पटनाः बिहार में जातीय जनगणना का दूसरा चरण शुरू हो चुका है. जातीय जनगणना शुरू होने के साथ ही इसका विरोध शुरू होने लगा था. एक ओर जहां खामियों को लेकर सवाल उठ रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार फायदे जुड़वा रही है. बिहार में पिछड़ी राजनीति करने वाले ज्यादातर राजनीतिक दलों और नेताओं की मांग की कि बिहार में जातिगत जनगणना कराई जाए. राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि मंडल ने जातिगत जनगणना को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात भी की थी. केंद्र की असमर्थता के बाद बिहार सरकार ने अपने खर्चे पर जातिगत जनगणना कराने का फैसला लिया.
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उपजाति को लेकर उठ रहे सवालः बिहार में जातिगत जनगणना के दूसरे चरण की शुरुआत हो चुकी है. शुरुआत में ही कई विवाद सामने आ रहे हैं. मिसाल के तौर पर ताजा विवाद उपजाति को लेकर सामने आया है. पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति में तो उपजाति की गणना की जा रही है, लेकिन अगड़ी जाति में उपजाति की गणना नहीं की जा रही है. इसके अलावा जाति को लेकर कोड की चर्चा से भी माहौल बिगड़ा है. सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि क्या जाति अब कोड के जरिए जाना जाएगा. किसी व्यक्ति की पहचान अब कोड होगी.
जातीय जनगणना के फायदेः समाजशास्त्री और अनुग्रह नारायण संस्थान के प्राध्यापक डॉ बीएन प्रसाद ने जातीय जनगणना को लेकर अपना विचार रखा. उनका मानना है कि जातिगत जनगणना को समझने के लिए अतीत को जानना जरूरी है. शुरुआती दौर में व्यवस्था वर्ण पर आधारित थी, लेकिन उत्तर वैदिक काल में व्यवस्था जाति पर आधारित हो गई. कालांतर में चारों वर्ण में मेलजोल बढ़ा और जाति व्यवस्था की शुरुआत हुई. 1931 के बाद बिहार में जातिगत जनगणना नहीं हुई है. इसलिए यह जरूरी है. वर्तमान में यह जान लिया जाए कि किस जाति के कितने लोग हैं. विकास का स्तर क्या है. इससे नीति बनाने में सुविधा होगी.
"1931 के बाद जातीय जनगणना नहीं हुई. इस कारण यह पता नहीं चला कि किस जाति के कितने लोग हैं. जातीय जनगणना इसलिए फायदेमंद है कि इससे यह पता चल पाएगा कि बिहार में किस जाति के कितने लोग है. इससे सरकार को नीति बनाने में आसानी होगी. सरकार अगर राजनीतिक के लिए इस्तेमाल नहीं करती है तो यह फायदेमंद साबित होगा." -डॉ बीएन प्रसाद, समाजशास्त्री
सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विकास संभव: अर्थशास्त्री डॉ. विद्यार्थी विकास का मानना है कि "जातिगत जनगणना के जरिए हम बिहार के पिछड़ेपन को चिह्नित कर सकते हैं कि किस जाति में कितने लोग पिछड़ेपन का शिकार हैं. इसका आंकलन किया जा सकता है. उस आधार पर नीति बनाई जा सकती है. बिहार सरकार और केंद्र सरकार कई ऐसी योजनाएं चलाती हैं जो अलग-अलग जातियों को लाभ पहुंचाती हैं. अगर जातिगत जनगणना ठीक तरीके से कराई जाती है तो ऐसी स्थिति में बिहार में रह रहे लोगों का सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक विकास संभव है."
सरकार की मंशा स्पष्ट नहींः राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर संजय कुमार का मानना है कि जातिगत जनगणना को लेकर सरकार की मंशा स्पष्ट नहीं है. कई तरह की भ्रांतियां सामने आ रही हैं. पिछड़ी जातियों में तो उपजाति को गिना जा रहा है, लेकिन अगड़ी जाति में उपजाति की गिनती नहीं हो रही है. इससे सवाल उठता है कि कहीं सरकार आंकड़ों की बाजीगरी कर राजनीतिक हित साधना तो नहीं चाहती है. विधानसभा या लोकसभा में भी आरक्षण जाति के बजाय वर्ग पर आधारित है तो ऐसी स्थिति में जातिगत जनगणना बहुत प्रसांगिक दिखाई नहीं देता है.
"जाति का कोड देकर सरकार क्या स्थापित करना चाहती है. अगड़ी जाति में उपजाति की गणना क्यों नहीं की जा रही है. सरकार की मंशा शायद यह है कि पिछड़ी जाति की संख्या को ज्यादा दिखाई जाए और भविष्य में आरक्षण के सीमा को बढ़ाने की मांग की जाए. बेहतर तो यह होता कि अलग-अलग जातियों का आप आर्थिक सर्वेक्षण करा लेते ताकि योजनाएं बनाने में मदद मिलती. -डॉक्टर संजय कुमार,राजनीतिक विश्लेषक
किन्नर जाति का विरोध?: जातीय जनगणना में थर्ड जेंडर को लेकर भी विवाद खड़ा हुआ है. इसको लेकर भी किन्नर समाज ने आपत्ति जाहिर की थी. किन्नर समाज की प्रतिनिधि सह समाजसेवी रेशमा प्रसाद ने किन्नर के लिए कोड जारी करने पर विरोध जताई थी. उन्होंने कहा कि "किन्नर एक लिंग है, जाति नहीं है. हर जाति में थर्ड जेंडर होते हैं. उनकी मांग है कि हमारी गिनती भी हमारी जाति के हिसाब से की जाए. जो जिस जाति के ट्रांसजेंडर हैं उसकी गिनती उसी जाति में की जाए."