बिलासपुरः गणेश उत्सव (Ganesh Utsav) का पर्व पूरे देश में धूमधाम से मनाया जा रहा है. उत्सव (Celebration) को लेकर बिलासपुर भी पूरी तरह धार्मिक (Religious) हो गया है. शहर में गणेश जी की बहुत सारे मंदिर (Temples) हैं. लेकिन रेलवे कंस्ट्रक्शन कॉलोनी के सामने गणेश मंदिर का कोई सानी नहीं है. यह मंदिर दक्षिण भारत शैली (south india style) में बना है.
मंदिर में परंपरा तौर पर पूजा-पाठ आज भी संजोई गई हैं. जैसा दक्षिण भारत के मंदिरों (temples of south india) में देखा जाता है. सबसे खास बात इस मंदिर की यह है कि यहां गर्भ गृह (Womb) में विराजे गणेश की प्रतिमा काले ग्रेनाइट (black granite) पत्थर से निर्मित है. मंदिर में जितने भी देवी-देवताओं (Gods and Goddesses) की प्रतिमा स्थापित (image installed) हैं. वह सभी काले ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित हैं. यही खास बात है कि रेलवे कंस्ट्रक्शन कॉलोनी (Railway Construction Colony) का गणेश मंदिर शहर के बाकी मंदिरों में अपने अपनी अलग तरह की पहचान रखता है. रेलवे परिक्षेत्र में प्राचीन गणेश मंदिर (Ancient Ganesh Temple) यहां पिछले 56 सालों से है.
वैदिक मंत्रों के साथ होता है गणपति गणेश का अभिषेक
यहां गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) कुछ अलग ही तरह से मनाई जाती है. यहां चतुर्थी की शुरुआत से ही भगवान गणेश की पूजा के साथ धार्मिक अनुष्ठान (religious rituals), वैदिक मंत्रों (Vedic Mantras) के साथ गणपति का अभिषेक किया जाता है. यहां भगवान गणेश का भव्य श्रृंगार किया जाता है और यह श्रृंगार रोजाना बदला जाता है. इसके साथ ही पूरी प्रतिमा को अलग-अलग दिन में अलग-अलग तरह के सामानों का छिड़काव के साथ उनका रूप बदल दिया जाता है.
बदल जाता है प्रतिमा का रंग
जैसे भस्मारती, चावल के आटे से अभिषेक और हल्दी के साथ ही चांदी अर्क से अभिषेक किया जाता है. जिससे प्रतिमा का रंग ही बदल जाता है. गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) पर्व के लिए सर्वप्रथम गणेश की प्रतिमा पर तिली के तेल और चंदन से लेप लगाया जाता है. उसके बाद पंचामृत (Panchamrit) और दूध-दही, फलों के रस से स्नान कराया गया जाता है. कलश के अभिषेक से पूजा संपन्न होती है अभिषेक के बाद गणेश को अलंकार वस्त्र (decking fabric) और चांदी के मुकुट के साथ फूलों से सजाया जाता है. 1008 अष्टोत्तर फूलों के साथ अर्चना की जाती है.
पेड़ के नीचे स्थापित थी प्रतिमा
सुमुख गणेश की प्रतिमा को सन 1965 में दक्षिण भारत के तमिलनाडु से लाया गया था. प्रतिमा काले रंग के ग्रेनाइट पत्थर से बनी है. उस समय प्रतिमा को एक पेड़ के नीचे स्थापित किया गया था. बाद में मंदिर बनाने की समिति गठित (committee constituted) हुई और मंदिर का निर्माण (construction of temple) 1971 में किया गया. मंदिर दक्षिण भारत शैली में तैयार किया गया है. इसमें चारों तरफ देवी देवताओं की प्रतिमा स्थापित (image installed) की गई हैं और चारों तरफ गणेश की सामान्य प्रतिमा (normal image) स्थापित की गई हैं.
मंदिर के बाहरी निचले दीवार में दुर्गा, विष्णु और ब्रह्मा की काले रंग की प्रतिमा स्थापित की गई हैं. मंदिर में प्रतिमा स्थापित करने के बाद कांची कामा पीठ के शंकराचार्य (Shankaracharya) ने इसका नामकरण (naming) करके सुमुख गणेश मंदिर दिया था. गणेश मंदिर के वरिष्ठ सदस्य ने बताया जब यहां रेलवे में काम करने के लिए मद्रास से लोग यहां आए थे तो उन्होंने छोटे से गणेश की प्रतिमा मंदिर में स्थापित कर मंदिर की शुरुआत की थी. यह भगवान गणेश की प्रतिमा तंजावुर से लाई गई थी. तब से लेकर आज तक वैदिक विधि-विधान (legislation) से गणपति का अभिषेक कर धूमधाम से गणेश उत्सव (Ganesh festival with pomp) मनाया जाता है.
सहस्त्र अभिषेक सहस्त्रनामा अर्चना के साथ होती है पूजा
यहां पूजा प्रतिदिन सहस्त्र अभिषेक सहस्त्रनामा अर्चना के साथ होती है. प्रतिदिन विशेष तरीके से अभिषेक किया जाता है लेकिन अंतिम दिन विशेष पूजा होती है. इस दिन रुद्राभिषेक होगा. इसमें 11 पंडित एक साथ मिलकर सहस्त्र पाठ (millennium text) और 'जाप' ('jaap') करेंगे. गुप्त तरीके से बात करने के बाद जो जल होता है. उससे गणपति जी का अभिषेक किया जाता है. इस दिन गणेश की मंदिर के चारों ओर परिक्रमा करते हैं. चंदन लेपन (sandalwood paste), अलंकार (Ornament) किया जाएगा. इसके बाद भूसा को आहार मूषक वाहन में शोभायात्रा (procession) निकाली जाएगी. उसके बाद प्रसाद वितरण किया जाएगा. शोभायात्रा में प्रति वर्ष अधिक संख्या में भक्त शामिल होते हैं.
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जरूरतों के हिसाब से किया गया मंदिर का निर्माण
सुमुख गणेश मंदिर के मुख्य पुजारी ने बताया कि दक्षिण भारत में मंदिरों का निर्माण कई अलग-अलग विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए और आने वाले समय में पड़ने वाली जरूरतों को ध्यान में रख कर किया जाता है. मंदिर के मुख्य पुजारी ने बताया कि दक्षिण भारत (South India) में जब मंदिर का निर्माण (construction of temple) किया जाता है तो वह मंदिर एक लेटे हुए इंसान की तरह तैयार की जाती है यानी गेट कमर के नीचे के हिस्से के जैसा होता है और उसमें पुरुष के ऊंचाई की तरह मंदिर के गेट की ऊंचाई रखी जाती है. इसके अलावा सिर जो होता है, शरीर में छोटे आकृति का होता है. इसलिए गर्भ गृह (Womb) को छोटा बनाया जाता है. इसके अलावा मंदिर के बीच के हिस्से को खाली रखा जाता है. यानी इंसान के पेट और सीने के अंदर के बाघ की तरह. इसलिए दक्षिण भारत के मंदिर को सोए हुए इंसान की तरह सोच कर तैयार किया जाता है. दक्षिण भारतीय मंदिर केवल पूजा ही नही श्रद्धालुओं की सुरक्षा (safety of pilgrims) के लिए भी बनाए जाते रहे हैं.
विपत्ति पड़ने पर मंदिर में शरण लेने की सुविधा
मंदिर कमेटी के अध्यक्ष ने बताया कि राजा महाराजा मंदिर का निर्माण बड़े रूप में इसलिए भी कराते थे कि उस समय आज की तरह पक्के के मकान और सुरक्षित स्थान (safe place) नहीं होते थे. ऐसे में जब कभी गांव में बाढ़ आ जाए या फिर दुश्मन देश के राजा राज्य में आक्रमण कर दे तो उस समय राज्य की जनता खुद को बचाने और सुरक्षित करने के लिए मंदिर में शरण (refuge in the temple) ले सकती थी. उन्होंने बताया कि मंदिर में पहले के राजा महाराजा पहली फसल का कुछ हिस्सा मंदिर में रखते थे ताकि जब कभी जरूरत पड़े तो राज्य की जनता महीनों तक उस अनाज का उपयोग कर खुद को जिंदा रख सके. यही कारण है कि मंदिर को हमेशा ऊंचाई में बनाया जाता था और मंदिर की दीवारों को बहुत ऊंची कर उसकी चौड़ाई भी अधिक रखी जाती थी ताकि दुश्मन राज्य के शत्रु दीवार ना तोड़ पाएं.
तड़ित चालक का भी काम करता है मंदिर का 'कोदंड'
दक्षिण भारत में निर्मित मंदिरों के गर्भ गृह के सामने गेट की ऊंचाई बहुत ज्यादा रखी जाती है. इसका मुख्य कारण यह भी है कि जब कभी आकाशीय बिजली गिरे तो मंदिर प्रांगण में मौजूद श्रद्धालुओं पर ना गिरे बल्कि इसे कोदंड यानी गेट के ऊपर वाला हिस्सा खुद खींच ले. आकाशीय बिजली को खींचने के लिए गेट के ऊपर कलश (Kalash) में सूखा धान भर कर रखा जाता है. इसके अलावा अष्टधातु भी रखी जाती है, जो अकाशीय बिजली (lightning) को अपनी ओर आकर्षित कर उसे नष्ट (destroyed) कर देती है और उसकी नेगेटिविटी (negativity) खत्म कर पॉजिटिव एनर्जी (positive energy) देती है. जिसकी वजह से कलश में सूखे धान से सूखा अनाज बनता है कलश में हर साल सूखा धान रख कर उसे बारिश के पहले आकाशीय बिजली गिरने पर अपनी ओर खींचने के लिए तैयार किया जाता है ताकि किसी प्रकार की जनहानि न हो.