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जानिए, उस जगह को जहां प्रकट हुए थे भगवान नरसिंह और खेली गई थी पहली होली - होली 2019

इस बात से हर कोई वाकिफ है कि बुराई पर अच्छाई के प्रतीक प्रह्लाद की भगवान विष्णु के प्रति अखण्ड श्रद्धा व अहंकारी होलिका की याद में होली मनाई जाती है. पौराणिक ग्रन्थों में वर्णित यह दैवीय घटना बिहार से जुड़ी है.

जहां खेली गई थी पहली होली
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Published : Mar 21, 2019, 6:08 AM IST

पूर्णिया : यहां भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया था. तभी से समूचे भारत में होली मनाई जाने लगी. यह जानकर हैरानी होगी कि पहली होली रंग या फूलों की नहीं बल्कि धुरखेल यानी धुरी (राख) से खेली गई थी.

lord narsingh temple
नरसिंह मंदिर

पौराणिक मान्यताओं कि मानें तो यह वही राख थी जिसमें राक्षसी राजा हिरण्यकशिपु की वरदानी बहन दहकते आग की भस्म में तब्दील हो गयी थी. राख मात्र में महज अहंकारी होलिका के अवशेष बचे थे. लिहाजा बुराई पर अच्छाई की इस जीत को तब उस युग के लोगों ने इसी राख को उड़ाकर कीचड़ साथ खेली थी.

lord narsingh
भगवान नरसिंह मंदिर

वह स्थान जहां प्रकट हुए भगवान नरसिंह
दरअसल, पूर्णिया जिला मुख्यालय से तकरीबन 40 किलोमीटर पर स्थित बनमनखी प्रखंड में एनएच 107 से लगा सिंह द्वार पौराणिक ग्रंथों में वर्णित उसी धरहरा गांव के प्रहलाद नगर तक ले जाता है. यहां भक्त की रक्षा के लिए खुद भगवान विष्णु को चतुर्थ अवतार धारण करना पड़ा था. भगवान विष्णु स्तंभ फाड़कर नरसिंह अवतार में प्रकट हुए थे और हिरणकाशीपु का वध किया था. अवशेष आज भी इस ऐतिहासिक भूमि पर कदम रखते मिलते हैं.

जहां प्रकट हुए थे भगवान नरसिंह

आज भी जस का तस खड़ा है वह दिव्य स्तंभ
अपार आस्था का केंद्र बना यह स्तंभ आज भी यहां मौजूद है. जो लोगों के बीच माणिक्य स्तंभ नाम से प्रसिद्ध है. मंदिर के महंत की मानें तो मुगलों ने इसे ढहाने की कोशिश की. यह स्तंभ थोड़ा झुक तो गया, मगर अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ. कभी 400 एकड़ में फैला यह स्तंभ आज घटकर 100 एकड़ में ही सिमट गया है. जहां आज भी अहंकारी राजा हिरण्यकशिपु का नेस्तनाबूद हो चुका ऐतिहासिक किला जर्जर हालत में पड़ा है. वहीं, यहां बचे अवशेषों में एक बड़ा घड़ा, एक रहस्यमयी कुआं व कुछ चकित करने वाले अवशेष मौजूद हैं. वहीं, इस परिसर में एक दिव्य कुंआ भी है. जिससे जुड़े कई किस्से कभी यहां बहने वाली हिरण नामक नदी से जुड़ी है. जिस पर पुरातत्व विभाग अध्ययन कर रहा है.

पूर्णिया : यहां भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया था. तभी से समूचे भारत में होली मनाई जाने लगी. यह जानकर हैरानी होगी कि पहली होली रंग या फूलों की नहीं बल्कि धुरखेल यानी धुरी (राख) से खेली गई थी.

lord narsingh temple
नरसिंह मंदिर

पौराणिक मान्यताओं कि मानें तो यह वही राख थी जिसमें राक्षसी राजा हिरण्यकशिपु की वरदानी बहन दहकते आग की भस्म में तब्दील हो गयी थी. राख मात्र में महज अहंकारी होलिका के अवशेष बचे थे. लिहाजा बुराई पर अच्छाई की इस जीत को तब उस युग के लोगों ने इसी राख को उड़ाकर कीचड़ साथ खेली थी.

lord narsingh
भगवान नरसिंह मंदिर

वह स्थान जहां प्रकट हुए भगवान नरसिंह
दरअसल, पूर्णिया जिला मुख्यालय से तकरीबन 40 किलोमीटर पर स्थित बनमनखी प्रखंड में एनएच 107 से लगा सिंह द्वार पौराणिक ग्रंथों में वर्णित उसी धरहरा गांव के प्रहलाद नगर तक ले जाता है. यहां भक्त की रक्षा के लिए खुद भगवान विष्णु को चतुर्थ अवतार धारण करना पड़ा था. भगवान विष्णु स्तंभ फाड़कर नरसिंह अवतार में प्रकट हुए थे और हिरणकाशीपु का वध किया था. अवशेष आज भी इस ऐतिहासिक भूमि पर कदम रखते मिलते हैं.

जहां प्रकट हुए थे भगवान नरसिंह

आज भी जस का तस खड़ा है वह दिव्य स्तंभ
अपार आस्था का केंद्र बना यह स्तंभ आज भी यहां मौजूद है. जो लोगों के बीच माणिक्य स्तंभ नाम से प्रसिद्ध है. मंदिर के महंत की मानें तो मुगलों ने इसे ढहाने की कोशिश की. यह स्तंभ थोड़ा झुक तो गया, मगर अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ. कभी 400 एकड़ में फैला यह स्तंभ आज घटकर 100 एकड़ में ही सिमट गया है. जहां आज भी अहंकारी राजा हिरण्यकशिपु का नेस्तनाबूद हो चुका ऐतिहासिक किला जर्जर हालत में पड़ा है. वहीं, यहां बचे अवशेषों में एक बड़ा घड़ा, एक रहस्यमयी कुआं व कुछ चकित करने वाले अवशेष मौजूद हैं. वहीं, इस परिसर में एक दिव्य कुंआ भी है. जिससे जुड़े कई किस्से कभी यहां बहने वाली हिरण नामक नदी से जुड़ी है. जिस पर पुरातत्व विभाग अध्ययन कर रहा है.

Intro:आकाश कुमार (पूर्णिया)

इस बात से तो हर कोई वाकिफ है। कि बुराई पर अच्छाई का प्रतीक होली भक्त प्रह्लाद की भगवान विष्णु के प्रति अखण्ड श्रद्धा व अहंकारी होलिका की याद में मनाया जाता है। मगर क्या आपको यह मालूम है कि पौराणिक ग्रन्थों में वर्णित यह दैवीय घटना कहीं और नहीं बल्कि देवों की भूमि बिहार से जुड़ी है। क्या आप जानते हैं कि वह पूर्णिया ही है। जहां भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया था। और तभी से समूचे भारत में होली मनाई जाने लगी।

इस होली ईटीवी भारत कराएगा आपको इस दैवीय भूमि के एक्सलूसिव दर्शन





Body:जानिए कैसे खेली गई थी पहली होली....


दरअसल भले ही जमाने के साथ होली ने खुद को मॉड कर रंग भरी पिचकारी, अबीर-गुलाल व फूलों में समेट लिया हो। मगर आपको यह जानकर हैरानी होगी। कि पहली होली रंग या फूलों की नहीं बल्कि धुरखेल यानी धुरी (राख) से खेली गई थी। पौराणिक मान्यताओं कि मानें तो यह वही राख थी। जिसमें राक्षसी राजा हिरण्यकशिपु की वरदानी बहन दहकते आग में भस्म में तब्दील हो गयी थी। राख मात्र में महज अहंकारी होलिका के अवशेष बचे थें। लिहाजा बुराई पर अच्छाई की इस जीत को तब उस युग के लोगों ने इसी राख को उड़ाकर कीचड़ साथ खेली थी।


वह स्थान जहां प्रकट हुए खुद भगवान नृसिंह...


दरअसल जिला मुख्यालय से तकरीबन 40 किलोमीटर के फासले पर स्थित बनमनखी प्रखंड के एनएच 107 पर जैसे ही हम सिकलीगढ़ की ओर बढ़ते हैं। एनएच से लगा सिंह द्वार पौराणिक ग्रंथों में वर्णित उसी धरहरा गांव के प्रहलाद नगर तक ले जाता है। जहां भक्त की रक्षा के लिए खुद भगवान विष्णु को चतुर्थ अवतार धारण करना पड़ा था। यहां भगवान विष्णु स्तंभ फाड़कर नृसिंह अवतार में प्रकट हुए थें। और हिरणकाशीपु का वध किया था। जिसके अवशेष आज भी इस ऐतिहासिक भूमि पर कदम रखते मिलते हैं।


आज भी जस की तस खड़ी है वह दिव्य स्तंभ....


लोगों के लिए अपार आस्था का केंद्र बना यह स्तंभ आज भी यहां मौजूद है। जो लोगों के बीच माणिक्य स्तंभ नाम से प्रसिद्ध है। मंदिर के महंत की मानें तो मुगलों ने इसे ढाहने की लाखों कोशिशें की। यह स्तंभ थोड़ा झुक तो गया। मगर अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ। कभी 400 एकड़ में फैला यह स्तंभ आज घटकर 100 एकड़ में ही सिमट गया है। जहां आज भी अहंकारी राजा हिरण्यकशिपु का नेस्तनाबूद हो चुका ऐतिहासिक किला जर्जर हो चुका है। वहीं यहां बचे अवशेषों में एक बड़ा घड़ा, एक रहस्यमयी कुआं व कुछ चकित करने वाले अवशेष मौजूद हैं। वहीं इस परिसर में एक दिव्य कुंआ भी है। जिससे जुड़े कई किस्से कभी यहां बहने वाली हिरण नामक नदी से जुड़ी है। जिस पर पुरातत्व विभाग अध्ययन कर रहा है।



कायम है राख की होली की परंपरा....

आज जहां समूचे भारत में अबीर और गुलालों की होली प्रचलन में है। लोग एक दूसरे को पानी में घुले रंग और अबीर-गुलाल लगाकर एक दूसरे को होली की मुबारकबाद देते है। वहीं इन सब से हटकर यहां के लोग आज भी वर्षों पुरानी परंपरा को कायम रखते हुए धुरखेल यानी होलिकादहन की लकड़ियों की राख और कीचड़ से होली खेलते हैं।


होलिकादहन व होली को लगता है मुरादों का मेला....


पौराणिक ग्रंथों से नाता रखने वाले इस पवित्र स्थल के मान्यताओं की मानें तो होलिकादहन के दिन होलिकादहन देख परिसर में स्थापित भगवान नृसिंह से मांगी गई मुराद आज तक खाली नहीं गयी। वहीं ऐसी मान्यता है होली के दिन इस मंदिर में धूड़खेल होली खेलने वालों की मुरादों की आवाज सीधे भगवान नृसिंह के कर्णो तक पहुंचती है। यही वजह है कि इन दोनों दिन लाखों लोगों की भीड़ यहां दर्श व दर्शन मात्र के लिए जुटती है। भगवान नृसिंह के इस मनोहारी मंदिर में भगवान ब्रह्मा, विष्णु व शंकर समेत 40 देवताओं की मूर्तियां स्थापित है।











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