कैमूरः जिले में बांस के कारीगरों का जीवन बदहाल है. बिहार के महापर्व छठ का इंतजार इन करीगरों को बड़े उत्साह के साथ रहता है. क्योंकि छठ पर्व को सूप और टोकरी के बिना अधूरा माना जाता है. बिहार के तकरीबन सभी हिस्सों में इसका निर्माण दलित बस्ती के लोग ही करते हैं. यही वजह कि अपने परिवार को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने के लिए ये लोग छठ पर्व का खास इंतजार करते हैं.
सालो भर रहता है छठ का इंंतजार
छठ महापर्व 31 अक्टूबर से शुरू होने वाला है और बाजार में इसकी तैयारी भी शुरू हो गई है. छठ के इस महापर्व में किसी खास वर्ग के लोगों की जिंदगी बांस से बने सूप, डगरा और टोकरी पर टिकी होती है. हालांकि यह परिवार सालो भर बांस से बने इन बर्तनों को बेचते है. लेकिन छठ में इसका महत्व सबसे अधिक होता है.
मेहनत के अनुसार नहीं मिलता वाजिब दाम
आज के इस आधुनिक दौर में भी इस कारीगरों को उनकी मेहनत के अनुसार वाजिब दाम नहीं मिल पाता है. भभुआ प्रखंड स्तिथ अखलासपुर गांव में रहने वाले पिछड़े और दलित समाज के लगभग 7 घरों के लोग बांस से सूप का निर्माण करते हैं और इसे छठ पूजा में बेचते हैं.
एक दिन में कारीगर बनाते हैं 5 से 6 सूप
कारीगर विनोद डोम ने बताया कि एक दिन का पूरा समय तो एक कच्चे बांस को छीलकर कमाची बनाने में लग जाता है. इसके बाद उसे धूप में सुखाया जाता है. इतना सब होने के बाद तीसरे दिन अपने परिवार वालों के साथ मिलकर एक दिन में 5 से 6 सूप का निर्माण करते है. उन्होंने बताया गरीबी के कारण ये लोग ज्यादा बांस नहीं खरीद पाते हैं, इसलिए गांव के हर घरों में उनके समाज के लोग छठ को देखते हुए 60 से 80 सूप का ही निर्माण कर पाते हैं.
कारीगरों ने सरकार से लगाई गुहार
विनोद ने बताया कि एक बांस की कीमत 250 से कम नहीं होती है. 250 रुपये लगाने के बाद 700-800 रुपये का मुनाफा होता है. कभी कभी बांस नहीं मिलता है तो बगल के जिले से पैदल जाकर बांस लाते हैं और फिर निर्माण का कार्य करते हैं. दूसरी तरफ विनोद का परिवार भूमिहीन है, इसलिए कोई सरकारी लाभ भी इन्हें नहीं मिलता है. इस परिवार का तो बीपीएल कार्ड तक नहीं बन सका है. ऐसे में यह परिवार सरकार से गुहार लगा रहा है कि अगर सरकार उनकी मदद करे तो उनकी जिंदगी भी सुधर जाएगी.