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रायपुर में विश्वकर्मा के हाथों सजते हैं मुकुटधारी गणपति ! - मुकुटधारी गणपति

रायपुर के लोहार चौक निवासी विश्वकर्मा परिवार शहर का ऐसा परिवार है. जिनके द्वारा 115 साल से गणेश जी की मूर्ति को सोने चांदी से जड़े मुकुट से सुसज्जित किया जाता है. इस खास मुकुट में नगीने सहित सोना चांदी के तार भी पिरोए गए हैं.

hundred years old crown of Ganesha
मुकुटधारी गणपति के दर्शन
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Published : Sep 3, 2022, 8:49 PM IST

रायपुर: शहर में अनेक पंडाल और हजारों घरों में गणपति बप्पा विराजित होते हैं. लेकिन शहर में एक ऐसा परिवार भी है, जो पांच पीढ़ी से लगातार बप्पा की सेवा करते आ रहा है. इनके यहां गणेश जी की मूर्ति के मुकुट को 115 साल से (hundred years old crown of Ganesha) अधिक हो गए हैं. रायपुर के लोहार चौक निवासी विश्वकर्मा परिवार शहर का ऐसा परिवार है, जो हर साल इस पर्व को बड़े धूमधाम से मनाते आ रहा है. इनके घर में गणेशोत्सव की शुरुआत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के समय से की गई थी. तब से पीढ़ी दर पीढ़ी यह परिवार अपनी परंपरा को निभाते आ रहा है.

मुकुटधारी गणपति के दर्शन
मुकुट में सोने चांदी के पिरोए गए तार:
संपूर्ण देश के लोगों में एकता की भावना जगाने के लिए गणेशोत्सव की शुरुआत की गई थी. इस उत्सव की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने की थी. परिवार के मुखिया वीरेश विश्वकर्मा बताते हैं कि "उनसे प्रेरणा लेकर विश्वकर्मा परिवार ने 1895 में अपने निवास पर गणेश प्रतिमा स्थापित करना प्रारंभ किया था. तब परिवार के मुखिया ने 10 साल बाद 1905 में बनारस यात्रा पर एक सुनार से यह मुकुट बनवाया था. मुकुट में नगीने सहित सोना चांदी के तार भी पिरोए गए हैं. यही मुकुट हर साल गणेश जी की प्रतिमा पर सजता आ रहा है. इस मुकुट के आकार के आधार पर ही गणेश प्रतिमा बनवाई जाती है.


यह भी पढ़ें: कैसे करें शनिवार को अपने कष्ट दूर


पहले जलाया जाता था मशाल: परिवार के मुखिया वीरेश विश्वकर्मा कहते हैं "सबसे पहले परिवार के मुखिया परदादा स्वर्गीय गणेश लोहार ने घर में गजानन विराजमान किया. उस समय लाइट नहीं हुआ करती थी. इसलिए मशाल जलाया करते थे. इसके बाद उनके दादा सुकरू मिस्त्री घर में गणेश जी को स्थापित करते थे. अंधेरे में भगवान को देखने के लिए भी दूर दूर से लोग आते थे. तब चिमनी की बत्ती लगाकर रौशनी की जाती थी. जब पिता जीवन लाल विश्वकर्मा ने यह बागडोर संभाली, तब थोड़ा डेकोरेट किया जाने लगा गया. उसी समय चलित मूर्तियां भी बैठाई गई, जो बप्पा के भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा."



150 रूपये से 5 हजार तक पहुंची कीमत: वीरेश बताते हैं कि हर साल गणपति की मूर्तियों की कीमत बढ़ती जा रही है. शुरुआत में डेढ़ सौ रुपए में गणपति बनवाते थे. इस बार उन्होंने 5000 में बप्पा की मूर्ति को तैयार कराया है." उन्होंने बताया कि पहले राजशाही अंदाज में गजानंद विराजमान हुआ करते थे, जो छत्तीसगढ़ में देखने को नहीं मिलती थी. उनके घर बैठने वाला गजानन हर साल एक ही मूर्तिकार के द्वारा बनाया जाता है. 115 साल में अब तक वे तीन मूर्तिकार बदल चुके हैं.



पांचवी पीढ़ी को सौंपी जिम्मेदारी: चौथी पीढ़ी के 69 साल के वीरेश विश्वकर्मा बताते हैं कि "उनके दादा स्वर्गीय गणेश राम विश्वकर्मा ने उस जमाने में गणेश प्रतिमा बिठाने की शुरुआत की थी. उन्होंने प्रसिद्ध जापान के लैंप और मिट्टी तेल की चिमनी की रोशनी में गणेशोत्सव मनाते थे. इस परंपरा को उनके दादा सुकरु मिस्त्री और पिता स्वर्गीय जीवन लाल विश्वकर्मा ने आगे बढ़ाया. कई सालों तक मैंने सजावट की. अब यह जिम्मेदारी अपने पुत्र निखिल विश्वकर्मा को सौंपा है. पूजा आरती, विसर्जन में उनके भाई सुरेश विश्वकर्मा के बच्चों समेत पूरे कुटुंब के लगभग 60 सदस्य शामिल होते हैं.

रायपुर: शहर में अनेक पंडाल और हजारों घरों में गणपति बप्पा विराजित होते हैं. लेकिन शहर में एक ऐसा परिवार भी है, जो पांच पीढ़ी से लगातार बप्पा की सेवा करते आ रहा है. इनके यहां गणेश जी की मूर्ति के मुकुट को 115 साल से (hundred years old crown of Ganesha) अधिक हो गए हैं. रायपुर के लोहार चौक निवासी विश्वकर्मा परिवार शहर का ऐसा परिवार है, जो हर साल इस पर्व को बड़े धूमधाम से मनाते आ रहा है. इनके घर में गणेशोत्सव की शुरुआत लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के समय से की गई थी. तब से पीढ़ी दर पीढ़ी यह परिवार अपनी परंपरा को निभाते आ रहा है.

मुकुटधारी गणपति के दर्शन
मुकुट में सोने चांदी के पिरोए गए तार: संपूर्ण देश के लोगों में एकता की भावना जगाने के लिए गणेशोत्सव की शुरुआत की गई थी. इस उत्सव की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने की थी. परिवार के मुखिया वीरेश विश्वकर्मा बताते हैं कि "उनसे प्रेरणा लेकर विश्वकर्मा परिवार ने 1895 में अपने निवास पर गणेश प्रतिमा स्थापित करना प्रारंभ किया था. तब परिवार के मुखिया ने 10 साल बाद 1905 में बनारस यात्रा पर एक सुनार से यह मुकुट बनवाया था. मुकुट में नगीने सहित सोना चांदी के तार भी पिरोए गए हैं. यही मुकुट हर साल गणेश जी की प्रतिमा पर सजता आ रहा है. इस मुकुट के आकार के आधार पर ही गणेश प्रतिमा बनवाई जाती है.


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पहले जलाया जाता था मशाल: परिवार के मुखिया वीरेश विश्वकर्मा कहते हैं "सबसे पहले परिवार के मुखिया परदादा स्वर्गीय गणेश लोहार ने घर में गजानन विराजमान किया. उस समय लाइट नहीं हुआ करती थी. इसलिए मशाल जलाया करते थे. इसके बाद उनके दादा सुकरू मिस्त्री घर में गणेश जी को स्थापित करते थे. अंधेरे में भगवान को देखने के लिए भी दूर दूर से लोग आते थे. तब चिमनी की बत्ती लगाकर रौशनी की जाती थी. जब पिता जीवन लाल विश्वकर्मा ने यह बागडोर संभाली, तब थोड़ा डेकोरेट किया जाने लगा गया. उसी समय चलित मूर्तियां भी बैठाई गई, जो बप्पा के भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा."



150 रूपये से 5 हजार तक पहुंची कीमत: वीरेश बताते हैं कि हर साल गणपति की मूर्तियों की कीमत बढ़ती जा रही है. शुरुआत में डेढ़ सौ रुपए में गणपति बनवाते थे. इस बार उन्होंने 5000 में बप्पा की मूर्ति को तैयार कराया है." उन्होंने बताया कि पहले राजशाही अंदाज में गजानंद विराजमान हुआ करते थे, जो छत्तीसगढ़ में देखने को नहीं मिलती थी. उनके घर बैठने वाला गजानन हर साल एक ही मूर्तिकार के द्वारा बनाया जाता है. 115 साल में अब तक वे तीन मूर्तिकार बदल चुके हैं.



पांचवी पीढ़ी को सौंपी जिम्मेदारी: चौथी पीढ़ी के 69 साल के वीरेश विश्वकर्मा बताते हैं कि "उनके दादा स्वर्गीय गणेश राम विश्वकर्मा ने उस जमाने में गणेश प्रतिमा बिठाने की शुरुआत की थी. उन्होंने प्रसिद्ध जापान के लैंप और मिट्टी तेल की चिमनी की रोशनी में गणेशोत्सव मनाते थे. इस परंपरा को उनके दादा सुकरु मिस्त्री और पिता स्वर्गीय जीवन लाल विश्वकर्मा ने आगे बढ़ाया. कई सालों तक मैंने सजावट की. अब यह जिम्मेदारी अपने पुत्र निखिल विश्वकर्मा को सौंपा है. पूजा आरती, विसर्जन में उनके भाई सुरेश विश्वकर्मा के बच्चों समेत पूरे कुटुंब के लगभग 60 सदस्य शामिल होते हैं.

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