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जानें क्यों बदनाम है 'कोसी' : जब लेती हैं रौद्र रूप, तब बिहार में मचती है तबाही - कोसी बांध

कोसी बिहार का श्राप कहलाती है. बिहार को क्षत-विक्षत कर जाने वाली कोसी किस तरह राज्य में उत्पात मचाती है आज इसका विस्तार से जिक्र करेंगे.

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Published : Jul 5, 2020, 6:34 AM IST

पटना: बिहार, वर्षों से बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा झेलता आ रहा है. चाहे वो गंगा हो या कोसी सभी ने यहां तबाही मचाई है. कोसी को बिहार का श्राप या शोक कहा जाता है. आखिरी बार कोसी के कारण आई भयावह तबाही की तस्वीरें अब तक लोगों के जहन से ओझल नहीं हुई हैं.

देखिए ये रिपोर्ट

ऐतिहासिक और भौगोलिक परिदृश्य पर नजर

आज हम इसपर नजर डालेंगे कि आखिर क्यों और कब सप्तनदी कहलाने वाली कोसी बिहार का अभिशाप बन गई. दरअसल, कोसी या कोशी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है और बिहार में भीम नगर के रास्ते से भारत में दाखिल होती है. इसकी प्रकृति को समझने के लिए नदी के भौगोलिक और ऐतिहासिक परिदृश्य पर नजर डालना जरूरी है.

250 वर्षों में 120 किमी का विस्तार

कोसी पिछले 250 वर्षों में 120 किमी का विस्तार कर चुकी है. हिमालय की ऊंची पहाड़ियों से बालू, कंकड़-पत्थर जैसे तरह-तरह के अवसाद अपने साथ लाती हुई ये नदी निरंतर अपने क्षेत्र फैलाती जा रही है. उत्तरी बिहार के मैदानी इलाकों को तरती ये नदी पूरा क्षेत्र उपजाऊ बनाती है. नेपाल और भारत दोनों ही देश इस नदी पर बांध बना चुके हैं.

दिशा बदलने में माहिर कोसी

कोसी नदी दिशा बदलने में माहिर है. कोसी के मार्ग बदलने से कई नए इलाके प्रत्येक वर्ष इसकी चपेट में आ जाते हैं. बिहार के पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा, सहरसा, कटिहार जिलों में कोसी की ढेर सारी शाखाएं हैं. कोसी बिहार में महानंदा और गंगा में मिलती है. इन बड़ी नदियों में मिलने से विभिन्न क्षेत्रों में पानी का दबाव और भी बढ़ जाता है. बिहार और नेपाल में कोसी बेल्ट शब्द काफी लोकिप्रय है. इसका अर्थ उन इलाकों से हैं, जहां कोसी का प्रवेश है.

मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना

यह नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी कहलाती है. चतरा के पास कोसी नदी मैदान में उतरती है और 58 किलोमीटर बाद भीमनगर पास बिहार में प्रवेश करती है. वहां से 260 किलोमीटर की यात्रा कर यह कुरसेला में गंगा में आकर समाहित हो जाती है. इसकी कुल यात्रा 729 किलोमीटर है. पूर्वी मिथिला में यह नदी सबसे 180 किलोमीटर लंबा और 150 किलोमीटर चौड़े कछार का निर्माण करती है जो दुनिया का सबसे बड़ा कछार त्रिशंकु है. कोसी बैराज में 10 क्यूबिक यार्ड प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष रेत का जमाव होता है जो दुनिया में सर्वाधिक है.

घूमती-फिरती कोसी

कोसी को आप घूमती-फिरती नदी भी कह सकते हैं. पिछले 200 सालों में इसने अपने बहाव मार्ग में 120 किलोमीटर का परिवर्तन किया है. नदी के इस तरह पूरब से पश्चिम खिसकने के कारण कोई आठ हजार वर्ग किलोमीटर जमीन बालू के बोरे में बदल गई है. नगरों और गांवों के उजड़ने-बसने का अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है.

1954 में बना तटबंध

इस नदी पर 1954 में बांध बनाकर एक स्थान से बहाने का प्रयास किया गया, लेकिन इसने कोसी ने बधना स्वीकार नहीं किया और अब तक सात बार बांध तोड़ कर बह चुकी है. खगड़िया, मधेपुरा, पूर्णिया, सुपौल आदि जिलों में तबाही मचा चुकी है. भीमनगर के रास्ते भारत में प्रवेश करके कोसी 260 किलो मीटर की यात्रा कर कुर्सेला के पास गंगा में मिल जाती है.

विस्थापन का अंतहीन सिलसिला जारी

कोसी के कहर से साल 2008 में डेढ़ हजार गांव प्रभावित तबाह हो गए. 500 से ज्यादा लोगों की जानें गई थीं. जबकि 25 लाख लोगों के विस्थापित होने का अनुमान है. मरने और विस्थापित होने वाले आंकड़े निश्चित रूप से इससे कहीं ज्यादा होंगे. कोसी साल-दर-साल डूब और विस्थापन का दायरा बढ़ाती जा रही है.

जल वैज्ञानिक दे रहे थे चेतावनी

यह विपदा असंभावित नहीं थी. अरसे से जल वैज्ञानिक यह चेतावनी दे रहे थे कि कोसी बैराज की कमजोरी के चलते न केवल उत्तर बिहार बल्कि बंगाल और बांग्लादेश तक संकट में आ सकते हैं. कुछ पर्यावरणविदों ने बैराज से नुकसान की भी संभावना जताई थी.

बिहार आज जिस तरह से बेहाल हुआ है उसकी चेतावनी पर्यावरणविद बहुत पहले से दे रहे थे. मार्च 1966 में अमेरिकन सोसायटी आफ सिविल इंजीनियरिंग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कोसी नदी के तट पर 1938 से 1957 के बीच में प्रतिवर्ष लगभग 10 करोड़ क्यूबिक मीटर तलछट जमा हो रहा था. आशंकाएं जताई गई थीं कि बैराज निर्माण के बाद भी तलछट जमा होने के कारण कोसी का किनारा ऊपर उठ रहा है.

1968 में आई विनाशकारी बाढ़

कोसी बैराज निर्माण के कुछ वर्षों बाद 1968 में बाढ़ आई. उस साल जल प्रवाह का नया रिकार्ड बना था 25 हजार क्यमेक्स. उसके बाद जल प्रवाह 9 से 16 हजार क्यूमेक्स पानी तो हर साल ही बना रहता है. एक अरसे से जल वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे थे कि कोसी पूर्व की ओर कभी भी खिसक सकती है. उनका अनुमान हकीकत बन गया.

चेतावनी को टालते रहे पर्यावरणविद

वैज्ञानिकों की चेतावनी को कुछ पर्यावरणविद यह कहकर टाल रहे थे कि कोसी को अपनी मूलधारा की ओर लौटने देना चाहिए. बाढ़ को रोकने का एक ही उपाय था कि नेपाल में जहां कोसी परियोजना है वहीं पानी भंडारण के लिए ऊंचे बांध बनाए जाएं, लेकिन पर्यावरणविदों का एक वर्ग लगातार यह तर्क देता रहा कि लोगों को बाढ़ का सम्मान करना चाहिए.

वरदान भी है कोसी

हिमालय की गोद से निकल नेपाल के रास्ते बिहार में बहने वाले कोसी नदी अभिशाप ही नहीं मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी है. इस प्रकार इसे कोसी के लिए वरदान भी कहा जा सकता है. ये नदी जहां से गुजरती है वहां की जमीन को बेदह उपजाऊ बना देती है.

पटना: बिहार, वर्षों से बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा झेलता आ रहा है. चाहे वो गंगा हो या कोसी सभी ने यहां तबाही मचाई है. कोसी को बिहार का श्राप या शोक कहा जाता है. आखिरी बार कोसी के कारण आई भयावह तबाही की तस्वीरें अब तक लोगों के जहन से ओझल नहीं हुई हैं.

देखिए ये रिपोर्ट

ऐतिहासिक और भौगोलिक परिदृश्य पर नजर

आज हम इसपर नजर डालेंगे कि आखिर क्यों और कब सप्तनदी कहलाने वाली कोसी बिहार का अभिशाप बन गई. दरअसल, कोसी या कोशी नदी नेपाल में हिमालय से निकलती है और बिहार में भीम नगर के रास्ते से भारत में दाखिल होती है. इसकी प्रकृति को समझने के लिए नदी के भौगोलिक और ऐतिहासिक परिदृश्य पर नजर डालना जरूरी है.

250 वर्षों में 120 किमी का विस्तार

कोसी पिछले 250 वर्षों में 120 किमी का विस्तार कर चुकी है. हिमालय की ऊंची पहाड़ियों से बालू, कंकड़-पत्थर जैसे तरह-तरह के अवसाद अपने साथ लाती हुई ये नदी निरंतर अपने क्षेत्र फैलाती जा रही है. उत्तरी बिहार के मैदानी इलाकों को तरती ये नदी पूरा क्षेत्र उपजाऊ बनाती है. नेपाल और भारत दोनों ही देश इस नदी पर बांध बना चुके हैं.

दिशा बदलने में माहिर कोसी

कोसी नदी दिशा बदलने में माहिर है. कोसी के मार्ग बदलने से कई नए इलाके प्रत्येक वर्ष इसकी चपेट में आ जाते हैं. बिहार के पूर्णिया, अररिया, मधेपुरा, सहरसा, कटिहार जिलों में कोसी की ढेर सारी शाखाएं हैं. कोसी बिहार में महानंदा और गंगा में मिलती है. इन बड़ी नदियों में मिलने से विभिन्न क्षेत्रों में पानी का दबाव और भी बढ़ जाता है. बिहार और नेपाल में कोसी बेल्ट शब्द काफी लोकिप्रय है. इसका अर्थ उन इलाकों से हैं, जहां कोसी का प्रवेश है.

मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना

यह नदी उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी कहलाती है. चतरा के पास कोसी नदी मैदान में उतरती है और 58 किलोमीटर बाद भीमनगर पास बिहार में प्रवेश करती है. वहां से 260 किलोमीटर की यात्रा कर यह कुरसेला में गंगा में आकर समाहित हो जाती है. इसकी कुल यात्रा 729 किलोमीटर है. पूर्वी मिथिला में यह नदी सबसे 180 किलोमीटर लंबा और 150 किलोमीटर चौड़े कछार का निर्माण करती है जो दुनिया का सबसे बड़ा कछार त्रिशंकु है. कोसी बैराज में 10 क्यूबिक यार्ड प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष रेत का जमाव होता है जो दुनिया में सर्वाधिक है.

घूमती-फिरती कोसी

कोसी को आप घूमती-फिरती नदी भी कह सकते हैं. पिछले 200 सालों में इसने अपने बहाव मार्ग में 120 किलोमीटर का परिवर्तन किया है. नदी के इस तरह पूरब से पश्चिम खिसकने के कारण कोई आठ हजार वर्ग किलोमीटर जमीन बालू के बोरे में बदल गई है. नगरों और गांवों के उजड़ने-बसने का अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है.

1954 में बना तटबंध

इस नदी पर 1954 में बांध बनाकर एक स्थान से बहाने का प्रयास किया गया, लेकिन इसने कोसी ने बधना स्वीकार नहीं किया और अब तक सात बार बांध तोड़ कर बह चुकी है. खगड़िया, मधेपुरा, पूर्णिया, सुपौल आदि जिलों में तबाही मचा चुकी है. भीमनगर के रास्ते भारत में प्रवेश करके कोसी 260 किलो मीटर की यात्रा कर कुर्सेला के पास गंगा में मिल जाती है.

विस्थापन का अंतहीन सिलसिला जारी

कोसी के कहर से साल 2008 में डेढ़ हजार गांव प्रभावित तबाह हो गए. 500 से ज्यादा लोगों की जानें गई थीं. जबकि 25 लाख लोगों के विस्थापित होने का अनुमान है. मरने और विस्थापित होने वाले आंकड़े निश्चित रूप से इससे कहीं ज्यादा होंगे. कोसी साल-दर-साल डूब और विस्थापन का दायरा बढ़ाती जा रही है.

जल वैज्ञानिक दे रहे थे चेतावनी

यह विपदा असंभावित नहीं थी. अरसे से जल वैज्ञानिक यह चेतावनी दे रहे थे कि कोसी बैराज की कमजोरी के चलते न केवल उत्तर बिहार बल्कि बंगाल और बांग्लादेश तक संकट में आ सकते हैं. कुछ पर्यावरणविदों ने बैराज से नुकसान की भी संभावना जताई थी.

बिहार आज जिस तरह से बेहाल हुआ है उसकी चेतावनी पर्यावरणविद बहुत पहले से दे रहे थे. मार्च 1966 में अमेरिकन सोसायटी आफ सिविल इंजीनियरिंग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कोसी नदी के तट पर 1938 से 1957 के बीच में प्रतिवर्ष लगभग 10 करोड़ क्यूबिक मीटर तलछट जमा हो रहा था. आशंकाएं जताई गई थीं कि बैराज निर्माण के बाद भी तलछट जमा होने के कारण कोसी का किनारा ऊपर उठ रहा है.

1968 में आई विनाशकारी बाढ़

कोसी बैराज निर्माण के कुछ वर्षों बाद 1968 में बाढ़ आई. उस साल जल प्रवाह का नया रिकार्ड बना था 25 हजार क्यमेक्स. उसके बाद जल प्रवाह 9 से 16 हजार क्यूमेक्स पानी तो हर साल ही बना रहता है. एक अरसे से जल वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे थे कि कोसी पूर्व की ओर कभी भी खिसक सकती है. उनका अनुमान हकीकत बन गया.

चेतावनी को टालते रहे पर्यावरणविद

वैज्ञानिकों की चेतावनी को कुछ पर्यावरणविद यह कहकर टाल रहे थे कि कोसी को अपनी मूलधारा की ओर लौटने देना चाहिए. बाढ़ को रोकने का एक ही उपाय था कि नेपाल में जहां कोसी परियोजना है वहीं पानी भंडारण के लिए ऊंचे बांध बनाए जाएं, लेकिन पर्यावरणविदों का एक वर्ग लगातार यह तर्क देता रहा कि लोगों को बाढ़ का सम्मान करना चाहिए.

वरदान भी है कोसी

हिमालय की गोद से निकल नेपाल के रास्ते बिहार में बहने वाले कोसी नदी अभिशाप ही नहीं मिथिला क्षेत्र की संस्कृति का पालना भी है. इस प्रकार इसे कोसी के लिए वरदान भी कहा जा सकता है. ये नदी जहां से गुजरती है वहां की जमीन को बेदह उपजाऊ बना देती है.

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