पटना: भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था लेकिन सन् 1942 के ऐतिहासिक 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान ही भारत की स्वतंत्रता की पटकथा लिख दी गई थी. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 1942 के आंदोलन को ही अंतिम अस्त्र माना था और 'करो या मरो' का नारा दिया था. इसका व्यापक असर क्रांति की भूमि बिहार में देखने को मिला. 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई और 3 दिन ही बिहार की राजधानी पटना में तीन युवाओं ने तिरंगे की खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान दे दिया.
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क्या हुआ था 11 अगस्त 1942 को?: 11 अगस्त को 2:00 बजे दिन में पटना के सचिवालय पर युवाओं की टोली झंडा फहराने निकली थी. उस समय पटना के जिलाधिकारी डब्लू जी आर्थर ने युवाओं को पीछे हटने को कहा लेकिन उत्साही युवक पीछे हटने को तैयार नहीं हुए और तिरंगा लेकर आगे बढ़ते गए. उन्हें रोकने के लिए पुलिस ने गोलियां चला दी लेकिन क्रांतिकारी जवान डटे रहे. 13 से 14 राउंड गोलियां की बौछार के बावजूद वो आगे बढ़ते गए.
'तिरंगा' देवीपद चौधरी सबसे आगे थे: अभियान का नेतृत्व देवीपद चौधरी कर रहे थे. देवीपद चौधरी की उम्र उस समय महज 14 साल थी और वह सिलहट वर्तमान में बांग्लादेश के जमालपुर गांव के रहने वाले थे. देवीपद तिरंगा लेकर आगे बढ़ रहे थे. पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा लेकिन वह नहीं रुके और आगे बढ़ते रहे. सबसे पहले देवी पद अंग्रेजों की गोली का शिकार हुए.
गोली खाई लेकिन भारतीय ध्वज को गिरने नहीं दिया: वहीं देवीपद को गिरते देखकर ध्वज को पटना जिले के दशरथा गांव के राम गोविंद सिंह आगे बढ़े. उस ध्वज को हाथ में थामकर राम गोविंद आगे बढ़े तो पुलिस ने उन्हें भी गोली मार दी. फिर रामानंद सिन्हा ने भारतीय ध्वज को थामा और उसे गिरने नहीं दिया. रामानंद सिंह पटना जिले के रहने वाले थे और दसवीं कक्षा में पढ़ाई करते थे. रामानंद को गिरते देख सारण जिले के दिघवारा निवासी राजेंद्र सिंह ने झंडा थामा. राजेंद्र सिंह आगे बढ़े तो उन्हें भी गोली मार दी गई.
उमाकांत ने फहराया भारतीय ध्वज: राजेंद्र सिंह को गिरता देखकर जगपति कुमार ने मोर्चा संभाला. औरंगाबाद निवासी जगपति कुमार को एक हाथ में पहली गोली लगी, दूसरी गोली छाती में लगी और तीसरी गोली जांघ में लगी लेकिन फिर भी उन्होंने 'तिरंगा' नहीं झुकने दिया. उसके बाद भागलपुर जिले के खडहरा गांव निवासी सतीश प्रसाद झा आगे बढ़े. उनको भी गोली मार दी गई. उनके शहीद होने के बाद तिरंगा को गिरते देख उमाकांत प्रसाद सिंह आगे बढ़े और तिरंगा का थाम लिया. अंग्रेजी हुकूमत की पुलिस ने उनको भी गोली मार दी लेकिन तब तक सचिवालय के गुंबद पर ध्वज फहर चुका था. सचिवालय पर भारतीय झंडा फहराने वाले उमाकांत सिंह की उम्र 15 साल थी और वह पटना पीएम कॉलेज के द्वितीय वर्ष के छात्र थे.
राजेंद्र सिंह ने पीठ पर नहीं, सीने पर गोली खाई: 'सात शहीद' में से एक राजेंद्र सिंह का परिवार गर्व से उस पल को याद करता है. उनका जन्म 4 दिसंबर 1924 को सारण जिले के सोनपुर अनुमंडल के बनवारी चक गांव में हुआ था. फिलहाल उनका परिवार दानापुर स्थित तकिया में रहता है. राजेंद्र सिंह को अंग्रेजों ने पीछे हटने को कहा तो उन्होंने नंगी छाती को दिखाते हुए अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा था, 'दम है तो गोली मारो.'
'दादा की कुर्बानी पर गर्व करते हैं हम': शहीद राजेंद्र सिंह के पौत्र संजीव कुमार को अपने दादा की कुर्बानी पर गर्व है. वह कहते हैं कि हमारे दादा जी ने तिरंगे की खातिर जान की बाजी लगा दी. पीछे हटने की बजाय उन्होंने तिरंगे के लिए अंग्रेजों की गोली खाना स्वीकार किया. गांधीजी के आह्वाहन पर उनके दादाजी ने आंदोलन में हिस्सा लिया था. आज भी वह उनकी वीरता से प्रेरणा लेते हैं.
"गांधी जी से प्रेरित होकर मेरे दादाजी अपने सात साथियों के साथ सचिवालय के पश्चिमी गेट पर जमा हुए और भारतीय ध्वज फहराने के लिए आगे बढ़े. अंग्रेज अफसर के गोली मारने की चेतावनी के बावजूद दादा जी और उनके साथी पीछे नहीं हटे. लगभग 13 राउंड गोलियां चलाई गई, जिसमें दादाजी समेत सात युवा शहीद हो गए. हमें उन पर गर्व है"- संजीव कुमार, शहीद राजेंद्र सिंह के पौत्र
सरकार से क्या चाहता है शहीद परिवार?: वहीं, शहीद राजेंद्र सिंह की पौत्र वधू अंशु प्रिया ने ईटीवी भारत से खास बातचीत के दौरान कहा, 'दादा जी ने अपने देश के लिए कुर्बानी दी. दादी को पेंशन भी मिलती थी, वह साइकिल पर बैठकर दानापुर पेंशन के लिए जाती थी.' हालांकि उनकी सरकार से शिकायत भी है. वह कहती हैं कि सरकार की ओर से मान सम्मान तो मिला लेकिन जिस तरीके से बिहार में सरकारी नौकरी में स्वतंत्रता सेनानी के परिवार को 2 फीसदी आरक्षण मिला है, उसी प्रकार केंद्र सरकार को भी सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए.