये तरीके सीख रही हैं. उद्यानिकी विभाग द्वारा प्रशिक्षण के नई पद्धति के प्रयोग से खेती के तरीके में बदलाव आया है. जिससे ना सिर्फ महिलाओं की मेहनत कम हुई है बल्कि खर्च कम और आमदनी ज्यादा हुई है. मल्चिंग पद्धति से ही यह संभव हो पाया है.
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जिले की गौठानो में मल्टी एक्टिव तरीके से खेती की जा रही है. जिसमें खेती भी एक प्रमुख आय का स्रोत है. यहां गांव की महिलाओं का ही समूह बनाकर जिला प्रशासन उन्हें अलग-अलग तरह की एक्टिविटी से जोड़कर स्व रोजगार से जोड़ रहा है. इसी कड़ी में महिलाओं ने पहले जिमी कांदा, मूंगफली, हल्दी और अन्य फसलों से कमाई की. इस बार लौकी की सब्जी के लिये उद्यान विभाग ने इन्हें मल्चिंग पद्धति सिखाई.
बायोटेक लैब के साइंटिस्ट डॉ प्रशांत शर्मा ने मल्चिंग पद्धति से खेती करने में सबसे बड़ा फायदा बताया है. उन्होंने कहा कि फसल के साथ उगने वाली खरपतवार नहीं होती है. खरपतवार की निंदाई का खर्चा बचता है. साथ ही जमीन से फसल को मिलने वाले पोषक तत्वो का विभाजन खरपतवार में ना होकर 100 फीसदी सिर्फ फसल को ही मिलता है. जिससे फसल जल्दी और बेहतर प्रगति करती है.
दूसरा फायदा यह हैं कि मल्चिंग से जमीन में नमी देर तक बनी रहती है. सूर्य की किरणें सीधे कम पड़ने से जमीन जल्दी सूखती नहीं है. जिससे पानी की बचत होती है और ड्रिप के मध्यम से मिलने वाले थोड़े से ही पानी से सिंचित होकर फसल का बेहतर उत्पादन होता है.
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ऐसा ही कुछ अम्बिकापुर के सोहगा गौठान में देखने को मिला. जहां महिला समूह की महिलाएं इस तरीके को सीखकर अपना चुकी हैं और बेहतर परिणाम भी मिल रहा हैं. लौकी की फसल से अब तक 7 से 8 हजार रुपये की आमदनी इस समूह को हो चुकी है. जबकि अन्य फसलों से भी ये लाभ ले चुकी हैं. वहीं सब्जी उगाने की पुरानी विधि की जगह नई मल्चिंग पद्धति से महिलाओं में भी संतोष है. क्योंकि उनकी मेहनत कम और आमदनी ज्यादा हुई है.
क्या होता है मल्चिंग ?
इस पद्धति में जिस मेढ़ पर प्लांटेशन किया जाता है. उसे पॉलीथिन से ढंक दिया जाता है, जिससे वहां पर की जमीन में खरपतवार नहीं उगते और सूर्य की सीधी रोशनी कम पड़ने से जमीन में नमी देर तक बनी रहती है. जिस वजह से फसल के उत्पादन में बड़ा फर्क पड़ता है.