दुर्ग/भिलाई: 2021 के लिए पद्म पुरस्कारों का ऐलान किया गया. उस सूची में छत्तीसगढ़ के राधेश्याम बारले का भी नाम है. छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के एक छोटे से गांव मरोदा के रहने राधेश्याम पंथी नृत्य शैली के कलाकार हैं.
छत्तीसगढ़ में पंथी नृत्य को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय राधेश्याम बारले को जाता है. बारले बाबा गुरु घासीदास के संदेशों को लोगों तक पहुंचाते रहे हैं. गुरु घासीदास के संदेशों को प्रसारित करने में उनका अमूल्य योगदान रहा है, जिसे देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार उन्हें पहले ही सम्मानित कर चुकी है. पद्मश्री पुरस्कार के लिए बारले का चयन बाबा गुरु घासीदास के प्रति सम्मान माना जा रहा है. ETV भारत ने राधेश्याम बारले से उनके अब तक के सफर पर चर्चा की. राधेश्याम बारले ने बताया कि गरीबी और भुखमरी से जूझते हुए उन्होंने पंथी नृत्य को जारी रखा. एक समय ऐसा भी आया जब 6 महीने तक मछेरिया और मुस्कइनी भाजी खाकर उन्होंने दिन गुजारे. तंगी ऐसी थी कि धान के भूसे की बनी रोटी खाकर अपना पेट भरा करते थे.
1978 से जारी है सफर
बारले 1978 से पंथी कला से जुड़े हैं. उनका गांव खोला कलाकारों का गांव है. पहले गांव में रामधुनी, रामसत्ता और जस गीत का आयोजन हुआ करता था. पूरे गांव के लोग इसमें शामिल हुआ करते थे. इस दौरान गांव के ही एक कलाकार अर्जुन माहेश्वरी ने उन्हें पंथी के गुण के बारे में बताया, ताकि बाबा गुरु घासीदास के उद्देश्यों को पंथी के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया जा सके. बारले बताते हैं कि उस दौरान उनके पास वाद्य यंत्र नहीं थे. बोरवाय गांव के मधुसूदन डहरे और लालजी डहरे की टीम ने उन्हें वाद्य यंत्र दिया, उससे उन्होंने गाना-बजाना सीखा. 1978 में पहली बार आनंद चौदस गणेश पक्ष में उन्होंने गाना-बजाना शुरू किया, तब से निरंतर जारी है.
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साइकिल से जाते थे पंथी करने
बारले बताते हैं कि 'पहले हम लोग के पास गाड़ी नहीं हुआ करती थी, सभी साथी साइकिल से पंथी नृत्य करने जाया करते थे. करीब 3 साल तक साइकिल से ही हमें लगभग 90 किलोमीटर तक का सफर तय करना होता था. 18 दिसंबर से लेकर 31 दिसंबर तक गांव में जाकर झंडा चढ़ाते थे. इसका हमें 25 से 30 रुपये मिलता था. उसके बाद धीरे-धीरे हम लोग शहर तक जाने लगे. 1990 के आसपास कलेक्टर सेवक राम के समय पंथी के माध्यम से हमारी टीम ने साक्षरता और टीकाकरण में जन जागरूकता लाने का भी काम किया. इसमें हमारे गांव के कलाकार साथियों की हमें बहुत ही मदद मिली.'
गरीबी के दौर से गुजरना पड़ा
परिवार में पांच भाई-बहन होने की वजह से एक समय ऐसा आया कि बारले को काफी गरीबी से गुजरना पड़ा था. वर्ष 1976-77 में भूखमरी का दौर आ गया, जिसमें लगभग 6 माह तक मछेरिया और मुस्कइनी भाजी खाकर दिन गुजारना पड़ा. इसके साथ ही धान के भूसे की बनी रोटी खाकर अपना पेट भरा करते थे. उनकी टीम के परिवार के लोग नौकरी में नहीं थे, एक-दो लोगों के परिवार के ही सदस्य सरकारी नौकरी कर रहे थे. ऐसे में उन्हें उनका पूरा सहयोग मिला, तब जाकर वे लोग आगे बढ़ पाए.
छेरछेरा का धान बेचकर खरीदी ड्रेस
टीम के पास संसाधनों की कमी थी. ड्रेस खरीदने के लिए पैसे भी नहीं थे. सभी साथी संपन्न परिवार से नहीं थे. ऐसे में वे लोग छेरछेरा के समय पंथी नृत्य कर धान मांगते थे. छेरछेरा से जो धान इकट्ठा होता था उसे बेचकर उन लोगों ने ड्रेस खरीदे थे. फिर गांव-गांव जाकर पंथी नृत्य कर बाबा गुरु घासीदास के संदेशों को जन-जन तक पहुंचाया करते थे. धीरे-धीरे समय बदला और उनकी मांग बढ़नी शुरू हो गई. दूर-दूर से लोग उन्हें बुलाने लगे.
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नागर जोत कर की पढ़ाई
'पहली से पांचवीं तक अपने गांव खोला में पढ़ाई किया. छठवीं से दसवीं तक पास के ही गांव बटरेल में शिक्षा प्राप्त की. वहां प्राचार्य टीएस चंद्राकर मेरे ही गांव के थे. गरीबी इतनी थी कि मुझे हल और नागर जोत कर पढ़ाई पूरी करनी होती थी. उस समय टीएस चंद्राकर सर ने मुझे अपने घर काम पर रखा. उनके यहां खेतों पर मैंने हल चलाया. मेहनताना के रूप में मास्टर जी ने मेरे लिए कॉपी किताब खरीदी. उनकी बदौलत ही मैं अपनी शिक्षा पूरी करने में कामयाब हो पाया.'
पंथी के विकास में किया काम
बारले ने पंथी अकादमी के नाम से पंथी कलाकारों को मंच दिया और पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर पंथी के विकास के लिए लगातार प्रयास किया. भारत के पूरे प्रदेश में पंथी को ले जाने का गौरव आकाशवाणी रायपुर के नियमित कलाकार राधेश्याम बारले ने अभी तक देश और प्रदेश के कई महोत्सव में पंथी के जलवे दिखाए हैं. लगभग 1200 मंचीय प्रस्तुति के माध्यम से बाबा के उपदेशों को लोगों तक पहुंचाने में सफल रहे.