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आज भी आदि युग में जीने को मजबूर हैं बिरहोर जनजाति के लोग - डिलाधिकारी

बिरहोर नाम से ही पता चलता है, जंगल का आदमी. बिर का अर्थ जंगल और होर का अर्थ आदमी. बिरहोर जनजाति दो तरह के होते हैं. एक उथलू बिरहोर जो हमेशा स्थान बदलते रहते हैं, दूसरा जगही बिरहोर जो जंगल के किसी एक जगह को साफ-सुथरा कर रहते हैं.

नवादा
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Published : Feb 9, 2019, 1:42 PM IST

नवादा: न्यू इंडिया का सपना देखने वाले भारत को आजाद हुए 70 साल गुजर चुके हैं, लेकिन आदिवासी गांव बस्तियों की हालत अब भी चिंताजनक है. इस इलाके में अब तक न मकान हैं, न बिजली हैं, न पानी है और न ही कोई रोजगार.

नवादा जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी दूर कौलकोल प्रखंड अंतर्गत एक पंचायत है सेखोदौरा. इसी पंचायत में एक आदिवासी बस्ती है भेड़िया टांरि. इस बस्ती में बिरहोर जनजाति आदिवासी रहते हैं. जब आप यहां रहकर इनके रहन-सहन को देखेंगें तो आपको न्यू इंडिया का सपना शेखचिल्ली के सपनों जैसा दिखने लगेगा.

बुजुर्ग आदिवासी महिला ने क्या कहा
इस बस्ती में रहने वाली 100 साल से ज्यादा उम्र की आदिवासी महिला सुकरी देवी का कहना है कि वो जब जवान थी, तभी से हम सब यहां रहते हैं. हालांकि सरकार ने अभी तक कोई लाभ नहीं दिया है. गांव जाते हैं तो मांग कर खाते हैं. पहले जंगल से जड़ी-बूटी लाकर बेचते थे लेकिन अब पहाड़ नहीं चढ़ पाते हैं. महिला ने कहा कि बेटा है वही जड़ी-बूटी तोड़कर लाता है, उसी को बेचकर खाते-पीते हैं. एक कोस दूर से पानी लाना पड़ता है. कोई नेता चापाकल भी नहीं बनवा देता है.

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नेताओं को बोलना भी मंहगा पड़ा है
जब एक महिला से पीने के पानी के लिए चापाकल और रहने के लिए प्रधानमंत्री आवास के बारे में पूछा तो वह गुस्सा गई. महिला ने कहा कि चापाकल चला-चलाकर बूढ़ी हो गई, क्या बोलें, बोलना भी महंगा पड़ता है. सब पता नहीं कहां-कहां से आते हैं देखने. कहते हैं आज बनाएगें, कल बनाएगें, परसो बनाएगें. रोज आधार कार्ड, वोटर कार्ड बनता है. सब दिन लिख-लिखकर ले जाएगें तो गुस्सा नहीं आएगा.

सरकारी सुविधाओं से वंचित
कौलाऔल के पंचायत सचिव बताते हैं कि इन आदिवासियों को हम करीब 40-45 वर्ष पहले से देखते आ रहे हैं. ये लोग जंगल के किनारे बसे हुए थे, वन विभाग ने इधर हटा दिया. ये लोग अभी 1-2 किलोमीटर से पीने का पानी लाती हैं. इन्हें अभी तक कोई सरकारी सुविधा नहीं मिल पाया है. इसके लिए मैंने कई बार आवाज भी उठाया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. पता नहीं सरकारी तंत्र में क्या खामियां है.

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संवाददाता राहुल की रिपोर्ट
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डीएम का बयान
वहीं, इस बारे में डीएम कौशल कुमार ने बताया कि इस बार चुनाव को देखते हुए सभी के वोटर कार्ड बनवाए गए हैं. इनके लिए कई सरकारी योजनाएं चलाई जा रही है.

जड़ी-बूटी बेचकर रोजी रोटी चलाते हैं
बिरहोर नाम से ही पता चलता है, जंगल का आदमी. बिर का अर्थ जंगल और होर का अर्थ आदमी. बिरहोर जनजाति में भी दो तरह के होते हैं. एक उथलू बिरहोर जो हमेशा स्थान बदलते रहते हैं, दूसरा जगही बिरहोर जो जंगल के किसी एक जगह को साफ-सुथरा कर रहते हैं और जंगलों से जड़ी-बूटी लाकर बेचकर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं.

जंगली इलाके में इनका निवास है
यह जनजाति खासकर झारखंड, छत्तीसगढ़ के जंगली इलाके में पाए जाते हैं. बिर का अर्थ होता है जंगल. इनके बारे में मान्यताएं हैं कि यह जिस पेड़ को छू देते हैं, उस पर बंदर भी नहीं चढ़ता. नवादा में यह जनजाति इसलिए है, क्योंकि जिले के कौलकोल प्रखंड झारखंड बॉर्डर से सटी हुई है और पहाड़ और जंगलों से घिरे हुए हैं.

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विलुप्त होने के कगार पर है बिरहोर जनजाति
प्राचीनकाल में घने जंगल होने के कारण जीवन जीने में कोई दिक्कतें नहीं होती थी. लेकिन, वनोन्मूलन के कारण इन्हें भोजन जुटाने में काफी कठिनाइयां होने लगी. अब वन से कंद-मूल, फल-फूल भी उतने नहीं मिल रहे हैं, जितना पहले मिल जाया करता था. इनके पास आधुनिक समय में काम आनेवाला कोई विशेष हुनर भी नहीं है. इस कारण काम के तलाश में प्रवास भी कर जाते हैं. संविधान ने आदिवासियों के रक्षा के लिए कई अधिकार दिए हैं, लेकिन यह भी अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुआ है.

शिक्षा की कमी के कारण अंधविश्वास बरकार
शिक्षा में कमी के कारण आज भी यह समाज अंधविश्वास में जकड़ी हुई है. जैसे, जब कोई महिला इनके यहां गर्भवती होती है और उनके प्रसव का समय आता है तो उसे घास-फूस से बने झाड़ियों के घर में रखा जाता है. बच्चे के जन्म के सात दिन बाद आरंभिक शुद्धि और 21 दिन बाद अंतिम शुद्घि किए जाने के बाद ही उसे पवित्र माना जाता है. प्रसूति को दर्द होने पर अस्पताल ले जाने के बजाय जड़ी-बूटी से काम चला लेता है.

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SC ने कहा- आदिवासी देश के मूल निवासी और मालिक हैं
सर्वोच्च न्यायालय ने 5 जनवरी 2011 को कैलाश एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार स्पेशल लीव पीटीशन (क्रिमनल) संख्या 10367 ऑफ 2010 के मामले में फैसला देते हुए कहा था कि आदिवासी ही भारत के मूल निवासी और देश के मालिक हैं. उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय हुआ है. अब उनके साथ और अन्याय नहीं होनी चाहिए.

आदिवासियों के साथ हो रहा भेदभाव
दुर्भाग्य है कि आज भी आदिवासियों के साथ भेदभाव किया जा रहा है. उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है. केंद्र व राज्य सरकार की ओर से हर घर बिजली, पानी, गैस मकान दिए जाने के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं. लेकिन, इन आदिवासियों को कुछ भी लाभ नहीं मिल पाया है. जबकि इनके पास वकायदा वोटर कार्ड है, आधार है.

सरकार करे पहल
राज्य सरकार को बिहार से विलुप्त हो रहे जनजाति को बचाने की पहल करनी चाहिए. इन्हें सभी सरकारी सुविधाएं उपलब्ध कराया जाना चाहिए.

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नवादा: न्यू इंडिया का सपना देखने वाले भारत को आजाद हुए 70 साल गुजर चुके हैं, लेकिन आदिवासी गांव बस्तियों की हालत अब भी चिंताजनक है. इस इलाके में अब तक न मकान हैं, न बिजली हैं, न पानी है और न ही कोई रोजगार.

नवादा जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी दूर कौलकोल प्रखंड अंतर्गत एक पंचायत है सेखोदौरा. इसी पंचायत में एक आदिवासी बस्ती है भेड़िया टांरि. इस बस्ती में बिरहोर जनजाति आदिवासी रहते हैं. जब आप यहां रहकर इनके रहन-सहन को देखेंगें तो आपको न्यू इंडिया का सपना शेखचिल्ली के सपनों जैसा दिखने लगेगा.

बुजुर्ग आदिवासी महिला ने क्या कहा
इस बस्ती में रहने वाली 100 साल से ज्यादा उम्र की आदिवासी महिला सुकरी देवी का कहना है कि वो जब जवान थी, तभी से हम सब यहां रहते हैं. हालांकि सरकार ने अभी तक कोई लाभ नहीं दिया है. गांव जाते हैं तो मांग कर खाते हैं. पहले जंगल से जड़ी-बूटी लाकर बेचते थे लेकिन अब पहाड़ नहीं चढ़ पाते हैं. महिला ने कहा कि बेटा है वही जड़ी-बूटी तोड़कर लाता है, उसी को बेचकर खाते-पीते हैं. एक कोस दूर से पानी लाना पड़ता है. कोई नेता चापाकल भी नहीं बनवा देता है.

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नेताओं को बोलना भी मंहगा पड़ा है
जब एक महिला से पीने के पानी के लिए चापाकल और रहने के लिए प्रधानमंत्री आवास के बारे में पूछा तो वह गुस्सा गई. महिला ने कहा कि चापाकल चला-चलाकर बूढ़ी हो गई, क्या बोलें, बोलना भी महंगा पड़ता है. सब पता नहीं कहां-कहां से आते हैं देखने. कहते हैं आज बनाएगें, कल बनाएगें, परसो बनाएगें. रोज आधार कार्ड, वोटर कार्ड बनता है. सब दिन लिख-लिखकर ले जाएगें तो गुस्सा नहीं आएगा.

सरकारी सुविधाओं से वंचित
कौलाऔल के पंचायत सचिव बताते हैं कि इन आदिवासियों को हम करीब 40-45 वर्ष पहले से देखते आ रहे हैं. ये लोग जंगल के किनारे बसे हुए थे, वन विभाग ने इधर हटा दिया. ये लोग अभी 1-2 किलोमीटर से पीने का पानी लाती हैं. इन्हें अभी तक कोई सरकारी सुविधा नहीं मिल पाया है. इसके लिए मैंने कई बार आवाज भी उठाया, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. पता नहीं सरकारी तंत्र में क्या खामियां है.

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संवाददाता राहुल की रिपोर्ट
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डीएम का बयान
वहीं, इस बारे में डीएम कौशल कुमार ने बताया कि इस बार चुनाव को देखते हुए सभी के वोटर कार्ड बनवाए गए हैं. इनके लिए कई सरकारी योजनाएं चलाई जा रही है.

जड़ी-बूटी बेचकर रोजी रोटी चलाते हैं
बिरहोर नाम से ही पता चलता है, जंगल का आदमी. बिर का अर्थ जंगल और होर का अर्थ आदमी. बिरहोर जनजाति में भी दो तरह के होते हैं. एक उथलू बिरहोर जो हमेशा स्थान बदलते रहते हैं, दूसरा जगही बिरहोर जो जंगल के किसी एक जगह को साफ-सुथरा कर रहते हैं और जंगलों से जड़ी-बूटी लाकर बेचकर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं.

जंगली इलाके में इनका निवास है
यह जनजाति खासकर झारखंड, छत्तीसगढ़ के जंगली इलाके में पाए जाते हैं. बिर का अर्थ होता है जंगल. इनके बारे में मान्यताएं हैं कि यह जिस पेड़ को छू देते हैं, उस पर बंदर भी नहीं चढ़ता. नवादा में यह जनजाति इसलिए है, क्योंकि जिले के कौलकोल प्रखंड झारखंड बॉर्डर से सटी हुई है और पहाड़ और जंगलों से घिरे हुए हैं.

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विलुप्त होने के कगार पर है बिरहोर जनजाति
प्राचीनकाल में घने जंगल होने के कारण जीवन जीने में कोई दिक्कतें नहीं होती थी. लेकिन, वनोन्मूलन के कारण इन्हें भोजन जुटाने में काफी कठिनाइयां होने लगी. अब वन से कंद-मूल, फल-फूल भी उतने नहीं मिल रहे हैं, जितना पहले मिल जाया करता था. इनके पास आधुनिक समय में काम आनेवाला कोई विशेष हुनर भी नहीं है. इस कारण काम के तलाश में प्रवास भी कर जाते हैं. संविधान ने आदिवासियों के रक्षा के लिए कई अधिकार दिए हैं, लेकिन यह भी अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुआ है.

शिक्षा की कमी के कारण अंधविश्वास बरकार
शिक्षा में कमी के कारण आज भी यह समाज अंधविश्वास में जकड़ी हुई है. जैसे, जब कोई महिला इनके यहां गर्भवती होती है और उनके प्रसव का समय आता है तो उसे घास-फूस से बने झाड़ियों के घर में रखा जाता है. बच्चे के जन्म के सात दिन बाद आरंभिक शुद्धि और 21 दिन बाद अंतिम शुद्घि किए जाने के बाद ही उसे पवित्र माना जाता है. प्रसूति को दर्द होने पर अस्पताल ले जाने के बजाय जड़ी-बूटी से काम चला लेता है.

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SC ने कहा- आदिवासी देश के मूल निवासी और मालिक हैं
सर्वोच्च न्यायालय ने 5 जनवरी 2011 को कैलाश एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार स्पेशल लीव पीटीशन (क्रिमनल) संख्या 10367 ऑफ 2010 के मामले में फैसला देते हुए कहा था कि आदिवासी ही भारत के मूल निवासी और देश के मालिक हैं. उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय हुआ है. अब उनके साथ और अन्याय नहीं होनी चाहिए.

आदिवासियों के साथ हो रहा भेदभाव
दुर्भाग्य है कि आज भी आदिवासियों के साथ भेदभाव किया जा रहा है. उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है. केंद्र व राज्य सरकार की ओर से हर घर बिजली, पानी, गैस मकान दिए जाने के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं. लेकिन, इन आदिवासियों को कुछ भी लाभ नहीं मिल पाया है. जबकि इनके पास वकायदा वोटर कार्ड है, आधार है.

सरकार करे पहल
राज्य सरकार को बिहार से विलुप्त हो रहे जनजाति को बचाने की पहल करनी चाहिए. इन्हें सभी सरकारी सुविधाएं उपलब्ध कराया जाना चाहिए.

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Intro:नवादा। न्यू इंडिया का सपना देखनेवाला भारत देश को आजाद हुए 70 साल गुजर चुके हैं मगर आदिवासी गांव बस्तियों की हालत अब भी चिंताजनक है। इस इलाके में न अब तक, न मकान है, न बिजली है, न पानी है और न ही कोई रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएं हैं। अब तक न इनके हालात को न डुप्लीकेट गांधी ही संभाल पाए और न नसीबवाले पीएम।




Body:नवादा जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी दूर कौलकोल प्रखंड अंतर्गत एक पंचायत है सेखोदौरा। इसी पंचायत में एक आदिवासी बस्ती है भेड़िया टांरि । इस बस्ती में बिरहोर जनजाति आदिवासी रहते हैं। जब आप यहां पहुंचते ही इनके अभाव में रहकर रहन-सहन को देखेंगें तो आपको न्यू इंडिया का सपना शेखचिल्ली के सपनों जैसा दिखनें लगेगा।

इस बस्ती में रहनेवाली बुजुर्ग आदिवासी महिला सुकरी देवी (100 वर्ष से ऊपर) बताती है, जब जुआन थे तभी से यहां रहते हैं। सरकार ने कहां कुछ अभी तक लाभ दिया है बेटा। गांव जाते हैं तो मांग-चांग के खाते हैं। जंगल से जड़ी-बूटी लाकर बेचते थे वो अब पहाड़ नहीं चढ़ पाते हैं। बेटा है वही जड़ी-बूटी तोड़कर लाता है उसी को बेचकर खाता-पीता हूँ। एक कोस दूर से पानी लाना पड़ता है। चापाकल भी नहीं बना देता है। नेता-लीडर की आने-जाने की बात पर कहती है यहां पर कोई नहीं आता।

वहीं, जब एक और महिला से जब पीने के पानी के लिए चापाकल और रहने के लिए प्रधानमंत्री आवास के बारे में पूछने पर गुस्सा भरे लहज़े में कहती है चापाकल चला-चलाकर बूढ़ी हो गई और मकान में सूतते-सूतते जवान हो गई। क्या बोलें। बोलना भी महंगा पड़ता है। सब पता नहीं कहाँ -कहाँ से आते हैं देखने। कहते हैं आज बनायेंगें, कल बनायेंगें, परसो बनाएगें। रोज आधार कार्ड, वोटर कार्ड बनता है। सब दिन लिख-लिखकर ले जायेगें तो गुस्सा नहीं आएगा।

इन आदिवासियों के बारे में बताते हैं कि, इन्हें हम करीब 40-45 वर्ष पहले से देखते आ रहे हैं ये लोग और जंगल के किनारे बसा हुआ था वन विभाग ने इधर हटा दिया। ये लोग अभी 1-2 किमी से पीने का पानी लाती है। इसे अभी तक कोई सरकारी सुविधा नहीं मिल पाया है। इसके लिए मैंने कई बार आवाज भी उठाया लेकिन उसपे कोई कार्रवाई नहीं हुई। पता नही सरकारी तंत्र में क्या खामियां। हमलोग जागरूक है तो कर नहीं पाते हैं।

वहीं, इस बारे में जब डीएम कौशल कुमार सवाल पूछे गए तो उन्होंने कहा,

बिरहोर जनजाति

बिरहोर जैसा कि नाम से ही पता चल जाता है कि यह जंगल का आदमी है। बिर का अर्थ जंगल और होर का अर्थ आदमी। बिरहोर जनजाति में भी दो तरह के होते हैं। एक उथलू बिरहोर जो हमेशा स्थान बदलते रहते हैं दूसरा जगही बिरहोर जो जंगल के किसी एक जगह साफ-सुथरा कर रहते हैं और जंगलों से जड़ी-बूटी लाकर बेचकर अपनी रोजी रोटी चलाते हैं। जनजाति खासकर झारखंड, छत्तीसगढ़ के जंगली इलाके में पाए जाते हैं। बिर का अर्थ होता है जंगलइनके बारे में मान्यताएं हैं कि यह जिस पेड़ को छू देते हैं उसपे बंदर भी नहीं चढ़ता। नवादा में इन जनजातियों का होना इसलिए है क्योंकि जिले के कौलकोल प्रखंड झारखंड बॉर्डर से सटी हुई है और पहाड़ और जंगलों से घिरे हुए हैं।

नवादा में विलुप्त होने के कगार पर है बिरहोर जनजाति

प्राचीनकाल में घने जंगल होने के कारण जीवन जीने में कोई दिक्कतें नहीं होती थी लेकिन वनोन्मूलन के कारण इन्हें भोजन जुटाने में काफी कठिनाइयां होने लगी। अब वन से कंद-मूल, फल-फूल भी उतने नहीं मिल रहे हैं जितना पहले मिल जाया करता था। इनके पास आधुनिक समय में काम आनेवाले कोई विशेष हुनर भी नहीं है। जिसके कारण काम के तलाश में प्रवास भी कर जाते हैं। संविधान ने आदिवासियों के रक्षा के लिए कई अधिकार दिए हैं लेकिन यह भी अभी तक हवा-हवाई ही साबित हुए हैं।

शिक्षा की कमी के कारण अंधविश्वास बरकार

शिक्षा में कमी के कारण आज भी यह समाज अंधविश्वास में जकड़ी हुई है। जैसे, जब कोई महिला इनके यहां गर्भवती होती है और उनके प्रसव का समय आता है तो उसे घास-फूस से बने झाड़ियों में घर मे रखा जाता है। बच्चे के जन्म के 7 दिन बाद आरंभिक शुद्धि और 21 दिन बाद अंतिम शुद्घि किए जाने के पश्चात उसे पवित्र माना जाता है। प्रसूति को दर्द होने पर अस्पताल ले जाने के वजाय जड़ी-बूटी से काम चला लेता है।

SC ने कहा- आदिवासी लोग देश के मूल निवासी और मालिक है

उच्चत्तम न्यायालय ने 5 जनवरी 2011 को कैलाश एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र सरकार स्पेशल लीव पीटीशन (क्रिमनल) संख्या 10367 ऑफ 2010 के मामले में फैसला देते हुए यह कहा था कि, आदिवासी लोग ही भारत के मूल निवासी और देश का मालिक है। उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय हुआ है। अब उनके साथ और अन्याय नहीं होनी चाहिए।




Conclusion:लेकिन दुर्भाग्य है कि आज भी आदिवासियों के साथ भेदभाव किया जा रहा है उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है। केंद्र व राज्य सरकार की ओर से हर घर बिजलीं, पानी, गैस मकान दिए जाने की बड़े -बड़े दावे किए जा रहे हैं लेकिन इन आदिवसियों को कुछ भी लाभ नहीं मिल पाया है। जबकि इनके पास वकायदा वोटर आईडी कार्ड है, आधार है। राज्य की सरकार को चाहिए कि बिहार से विलुप्त होते जा रहे इस जनजाति को बचाए और इन्हें सभी सरकारी सुविधाएं उपलब्ध कराएं। अगर ऐसा करने में सरकार विफल रहती है तो सबका साथ सबका विकास के दावे खोखले साबित होंगे।








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