पटना: सियासत का हर रंग और उसकी भाषा जिस राजनीतिक ताने-बाने में होती है, उसका मिजाज बड़ा गजब का होता है. बात जो दिखती है, वह होती नहीं और जो होती है, वह सीधी दिखती नहीं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक लंबे अंतराल के बाद दिल्ली यात्रा पर हैं और इस यात्रा के कई मायने निकाले जा रहे हैं. नीतीश कुमार से जब दिल्ली यात्रा के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि मैं दिल्ली आंख दिखाने आया हूं.
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निश्चित तौर पर नीतीश कुमार को शायद देखने में परेशानी हो रही हो. आंखों से ठीक ढंग से चीजें दिख नहीं रही हो. शायद वही वजह हो कि उनकी आंखों की रोशनी ठीक हो जाए, इसका इलाज दिल्ली के डॉक्टर करेंगे. हालांकि नीतीश कुमार के आंख दिखाने वाले बयान के बाद बिहार में सियासी बयानबाजी तेज हो गई है. सवाल यह उठ रहा है कि आखिर नीतीश को सियासत का कौन सा ऐसा रंग है, जो दिख नहीं रहा है और दिल्ली में ही कौन ऐसे डॉक्टर हैं जो नीतीश कुमार की आंख को ठीक कर पाएंगे.
विपक्षी दलों ने नीतीश कुमार के इस बयान पर सवाल उठाया है. साथ ही ये भी कहने लगे हैं कि नीतीश कुमार के चश्मे से जो दिख रहा है, उसमें नंबर इतना बड़ा हो गया है कि दिल्ली की सियासत को देखने के लिए उन्हें अब दिल्ली के डॉक्टरों की ही जरूरत पड़ेगी. क्योंकि बिहार के अस्पतालों की जो हालत है और नीतीश कुमार ने इतने सालों में इन अस्पतालों को जो रंग दिया है, उसमें कोई ऐसा डॉक्टर है ही नहीं जो नीतीश की आंखों का इलाज कर पाए.
बिहार की जिस बानगी को नीतीश कुमार ने खड़ा किया है, उसकी चिकित्सा व्यवस्था कितनी लचर है उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सीएम साहब को अपनी आंख दिखाने के लिए दिल्ली जाना पड़ेगा, लेकिन बिहार के लोग कहां जाएंगे यह साहब को कभी समझ नहीं आया, लेकिन नेपथ्य में जो चीजें छिपी हैं, उसमें नीतीश कुमार आंखों का इलाज कराने तो जरूर गए हैं, लेकिन सियासत में जो चीजें सबकी आंखों से दिख रही है उसका सवाल-जवाब भी होना जरूरी है. क्योंकि राजनीति जिस चश्मे से बिहार को अब देखने लगी है उसमें बहुत सारे नेताओं के देखने का नजरिया बदल गया है. ऐसे में सियासत में राजनीति के असली रंग को देखने के लिए कई चश्मे के बदलने की शायद जरूरत अब बिहार में महसूस होने लगी है.
सहयोगी दलों का रंग
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके साथ सरकार में शामिल जो घटक दल हैं, कोरोना के समय इनके जो बयान आए हैं वह गठबंधन धर्म को लेकर कई सवाल खड़े करते हैं. बात वीआईपी की हो या फिर जीतन राम मांझी की. दोनों राजनीतिक दलों ने कोरोना काल में अपनी ही सरकार को जिस तरीके से कटघरे में खड़ा किया, उसे बेहतर तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन बिहार की सियासत में यह सवाल उठने लगा था कि बिहार में गठबंधन में शामिल दल जो बात नीतीश के विरोध में बोल रहे हैं उसकी स्क्रिप्ट दिल्ली में लिखी जाती है.
इस बात पर भी एक विराम लगाना जरूरी है कि दिल्ली से कोई ऐसी कहानी न कही जाए जो बिहार की सियासत की जमीन को दूसरा रंग दे दे. इस रंग को देखने के लिए भी दिल्ली में एक नए सियासी चश्मे की जरूरत है, जिसे शायद नीतीश कुमार अपनी आंख दिखाना चाहते हैं.
लोजपा का रंग
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को जिस तरीके से खुली चुनौती दी थी और नारा भी दे दिया था कि 'तेजस्वी अभी नहीं, नीतीश कभी नहीं'. वह बगावती तेवर के साथ मैदान में उतरे थे. चुनाव लड़े 136 सीटों पर. जीत एक पर दर्ज हुई वह भी विधायक भले आज लोजपा के खाते में ना हो, लेकिन चिराग पासवान के उस राजनीतिक रणनीति ने नीतीश कुमार का जबरदस्त घाटा किया था. दो दर्जन से ज्यादा सीटों को नीतीश कुमार लोजपा विरोध के नाते गंवा दिए थे.
हालांकि 2020 में जो नीतीश कुमार का घाटा हुआ उसकी भरपाई लोजपा को तोड़कर जदयू ने पूरा कर दिया, लेकिन सियासत में जिन चीजों की चर्चा शुरू हुई है अगर उसकी भरपाई नहीं हुई तो जदयू और बीजेपी दोनों के लिए बिहार में सियासत कई सवाल खड़े कर देगी. चिराग के पक्ष में जो राजनीति खड़ी हो रही है उसका अगला रंग वोट बैंक के नजरिए से जो नीतीश देख रहे हैं उसे भी दिल्ली में समझ लेना है. क्योंकि अगर उसे आंख खोल कर नहीं देखा गया तो आने वाले समय में शायद उसका रंग कुछ और हो जाए, जिसके लिए सियासी चश्मे का रंग और बनाना पड़े तो शायद एक बानगी यह भी है कि नीतीश कुमार यहां भी अपनी आंखें साफ तौर पर उस चश्मे के साथ अपने मित्र को दिखा लें जो बिहार की जमीनी राजनीति के लिए जरूरी है.
यूपी का रंग
उत्तर प्रदेश में सत्ता की हुकूमत की जंग की तैयारी शुरू हो गई है उत्तर प्रदेश की गद्दी पर काबिज बीजेपी योगी आदित्यनाथ के 5 सालों की तपस्या का फल मांगने के लिए जनता के लिए जाने वाली है, जिसमें विकास ही मूल आधार रहा है. हालांकि जातीय आधार को भुलाकर बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति को साध पाना बड़ा मुश्किल है. यह सभी राजनीतिक दलों को पता भी है. बीजेपी पश्चिम बंगाल के चुनाव के बाद इस बात को मान भी रही है कि अपने बड़े नेता और बड़ी पार्टियों के सहयोग के साथ विकास की बात कही जा रही है वह जनता के बीच रखी जानी भी जरूरी है.
दरअसल दिल्ली अगर गद्दी देता है तो उसमें धड़कन अगर उत्तर प्रदेश है तो दिल बिहार है. ऐसे में सियासत में गद्दी पाने के लिए दिल और धड़कन दोनों को जोड़ना पड़ेगा और शायद इस बार के उत्तर प्रदेश के चुनाव में बिहार की बानगी मजबूती से रहेगी. उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रभारी बिहार से राधा मोहन सिंह हैं, तो माना यह भी जा रहा है कि बिहार में चल रही एनडीए की सरकार के विकास का फार्मूला भी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में रखा जाए.
सियासत के चश्मे से एक नजरिया यह भी उभरकर आ रहा है कि पश्चिम बंगाल में जदयू को अलग कर बीजेपी को इस बात का अहसास हो गया है कि नीतीश कुमार अगर बंगाल के चुनाव में होते तो 3 से 7 फीसदी वोट का इजाफा बीजेपी को हो गया होता. उत्तर प्रदेश में बीजेपी इस हथकंडे से भी अलग नहीं जाएगी और माना यह भी जा रहा है कि जिस तरीके से जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी ने उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए अभी से गोलबंदी शुरू की है. उस नजरिए को भी मजबूत आंखों से देख लेना है, जिसे नीतीश कुमार तो बहुत ही समझ रहे हैं, लेकिन अपने सहयोगी दल को भी खुली आंखों से दिखा देना चाहते हैं.
नीतीश कुमार दिल्ली में हैं तो माना यह जा रहा है कि तमाम बड़े नेताओं से उनकी मुलाकात जरूर होगी. बिहार में कोरोना से जिस तरीके से नीतीश सरकार लड़ी है, चर्चा उस पर भी होगी और बिहार में आगे की जो बड़ी चुनौती बाढ़ की है मदद की गुहार उसके लिए भी होगी. इन तमाम चीजों के बीच नीतीश कुमार अपनी जिस आंख को दिखाने गए हैं उसका हर मिजाज इतना मजबूत तो जरूर है की दिल्ली से लौटने के बाद नीतीश कुमार की हर दृष्टि नए राजनीतिक मजमून को सबको दिखाएगी भी और जमीनी हकीकत भी देगी.
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