पटना: रहीम दास ने जीवन के सामाजिक सच की बानगी को जब लिखा था तो कहा था, 'रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून, पानी गए न उबरे मोती मानस चून'. लेकिन बिहार का कोसी एक ऐसा क्षेत्र है जहां रहीम दास की ये पंक्तियां बदल जाती हैं. यहां पानी जाने से ही जीवन की शुरुआत होती है और जिंदगी अपने कदमों पर चल भी पाती है. प्रदेश में कोसी, दर्द की ऐसी त्रासदी है जिसमें पूरा जीवन ही जद्दोजहद से आगे नहीं जा पा रहा है. कोसी के हर आंगन में दर्द है. दर्द कटाव का, कसक का, दर्द अपनों के पलायन का और पीड़ा पूरे जीवन की. कोसी के लोगों के जीवन का सबसे बड़ा सच यही है.
बिहार विधानसभा 2020 के लिए चुनावी वादों और दावों का दौर कोसी में थम गया. बदली सियासत और समय में कोसी के लोग भी अपने अच्छे दिन के आने का इंतजार कर रहे हैं. लेकिन कोसी में जीवन के दर्द की जो कसक हर आंगन समेटे हुए है, उसके लिए कोई राह निकलती नहीं दिख रही. 18 अगस्त 2008 को कोसी ने अपनी हर सीमा को लांघ दी थी. कुसहा बांध टूटने से कोसी के क्षेत्र में जो तबाही मची, उसका मंजर आज भी वहां के लोगों की आंखों में देखा जा सकता है.
आज भी अपनों की तलाश रहे कोसीवासी
दर्द को भी अपनी आंखों की उम्मीद बनाए लोग जिंदगी में उस पल का इंतजार कर रहे हैं. जिसकी कोई एक बानगी 18 अगस्त 2008 के पहले उनकी जिंदगी में थी. कोसी के कहर में सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, अररिया और पूर्णिया के 35 प्रखंडों के 412 पंचायतों 993 गावों की कुल 45 लाख से ज्यादा की आबादी प्रभावित हुई. 3 लाख 50 हजार मकान टूटे, 88 हजार फूस के बने घरों का नामोनिशाना मिट गया. 7.50 हजार पशुओं की मौत हुई. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 270 लोगों की मौत हुई थी. लेकिन आज भी हजारों लोग अपनों की तलाश कर रहे हैं.
इन सब के अलावे 4.15 लाख हेक्टेयर खेत बंजर हो गए. जिसपर 6 से 13 फिट तक बालू भर गया है. सियासत ने इस त्रासदी पर आंसू खूब बहाए. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हवा में उड़कर जमीन का हाल जाना था. कोसी को देश की त्रासदी कहा था. हर सहायता का वादा किया था. लेकिन सबकुछ किताबी बन कर रह गया.
कोसी क्यों बरपाती है कहर?
हिमालय की नदी कोसी 250 वर्षों में 120 किमी का रास्ता बदल चुकी है. इसका कुल प्रवार क्षेत्र 729 किलोमीटर है. 1954 में इस नदी पर तटबंध बनाने का प्रयास किया गया. लेकिन कोसी ने खुद को बांध के अधिन आना स्वीकार नहीं किया. कोसी 1954 से अब तक सात बार बांध तोड़ कर बह चुकी है. मार्च 1966 में अमेरिकन सोसायटी आफ सिविल इंजीनियरिंग की प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कोसी नदी के तट पर 1938 से 1957 के बीच में प्रतिवर्ष लगभग 10 करोड़ क्यूबिक मीटर तलछट जमा हो रहा है. बैराज निर्माण के बाद भी तलछट जमा होने के कारण कोसी का किनारा ऊपर उठ रहा है. 1968 में आई बाढ़ जिसमें कोसी का जल प्रवाह 25 हजार क्यमेक्स था ने नया रिकार्ड बना दिया.
राहत के लिए सिर्फ वादा!
19 मई 2010 को बिहार के मुख्यमंत्री ने कोसी पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण योजना का उद्घाटन किया. तय किया गया कि कोसी को फिर से बसा देंगे. कुदरत ने जिस दर्द को दिया है, उसकी हर भरपायी तो संभव नहीं, लेकिन जिंदगी जीने के लायक हो, इतना बनाकर ही रहेंगे. पुनर्निर्माण के नाम पर 25,958 आवास का लक्ष्य हर साल के लिए तय किया गया. विडंबना कहिये 10 वर्ष बीत जाने के बाद भी कोसी की यह उम्मीद लहरों के अधर में ही गोते लगा रही है.
जिंदगी के सफर में साल बदल रहा है. लेकिन कोसी के लोगों के हालात को बदलने का काम आज तक नहीं हुआ है. कोसी में अगर कुछ बदला है, तो आने वाले हर नेता का वादा और चले जाने के बाद आने के दर्द के साथ उसी सच के साथ का दूसरे वादे के आने तक का इंतजार. जिसे यहां के लोग सालों से अपनी जिंदगी की दास्तान की हकीकत बनाए बिता रहे हैं.
वादे पर इंतजार की एक और कहानी...
2008 के इस कहर से जूझ रही जिंदगी को बदलने का दावा 2009 के लोकसभा चुनाव में किया गया. बिहार को उम्मीद थी कि लालू यादव केन्द्र की सत्ता में है, विकास के लिए पैसा काफी तेजी से आएगा. लेकिन कोसी के हाथ केवल चुनावी वादा आया. विधानसभा चुनाव 2010 में यह बताया गया कि बहुत कुछ बदलना है, कोसी का गुस्सा न झेलना पड़े इसके लिए नीतीश कुमार ने 19 मई 2010 को कोसी पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण योजना को शुरू किया. 2014 में नरेंद्र मोदी ने जब प्रचार की कमान संभाली तो उस दौरान उन्होंने कह भी दिया कि अच्छे दिन आने वाले हैं.
2015 में नीतीश कुमार के अपने दावे में भी कोसी के लिए खुशी बांटने वाली बातें की और लालू यादव के साथ जाति के दांव पर जीत गए. 2019 में दो इंजन सरकार भी कोसी के जीवन को रफ्तार देने का वादा करके गयी और वादे पर इंतजार की एक और कहानी लिख दी गयी. ऐसा नहीं है कि कोसी ने इनके वादों पर भरोसा नहीं किया, बस कोसी को लेकर किसी ने इरादा ठीक नहीं रखा. 2020 के हुकूमत की जंग में सत्ता पाने की हर विसात बिछाने में जुटी है. कोसी से एक बार फिर अपने लिए समर्थन मांगा जा रहा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बदली राजनीतिक फिजां में 2020 के चुनाव प्रचार के अंतिम दिन कह दिया कि इसबार और जिता दीजिए क्योंकि इसके बाद चुनाव में नहीं आएंगे. अब कोसी इस सियासत में खुद को खोज रहा है कि मेरे आंगन में त्रासदी का जो दर्द है. वह कब तक खुशहाली की राह पाएगा.
'अंत भला तो सब भला'
2020 की फतह को लेकर नीतीश ने अपने हर पत्ते खोल दिए हैं. 15 सालों के विकास का हिसाब किताब विपक्ष नीतीश से मांग रहा है, तो नीतीश ने बिहार के विकास का सात निश्चय जनता के सामने रख दिया. सब कुछ उस बिहार के लिए है जो बदल रहा है, विकास कर रहा है लेकिन उस कोसी का क्या जो अपने दर्द की अंतहीन कहानी लिए आज भी एक अदद तारणहार की राह देख रही है.
नीतीश के 15 सालों के शासन में कोसी विगत 12 सालों से अपने दर्द की दवा खोज रहा है. एक साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में नीतीश और नरेन्द्र मोदी ने बिहार के किशनगंज जिले को छोड़ दिया जाय, तो बिहार की सभी सीटों पर जीत दर्ज की है. कोसी के सभी जिलों पर एनडीए का कब्जा है. लेकिन कोसी आज भी विकास की निगेहबानी की राह देख रही है. नीतीश कुमार पर हरबार के भरोसे के बाद अब नीतीश के इस बात पर भरोसा करना है कि ये उनका अंतिम चुनाव है. लेकिन कोसी के दर्द का अंत कब होगा. इसकी कोई समय सीमा किसी ने नहीं दिया है.
लालू यादव जब केन्द्र में थे तो काम हुआ नहीं, नीतीश ने खुद का कहा किया नहीं, अब जो कहा जा रहा है उससे कोसी की किस्मत कितना बदलेगी कहना मुश्किल है. कोसी के लोगों ने अपने आंगने में दर्द की त्रासदी को अपने मुकद्दर की हकीकत बना लिया है. जहां हर साल बाढ़ में डूब जाना, दो जून की रोटी के लिए किसी और शहर में किसी और के घर में जीवन बिताने को विवश है. कोसी इसका अंत चाहता है. जबतक कोसी के इस दर्द का अंत नहीं होता, तब तक कोसी का भला नहीं होगा. हां, सियासतदान किसी भी आगाज से विकास का दावा और किसी जीत से अपने जाने का वादा करके किसी आगाज और अंजाम के अंत से सियासी रोटी जरूर सेंक लेंगे. ये सवाल ही कोसी के कटाव पीड़ितों की कसक है. इसमें अपनों को जिंदा रखने का दर्द ही पलायान की सबसे बड़ी पीड़ा है.