जगदलपुरः बस्तर दशहरा विजयादशमी के दिन जहां एक ओर देश भर में रावण का पुतला दहन किया जाता है वहीं बस्तर में विजयदशमी के दिन दशहरा का प्रमुख रस्म 'भीतर रैनी' निभाया जाता है. आज आधी रात को इस महत्वपूर्ण रस्म की धूमधाम से अदायगी की जाएगी. मान्यताओं के अनुसार आदिकाल में बस्तर लंकापति रावण की बहन शूर्पणखा का नगर हुआ करता था और यही वजह है कि शांति, अहिंसा और सद्भाव (Nonviolence And Harmony) के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण का पुतला दहन (Ravana effigy Burning) नहीं किया जाता.
बल्कि यहां 8 चक्कों का विशालकाय रथ (Giant Chariot) चलाया जाता है. जिसमें बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी का छत्र (Chhatra Of Adorable Goddess Maa Danteshwari) और खड़ा तलवार मौजूद रहता है. विजयदशमी के दिन बस्तर के आदिवासियों के द्वारा रथ चोरी की परंपरा है. लगभग 600 सालों से चली आ रही इस परंपरा को आज भी बस्तर के आदिवासी बखूबी निभाते हैं. हेमंत कश्यप ने बताया कि बस्तर में दशहरा पर्व के दौरान देवी की उपासना की जाती है और दशहरा के पूरे रस्मों में मां दंतेश्वरी देवी की ही पूजा की जाती है.
बंगाल, मैसूर की तरह छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी सभी बस्तरवासी देवी के उपासक (Worshipers Of Bastarwasi Devi) हैं और विजयदशमी के दिन रथ चलने की परंपरा 600 सालों से चला आ रहा है. साथ ही रावण की बहन शूर्पणखा (Shurpanakha) की नगरी होने के चलते यहां रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता. इस दिन बस्तर का सबसे प्रमुख रस्म 'भीतर रैनी' की अदायगी की जाती है. यही वजह है कि बस्तर में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता है.
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हर साल निभाया जाता है 'भीतर रैनी' का रस्म
हेमंत कश्यप ने बताया कि विजयदशमी के दिन मनाए जाने वाले बस्तर दशहरा पर्व पर 'भीतर रैनी' रस्म में 8 चक्कों के विशालकाय रथ को शहर भर में परिक्रमा कराया जाता है. आधी रात को इसे चुरा कर माड़िया जाति के लोग शहर से लगे कुम्हड़ाकोट के जंगल मे ले जाते हैं. इस संबंध में उन्होंने बताया कि राजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ चुरा कर एक जगह छिपा दिया था. जिसके पश्चात राजा विजयादशमी के दूसरे दिन कुम्हड़ाकोट पहुंचे थे और ग्रामीणों को मना कर, उनके साथ नया भोज कर के रथ को शाही अंदाज में वापस जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर (Danteshwari Temple) लाया था.
जिसे बाहर रैनी का रस्म कहा जाता है. आज भी इस रस्म को बस्तर के आदिवासी बखूबी निभाते हैं और इस रस्म की सबसे खास बात यह रहती है कि हजारों की संख्या में आदिवासी इस रस्म के दौरान कुम्हड़ाकोट पहुंचते हैं. रथ को खींच कर 5 किलोमीटर दूरी तय करते हुए दंतेश्वरी मंदिर के सामने लाते हैं. इस दौरान इस रथ परिक्रमा की आखिरी रस्म को देखने हजारों की संख्या में लोगों का जन-सैलाब उमड़ पड़ता है.