पूर्णिया : यहां भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु का वध किया था. तभी से समूचे भारत में होली मनाई जाने लगी. यह जानकर हैरानी होगी कि पहली होली रंग या फूलों की नहीं बल्कि धुरखेल यानी धुरी (राख) से खेली गई थी.
पौराणिक मान्यताओं कि मानें तो यह वही राख थी जिसमें राक्षसी राजा हिरण्यकशिपु की वरदानी बहन दहकते आग की भस्म में तब्दील हो गयी थी. राख मात्र में महज अहंकारी होलिका के अवशेष बचे थे. लिहाजा बुराई पर अच्छाई की इस जीत को तब उस युग के लोगों ने इसी राख को उड़ाकर कीचड़ साथ खेली थी.
वह स्थान जहां प्रकट हुए भगवान नरसिंह
दरअसल, पूर्णिया जिला मुख्यालय से तकरीबन 40 किलोमीटर पर स्थित बनमनखी प्रखंड में एनएच 107 से लगा सिंह द्वार पौराणिक ग्रंथों में वर्णित उसी धरहरा गांव के प्रहलाद नगर तक ले जाता है. यहां भक्त की रक्षा के लिए खुद भगवान विष्णु को चतुर्थ अवतार धारण करना पड़ा था. भगवान विष्णु स्तंभ फाड़कर नरसिंह अवतार में प्रकट हुए थे और हिरणकाशीपु का वध किया था. अवशेष आज भी इस ऐतिहासिक भूमि पर कदम रखते मिलते हैं.
आज भी जस का तस खड़ा है वह दिव्य स्तंभ
अपार आस्था का केंद्र बना यह स्तंभ आज भी यहां मौजूद है. जो लोगों के बीच माणिक्य स्तंभ नाम से प्रसिद्ध है. मंदिर के महंत की मानें तो मुगलों ने इसे ढहाने की कोशिश की. यह स्तंभ थोड़ा झुक तो गया, मगर अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ. कभी 400 एकड़ में फैला यह स्तंभ आज घटकर 100 एकड़ में ही सिमट गया है. जहां आज भी अहंकारी राजा हिरण्यकशिपु का नेस्तनाबूद हो चुका ऐतिहासिक किला जर्जर हालत में पड़ा है. वहीं, यहां बचे अवशेषों में एक बड़ा घड़ा, एक रहस्यमयी कुआं व कुछ चकित करने वाले अवशेष मौजूद हैं. वहीं, इस परिसर में एक दिव्य कुंआ भी है. जिससे जुड़े कई किस्से कभी यहां बहने वाली हिरण नामक नदी से जुड़ी है. जिस पर पुरातत्व विभाग अध्ययन कर रहा है.