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LJP में टूट के बाद यूं ही नहीं हो रही 'दलित पॉलिटिक्स' पर बहस, सत्ता के लिए जरूरी है इस वोट बैंक पर मजबूत पकड़

एलजेपी (LJP) में टूट के बाद दलित वोट बैंक एक बार फिर से चर्चा में आ गया है. माना जा रहा है कि चिराग और पशुपति के झगड़े का असर आने वाले दिनों में पासवान वोट बैंक पर जरूर पड़ सकता है. बिहार में कांग्रेस, आरजेडी, बीजेपी और जेडीयू की दलित वोट बैंक पर पैनी नजर हैं. वहीं जीतनराम मांझी भी लगातार खुद को दलितों का सबसे बड़ा नेता बताते हैं.

दलित राजनीति्
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Published : Jun 20, 2021, 8:37 PM IST

पटना: वैसे तो हमेशा से बिहार में दलितों के नाम पर राजनीति (Dalit Politics) होती रही है, लेकिन जब से रामविलास पासवान (Ramvilas Paswan) की विरासत को लेकर उनके भाई पशुपति पारस (Pashupati Paras) और बेटे चिराग पासवान (Chirag Paswan) के बीच विवाद बढ़ा है, तब से एक बार फिर दलित राजनीति चर्चा के केंद्र में है.

ये भी पढ़ें- दलित राजनीति पर NDA में घमासान, BJP ने कहा- सिर्फ मांझी को नहीं दलितों की बात करने का हक

दलितों की 22 उपजातियां
बिहार में दलितों की 22 उपजातियां हैं. जिनमें पासवान, मुसहर, भुइयां, डोम, चमार, धोबी और नट महत्वपूर्ण जातियां हैं. वोट के लिहाज से करीब 16 फीसदी के आसपास दलित वोटर हैं. जिन्हें अपने पाले में लाने के लिए कांग्रेस (Congress) से लेकर बीजेपी (BJP), लालू (Lalu Prasad Yadav)से लेकर नीतीश (Nitish Kumar) और रामविलास पासवान से लेकर जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi) तक, हर किसी ने अपने-अपने हिसाब से कोशिश की है.

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अब तक तीन दलित मुख्यमंत्री
कहा जाता है कि दलितों का वोट लेने के लिए कांग्रेस ने कई बार कार्ड खेला. भोला पासवान शास्त्री को तीन बार मुख्यमंत्री बनाया. उसके बाद राम सुंदर दास भी मुख्यमंत्री बने. काफी समय तक उसे दलितों का बड़ा वोट मिला भी, लेकिन धीरे-धीरे उसकी पकड़ कमजोर होती गई.

नीतीश के साथ दलित समाज- जेडीयू
वहीं, नीतीश कुमार (Nitish Kumar) भी दलितों को रिझाने में पीछे नहीं रहे. उन्होंने पहले दलित को महादलित में बांटा और फिर जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर दलितों को लुभाने की पूरजोर कोशिश की.

हालांकि बाद में मांझी की बगावत के बाद कुछ वोट बैंक उनके हिस्से से छिटक गया. जेडीयू (JDU) के विधान पार्षद संजय गांधी का दावा है कि दलितों के लिए सबसे ज्यादा काम मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ही किया है. इसलिए दलित समाज आज भी हमारे साथ सबसे ज्यादा इंटेक्ट है.

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नीतीश ने केवल राजनीति की- आरजेडी
कभी नीतीश कुमार के करीबी रहे आरजेडी नेता श्याम रजक कहते हैं कि दलितों के नाम पर नीतीश कुमार ने केवल राजनीति की है. पहले दलित को महादलित में बांटा फिर जब हम लोग जेडीयू में शामिल हुए तो कुछ और जातियों को महादलित में डाल दिया.

उसके बाद रामविलास पासवान के साथ समझौता हो गया तो पासवान को भी महादलित बना दिया. सच तो ये है कि केवल वोट बैंक की राजनीति के लिए नीतीश कुमार ने यह सब कुछ किया, दलितों के विकास के लिए कुछ नहीं किया है. उनके मुताबिक लालू यादव हमेशा कमजोर, लाचार और पिछड़ों की बात की है.

बीजेपी की भी दलित पर नजर
वहीं, बीजेपी की भी नजर लंबे समय से दलित वोट बैंक पर रही है. यही वजह है कि बीजेपी के नेता दलित हित के मुद्दे पर बयान देने में पीछे नहीं रहते हैं. हालांकि पार्टी में कोई बड़ा दलित चेहरा आज तक नहीं उभर सका है.

प्रवक्ता अखिलेश कुमार सिंह का कहना है कि बिहार में तो लंबे समय से दलित वोट बैंक पर सियासत होती रही है और हम लोग तो हमेशा दलितों के विकास को लेकर काम करते रहे हैं. बीजेपी के दलित नेताओं ने दलितों के विकास के लिए हमेशा महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

ये भी पढ़ें- लोजपा में टूट से उलझी बिहार की दलित राजनीति, महागठबंधन दे रहा चिराग को ऑफर

'दलित नेता के पास जनाधार नहीं'
पटना स्थित एएन सिन्हा शोध संस्थान के प्रोफेसर विद्यार्थी विकास की मानें तो भले ही बिहार में अब तक दलित समाज से आने वाले कई नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुके हों, लेकिन किसी ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. इसकी एक वजह ये भी है कि किसी भी नेता के पास बड़ा आधार नहीं रहा है.

वे कहते हैं कि जब तक दलितों के वोट बैंक किसी दलित नेता के पास एकीकृत नहीं रहेगा, उनकी ताकत नहीं बढ़ सकती है. जहां तक सूबे की सियासत में उनकी भूमिका की बात है तो ये सच है कि दलित वोट बैंक किसी भी राजनीतिक दल के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.

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चुनाव में किसके साथ दलित वोट?
लालू-राबड़ी शासनकाल के बाद जब से नीतीश कुमार सत्ता में आए हैं, तब से दलित वोट बैंक के एक बड़े हिस्से पर जेडीयू का दबदबा रहा है. अगर हम पिछले तीन विधानसभा चुनावों की बात करें तो, परिणाम से भी तस्वीर साफ हो जाती है. 243 विधानसभा सीटों में से 40 सीटें एससी-एसटी के लिए सुरक्षित है .

  • 2010 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी ने 20 और जेडीयू ने 19 सीटों पर कब्जा जमाया था, जबकि आरजेडी को मात्र एक सीट मिली थी.
  • 2015 में जेडीयू ने 11, आरजेडी ने 15 और कांग्रेस ने 5 सीटों पर जीत हासिल की थी. जबकि बीजेपी को 5 सीट मिली. वहीं, सीपीआईएमएल-बीएसपी-हम और निर्दलीय के हिस्से एक-एक सीट आई. यहां ये बताना जरूरी है कि तब नीतीश कुमार आरजेडी-कांग्रेस के साथ थे.
  • वहीं, 2020 चुनाव की बात करें तो जेडीयू को 8, बीजेपी को 11 , हम को 3, वीआईपी को एक सीट पर जीत मिली. वहीं, आरजेडी को 8, कांग्रेस को 5, सीपीआई माले को 3 और सीपीआई को एक सीट पर सफलता मिली.

दलित प्रेम दिखावा तो नहीं!
अभी कुछ दिनों पहले पूर्णिया में जब दलितों पर हमले हुए थे, तभी बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने इसको लेकर जोरदार आवाज उठाई थी. हालांकि तब आरजेडी और एनडीए की सहयोगी हम पार्टी के अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने उन पर पलटवार किया था.

बीजेपी ने जहां उसमें मुस्लिम एंगल निकालने की कोशिश की, वहीं आरजेडी-हम ने दलित-मुस्लिम एकता का दावा किया. माना ये भी जा रही है कि दलित वोट बैंक को लेकर बीजेपी की कोशिश यही है कि यूपी में चुनाव होना है, लिहाजा वहां भी एक अच्छा मैसेज जाए.

ये भी पढ़ें- BJP प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने उठाया 'दलितों पर अल्पसंख्यक के अत्याचार' का मुद्दा, JDU ने दिया ये जवाब

बिहार के बड़े दलित चेहरे
बिहार से दलितों के कई बड़े नेता हुए. इनमें भोला पासवान शास्त्री तो बिहार में तीन बार मुख्यमंत्री बने, उसके बाद राम सुंदर दास और जीतन राम मांझी भी मुख्यमंत्री बने. वहीं, जगजीवन राम देश के प्रथम दलित उप-प्रधानमंत्री बने. रामविलास पासवान जहां केंद्र में कई बार मंत्री बने, वहीं, मीरा कुमार लोकसभा की अध्यक्ष बनीं. वे राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ चुकी हैं.

चिराग-पशुपति या कोई और?
अब जब ये तय हो गया कि रामविलास पासवान के परिवार में बिखराव हो चुका है, तो जाहिर है कि इसका असर पासवान वोट बैंक पर भी पड़ेगा. ऐसे में अहम सवाल ये भी है कि पासवान समाज किसके साथ जाएगा. चिराग पासवान को स्वभाविक उत्तराधिकारी समझकर उन्हें ही अपना नेता मानेगा या लंबे समय से रामविलास के साथ करने वाले पशुपति पारस को साथ देगा.

इनसब के बीच ये भी चर्चा हो रही है कि कहीं चाचा-भतीजा के बीच छिड़ी जंग में वोट एलजेपी से छिटककर किसी तीसरे के साथ न चला जाए. जिसके लिए आने वाले समय का इंतजार करना होगा.

पटना: वैसे तो हमेशा से बिहार में दलितों के नाम पर राजनीति (Dalit Politics) होती रही है, लेकिन जब से रामविलास पासवान (Ramvilas Paswan) की विरासत को लेकर उनके भाई पशुपति पारस (Pashupati Paras) और बेटे चिराग पासवान (Chirag Paswan) के बीच विवाद बढ़ा है, तब से एक बार फिर दलित राजनीति चर्चा के केंद्र में है.

ये भी पढ़ें- दलित राजनीति पर NDA में घमासान, BJP ने कहा- सिर्फ मांझी को नहीं दलितों की बात करने का हक

दलितों की 22 उपजातियां
बिहार में दलितों की 22 उपजातियां हैं. जिनमें पासवान, मुसहर, भुइयां, डोम, चमार, धोबी और नट महत्वपूर्ण जातियां हैं. वोट के लिहाज से करीब 16 फीसदी के आसपास दलित वोटर हैं. जिन्हें अपने पाले में लाने के लिए कांग्रेस (Congress) से लेकर बीजेपी (BJP), लालू (Lalu Prasad Yadav)से लेकर नीतीश (Nitish Kumar) और रामविलास पासवान से लेकर जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi) तक, हर किसी ने अपने-अपने हिसाब से कोशिश की है.

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अब तक तीन दलित मुख्यमंत्री
कहा जाता है कि दलितों का वोट लेने के लिए कांग्रेस ने कई बार कार्ड खेला. भोला पासवान शास्त्री को तीन बार मुख्यमंत्री बनाया. उसके बाद राम सुंदर दास भी मुख्यमंत्री बने. काफी समय तक उसे दलितों का बड़ा वोट मिला भी, लेकिन धीरे-धीरे उसकी पकड़ कमजोर होती गई.

नीतीश के साथ दलित समाज- जेडीयू
वहीं, नीतीश कुमार (Nitish Kumar) भी दलितों को रिझाने में पीछे नहीं रहे. उन्होंने पहले दलित को महादलित में बांटा और फिर जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर दलितों को लुभाने की पूरजोर कोशिश की.

हालांकि बाद में मांझी की बगावत के बाद कुछ वोट बैंक उनके हिस्से से छिटक गया. जेडीयू (JDU) के विधान पार्षद संजय गांधी का दावा है कि दलितों के लिए सबसे ज्यादा काम मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ही किया है. इसलिए दलित समाज आज भी हमारे साथ सबसे ज्यादा इंटेक्ट है.

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नीतीश ने केवल राजनीति की- आरजेडी
कभी नीतीश कुमार के करीबी रहे आरजेडी नेता श्याम रजक कहते हैं कि दलितों के नाम पर नीतीश कुमार ने केवल राजनीति की है. पहले दलित को महादलित में बांटा फिर जब हम लोग जेडीयू में शामिल हुए तो कुछ और जातियों को महादलित में डाल दिया.

उसके बाद रामविलास पासवान के साथ समझौता हो गया तो पासवान को भी महादलित बना दिया. सच तो ये है कि केवल वोट बैंक की राजनीति के लिए नीतीश कुमार ने यह सब कुछ किया, दलितों के विकास के लिए कुछ नहीं किया है. उनके मुताबिक लालू यादव हमेशा कमजोर, लाचार और पिछड़ों की बात की है.

बीजेपी की भी दलित पर नजर
वहीं, बीजेपी की भी नजर लंबे समय से दलित वोट बैंक पर रही है. यही वजह है कि बीजेपी के नेता दलित हित के मुद्दे पर बयान देने में पीछे नहीं रहते हैं. हालांकि पार्टी में कोई बड़ा दलित चेहरा आज तक नहीं उभर सका है.

प्रवक्ता अखिलेश कुमार सिंह का कहना है कि बिहार में तो लंबे समय से दलित वोट बैंक पर सियासत होती रही है और हम लोग तो हमेशा दलितों के विकास को लेकर काम करते रहे हैं. बीजेपी के दलित नेताओं ने दलितों के विकास के लिए हमेशा महत्वपूर्ण योगदान दिया है.

ये भी पढ़ें- लोजपा में टूट से उलझी बिहार की दलित राजनीति, महागठबंधन दे रहा चिराग को ऑफर

'दलित नेता के पास जनाधार नहीं'
पटना स्थित एएन सिन्हा शोध संस्थान के प्रोफेसर विद्यार्थी विकास की मानें तो भले ही बिहार में अब तक दलित समाज से आने वाले कई नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुके हों, लेकिन किसी ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. इसकी एक वजह ये भी है कि किसी भी नेता के पास बड़ा आधार नहीं रहा है.

वे कहते हैं कि जब तक दलितों के वोट बैंक किसी दलित नेता के पास एकीकृत नहीं रहेगा, उनकी ताकत नहीं बढ़ सकती है. जहां तक सूबे की सियासत में उनकी भूमिका की बात है तो ये सच है कि दलित वोट बैंक किसी भी राजनीतिक दल के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.

ईटीवी भारत GFX
ईटीवी भारत GFX

चुनाव में किसके साथ दलित वोट?
लालू-राबड़ी शासनकाल के बाद जब से नीतीश कुमार सत्ता में आए हैं, तब से दलित वोट बैंक के एक बड़े हिस्से पर जेडीयू का दबदबा रहा है. अगर हम पिछले तीन विधानसभा चुनावों की बात करें तो, परिणाम से भी तस्वीर साफ हो जाती है. 243 विधानसभा सीटों में से 40 सीटें एससी-एसटी के लिए सुरक्षित है .

  • 2010 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी ने 20 और जेडीयू ने 19 सीटों पर कब्जा जमाया था, जबकि आरजेडी को मात्र एक सीट मिली थी.
  • 2015 में जेडीयू ने 11, आरजेडी ने 15 और कांग्रेस ने 5 सीटों पर जीत हासिल की थी. जबकि बीजेपी को 5 सीट मिली. वहीं, सीपीआईएमएल-बीएसपी-हम और निर्दलीय के हिस्से एक-एक सीट आई. यहां ये बताना जरूरी है कि तब नीतीश कुमार आरजेडी-कांग्रेस के साथ थे.
  • वहीं, 2020 चुनाव की बात करें तो जेडीयू को 8, बीजेपी को 11 , हम को 3, वीआईपी को एक सीट पर जीत मिली. वहीं, आरजेडी को 8, कांग्रेस को 5, सीपीआई माले को 3 और सीपीआई को एक सीट पर सफलता मिली.

दलित प्रेम दिखावा तो नहीं!
अभी कुछ दिनों पहले पूर्णिया में जब दलितों पर हमले हुए थे, तभी बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने इसको लेकर जोरदार आवाज उठाई थी. हालांकि तब आरजेडी और एनडीए की सहयोगी हम पार्टी के अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने उन पर पलटवार किया था.

बीजेपी ने जहां उसमें मुस्लिम एंगल निकालने की कोशिश की, वहीं आरजेडी-हम ने दलित-मुस्लिम एकता का दावा किया. माना ये भी जा रही है कि दलित वोट बैंक को लेकर बीजेपी की कोशिश यही है कि यूपी में चुनाव होना है, लिहाजा वहां भी एक अच्छा मैसेज जाए.

ये भी पढ़ें- BJP प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने उठाया 'दलितों पर अल्पसंख्यक के अत्याचार' का मुद्दा, JDU ने दिया ये जवाब

बिहार के बड़े दलित चेहरे
बिहार से दलितों के कई बड़े नेता हुए. इनमें भोला पासवान शास्त्री तो बिहार में तीन बार मुख्यमंत्री बने, उसके बाद राम सुंदर दास और जीतन राम मांझी भी मुख्यमंत्री बने. वहीं, जगजीवन राम देश के प्रथम दलित उप-प्रधानमंत्री बने. रामविलास पासवान जहां केंद्र में कई बार मंत्री बने, वहीं, मीरा कुमार लोकसभा की अध्यक्ष बनीं. वे राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ चुकी हैं.

चिराग-पशुपति या कोई और?
अब जब ये तय हो गया कि रामविलास पासवान के परिवार में बिखराव हो चुका है, तो जाहिर है कि इसका असर पासवान वोट बैंक पर भी पड़ेगा. ऐसे में अहम सवाल ये भी है कि पासवान समाज किसके साथ जाएगा. चिराग पासवान को स्वभाविक उत्तराधिकारी समझकर उन्हें ही अपना नेता मानेगा या लंबे समय से रामविलास के साथ करने वाले पशुपति पारस को साथ देगा.

इनसब के बीच ये भी चर्चा हो रही है कि कहीं चाचा-भतीजा के बीच छिड़ी जंग में वोट एलजेपी से छिटककर किसी तीसरे के साथ न चला जाए. जिसके लिए आने वाले समय का इंतजार करना होगा.

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