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बिहार में उफान पर 'दलित पॉलिटिक्स', पासवान से लेकर मांझी तक सब हैं बेचैन!

बिहार में दलित वोट बैंक जीत हार तय करता है. इसकी वजह दलित वोटरों की संख्या है. वैसे तो दलित वोटरों की संख्या 16 प्रतिशत है लेकिन पूर्व सीएम जीतन राम मांझी इसे 22 फीसदी बताते हैं. पढ़ें पूरी रिपोर्ट.

बिहार की ताजा खबर
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Published : Aug 25, 2020, 11:08 PM IST

पटना: बिहार विधानसभा चुनाव में दलितों पर खूब सियासत होती रही है. रामविलास पासवान लंबे समय से दलितों के नाम पर ही राजनीति करते रहे हैं. लेकिन बिहार की सियासत में अब केवल रामविलास पासवान ही दलितों के एकमात्र नेता नहीं रह गए हैं. पूर्व सीएम जीतन राम मांझी के साथ बीजेपी और जेडीयू ने भी कई ऐसे चेहरे सामने रखे हैं.

बिहार में 16 फीसदी दलित मतदाता
बिहार में 243 विधानसभा सीटों में 40 सीट दलित उम्मीदवार के लिए रिजर्व हैं. वहीं, दलित वोटरों की संख्या 16 फीसदी है और कई सीटों पर दलित वोटर जीत हार का फैसला तय करते हैं, इसलिए सभी दल दलित वोटरों को रिझाने की हर संभव कोशिश हर चुनाव में करते रहे हैं.

देखें ये खास रिपोर्ट

बिहार में दलित नहीं बल्कि महादलित
बिहार में रामविलास पासवान के दलित वोट पर एकाधिकार को नीतीश कुमार ने दलित को महादलित में बांटकर खत्म किया था. दरअसल, बिहार की दलित समुदाय में 22 जातियां आती हैं. 2005 में नीतीश कुमार सत्ता में आए तो उन्होंने दलित समुदाय को साधने के लिए दलित कैटेगरी की 22 जातियों में से 21 को महादलित घोषित कर अपनी तरफ से कोशिशें शुरू, जिसमें वो कामयाब भी रहे. हालांकि, 2018 में पासवान जाती को भी शामिल कर सभी को महादलित बना दिया. इस तरह से बिहार में अब कोई दलित समुदाय नहीं रह गया है.

राम विलास पासवान (फाइल फोटो)
राम विलास पासवान (फाइल फोटो)

सबसे बड़े दलित नेता-मांझी
जीतनराम मांझी ने करीब आठ महीने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अपना सारा ध्यान इस बात पर रखा कि वह कैसे महादलित का चेहरा बन सके. नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना कर एक बड़ा दलित गेम खेला था. लेकिन, जीतन राम मांझी बागी हो गए और अलग पार्टी भी बना ली. हम प्रमुख जीतन राम मांझी दलित वोट बैंक 22 फीसदी तक होने का दावा करते हैं.

जीतन राम मांझी (फाइल फोटो)
जीतन राम मांझी (फाइल फोटो)

पासवान समुदाय पर एलजेपी की पकड़
पासवान समुदाय पर आज भी एलजेपी की पकड़ मानी जाती है. रामविलास पासवान पासवान जाति पर अभी भी एकाधिकार होने का दावा करते हैं. दलितों में ऐसे तो 22 समुदाय है लेकिन उसमें से रविदास, मुसहर और पासवान ही प्रमुख रूप से हैं.

लालू और बिहार की दलित राजनीति
इसके बावजूद, दलितों के अन्य नेता यानी दलितों में सबसे पिछड़ी जाति मुसहरों के सर्वमान्य नेता जीतन राम मांझी, रजकों के बड़े चेहरे श्याम रजक, रविदास के रमई राम, पासियों के उदय नारायण चौधरी सरीखे नेताओं के अपने-अपने राजनीतिक असर हैं. हालांकि, श्याम रजक और उदय नारायण चौधरी ने नीतीश कुमार से राजनीतिक नाता तोड़कर अलग हो चुके हैं. आरजेडी नेता व रविदास के रमई राम कहते है कि इस बार तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाएंगे क्योंकि नीतीश कुमार ने अब तक दलितों के लिए कुछ नहीं किया सिर्फ ठगा है.

अब तो हो गई दूरी
अब तो हो गई दूरी

दरअसल, बिहार की राजनीति की हो और लालू प्रसाद यादव का नाम न आए, यह सोचना भी अतिशयोक्ति होगी. खासकर चुनाव के मौके पर लालू अचानक ही सुर्खियों में चले आते हैं. लालू समर्थक कहते है कि बिहार में दलितों और पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा और अल्पसंख्यक जब तक लालू प्रसाद के साथ हैं.

बिहार में दलित राजनीति
वहीं अगर हम इतिहार के पन्नों को पलटे तो बिहार देश का पहला राज्य बना, जिसने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित किया था. इसके बाद उम्मीद जगी थी कि बिहार में समाज के दबे-कुचले तबके की सामाजिक और आर्थिक तरक्की का रास्ता खुलेगा, लेकिन हालात नहीं बदलें. 60 के दशक के आखिर में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बने, जो देश के पहले दलित मुख्यमंत्री थे. 1977 में बिहार के बाबू जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बने थे. फिर भी बिहार की अनुसूचित जाति के सामाजिक और आर्थिक हालात में न तो कोई सुधार आया है और न ही वे अपनी कोई सियासी पहचान बना सके.

फिलहाल, हाल के समय में मजदूरों की समस्या ने बिहार में दलित आंदोलन की एक नई संभावना जगाई है. आने वाले विधानसभा चुनाव में यह देखा जाना है कि बिहार के दलित वोटरों की गोलबंदी का आधार आर्थिक पहलू जैसे मजदूरों की समस्या, रोजगार इत्यादि पर हो पाता है या फिर से पुराने जातीय ढर्रे पर ही सियासत होनी है.

पटना: बिहार विधानसभा चुनाव में दलितों पर खूब सियासत होती रही है. रामविलास पासवान लंबे समय से दलितों के नाम पर ही राजनीति करते रहे हैं. लेकिन बिहार की सियासत में अब केवल रामविलास पासवान ही दलितों के एकमात्र नेता नहीं रह गए हैं. पूर्व सीएम जीतन राम मांझी के साथ बीजेपी और जेडीयू ने भी कई ऐसे चेहरे सामने रखे हैं.

बिहार में 16 फीसदी दलित मतदाता
बिहार में 243 विधानसभा सीटों में 40 सीट दलित उम्मीदवार के लिए रिजर्व हैं. वहीं, दलित वोटरों की संख्या 16 फीसदी है और कई सीटों पर दलित वोटर जीत हार का फैसला तय करते हैं, इसलिए सभी दल दलित वोटरों को रिझाने की हर संभव कोशिश हर चुनाव में करते रहे हैं.

देखें ये खास रिपोर्ट

बिहार में दलित नहीं बल्कि महादलित
बिहार में रामविलास पासवान के दलित वोट पर एकाधिकार को नीतीश कुमार ने दलित को महादलित में बांटकर खत्म किया था. दरअसल, बिहार की दलित समुदाय में 22 जातियां आती हैं. 2005 में नीतीश कुमार सत्ता में आए तो उन्होंने दलित समुदाय को साधने के लिए दलित कैटेगरी की 22 जातियों में से 21 को महादलित घोषित कर अपनी तरफ से कोशिशें शुरू, जिसमें वो कामयाब भी रहे. हालांकि, 2018 में पासवान जाती को भी शामिल कर सभी को महादलित बना दिया. इस तरह से बिहार में अब कोई दलित समुदाय नहीं रह गया है.

राम विलास पासवान (फाइल फोटो)
राम विलास पासवान (फाइल फोटो)

सबसे बड़े दलित नेता-मांझी
जीतनराम मांझी ने करीब आठ महीने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अपना सारा ध्यान इस बात पर रखा कि वह कैसे महादलित का चेहरा बन सके. नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना कर एक बड़ा दलित गेम खेला था. लेकिन, जीतन राम मांझी बागी हो गए और अलग पार्टी भी बना ली. हम प्रमुख जीतन राम मांझी दलित वोट बैंक 22 फीसदी तक होने का दावा करते हैं.

जीतन राम मांझी (फाइल फोटो)
जीतन राम मांझी (फाइल फोटो)

पासवान समुदाय पर एलजेपी की पकड़
पासवान समुदाय पर आज भी एलजेपी की पकड़ मानी जाती है. रामविलास पासवान पासवान जाति पर अभी भी एकाधिकार होने का दावा करते हैं. दलितों में ऐसे तो 22 समुदाय है लेकिन उसमें से रविदास, मुसहर और पासवान ही प्रमुख रूप से हैं.

लालू और बिहार की दलित राजनीति
इसके बावजूद, दलितों के अन्य नेता यानी दलितों में सबसे पिछड़ी जाति मुसहरों के सर्वमान्य नेता जीतन राम मांझी, रजकों के बड़े चेहरे श्याम रजक, रविदास के रमई राम, पासियों के उदय नारायण चौधरी सरीखे नेताओं के अपने-अपने राजनीतिक असर हैं. हालांकि, श्याम रजक और उदय नारायण चौधरी ने नीतीश कुमार से राजनीतिक नाता तोड़कर अलग हो चुके हैं. आरजेडी नेता व रविदास के रमई राम कहते है कि इस बार तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाएंगे क्योंकि नीतीश कुमार ने अब तक दलितों के लिए कुछ नहीं किया सिर्फ ठगा है.

अब तो हो गई दूरी
अब तो हो गई दूरी

दरअसल, बिहार की राजनीति की हो और लालू प्रसाद यादव का नाम न आए, यह सोचना भी अतिशयोक्ति होगी. खासकर चुनाव के मौके पर लालू अचानक ही सुर्खियों में चले आते हैं. लालू समर्थक कहते है कि बिहार में दलितों और पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा और अल्पसंख्यक जब तक लालू प्रसाद के साथ हैं.

बिहार में दलित राजनीति
वहीं अगर हम इतिहार के पन्नों को पलटे तो बिहार देश का पहला राज्य बना, जिसने जमींदारी उन्मूलन कानून पारित किया था. इसके बाद उम्मीद जगी थी कि बिहार में समाज के दबे-कुचले तबके की सामाजिक और आर्थिक तरक्की का रास्ता खुलेगा, लेकिन हालात नहीं बदलें. 60 के दशक के आखिर में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बने, जो देश के पहले दलित मुख्यमंत्री थे. 1977 में बिहार के बाबू जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बने थे. फिर भी बिहार की अनुसूचित जाति के सामाजिक और आर्थिक हालात में न तो कोई सुधार आया है और न ही वे अपनी कोई सियासी पहचान बना सके.

फिलहाल, हाल के समय में मजदूरों की समस्या ने बिहार में दलित आंदोलन की एक नई संभावना जगाई है. आने वाले विधानसभा चुनाव में यह देखा जाना है कि बिहार के दलित वोटरों की गोलबंदी का आधार आर्थिक पहलू जैसे मजदूरों की समस्या, रोजगार इत्यादि पर हो पाता है या फिर से पुराने जातीय ढर्रे पर ही सियासत होनी है.

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