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छठ पूजा के लिए बनने लगी सूप और टोकरी, लेकिन बदहाल है बांस कारीगरों का जीवन

यहां के बांस कारीगर भूमिहीन हैं, इसलिए कोई सरकारी लाभ भी इन्हें नहीं मिलता है. कारीगरों के पास बीपीएल कार्ड तक नहीं है. ऐसे में यह परिवार सरकार से गुहार लगा रहा है कि अगर सरकार उनकी मदद करे तो उनकी जिंदगी भी सुधर जाएगी.

सूप बनाते कारीगर
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Published : Oct 28, 2019, 3:13 PM IST

Updated : Oct 28, 2019, 6:09 PM IST

कैमूरः जिले में बांस के कारीगरों का जीवन बदहाल है. बिहार के महापर्व छठ का इंतजार इन करीगरों को बड़े उत्साह के साथ रहता है. क्योंकि छठ पर्व को सूप और टोकरी के बिना अधूरा माना जाता है. बिहार के तकरीबन सभी हिस्सों में इसका निर्माण दलित बस्ती के लोग ही करते हैं. यही वजह कि अपने परिवार को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने के लिए ये लोग छठ पर्व का खास इंतजार करते हैं.

सालो भर रहता है छठ का इंंतजार
छठ महापर्व 31 अक्टूबर से शुरू होने वाला है और बाजार में इसकी तैयारी भी शुरू हो गई है. छठ के इस महापर्व में किसी खास वर्ग के लोगों की जिंदगी बांस से बने सूप, डगरा और टोकरी पर टिकी होती है. हालांकि यह परिवार सालो भर बांस से बने इन बर्तनों को बेचते है. लेकिन छठ में इसका महत्व सबसे अधिक होता है.

kaimur
छठ के लिए सूप बनाती महिला

मेहनत के अनुसार नहीं मिलता वाजिब दाम
आज के इस आधुनिक दौर में भी इस कारीगरों को उनकी मेहनत के अनुसार वाजिब दाम नहीं मिल पाता है. भभुआ प्रखंड स्तिथ अखलासपुर गांव में रहने वाले पिछड़े और दलित समाज के लगभग 7 घरों के लोग बांस से सूप का निर्माण करते हैं और इसे छठ पूजा में बेचते हैं.

छठ पूजा के लिए बनने लगी सूप और टोकरी

एक दिन में कारीगर बनाते हैं 5 से 6 सूप
कारीगर विनोद डोम ने बताया कि एक दिन का पूरा समय तो एक कच्चे बांस को छीलकर कमाची बनाने में लग जाता है. इसके बाद उसे धूप में सुखाया जाता है. इतना सब होने के बाद तीसरे दिन अपने परिवार वालों के साथ मिलकर एक दिन में 5 से 6 सूप का निर्माण करते है. उन्होंने बताया गरीबी के कारण ये लोग ज्यादा बांस नहीं खरीद पाते हैं, इसलिए गांव के हर घरों में उनके समाज के लोग छठ को देखते हुए 60 से 80 सूप का ही निर्माण कर पाते हैं.

kaimur
जानकारी देती महिला कारिगर

कारीगरों ने सरकार से लगाई गुहार
विनोद ने बताया कि एक बांस की कीमत 250 से कम नहीं होती है. 250 रुपये लगाने के बाद 700-800 रुपये का मुनाफा होता है. कभी कभी बांस नहीं मिलता है तो बगल के जिले से पैदल जाकर बांस लाते हैं और फिर निर्माण का कार्य करते हैं. दूसरी तरफ विनोद का परिवार भूमिहीन है, इसलिए कोई सरकारी लाभ भी इन्हें नहीं मिलता है. इस परिवार का तो बीपीएल कार्ड तक नहीं बन सका है. ऐसे में यह परिवार सरकार से गुहार लगा रहा है कि अगर सरकार उनकी मदद करे तो उनकी जिंदगी भी सुधर जाएगी.

kaimur
सूप बनाता कारीगर

कैमूरः जिले में बांस के कारीगरों का जीवन बदहाल है. बिहार के महापर्व छठ का इंतजार इन करीगरों को बड़े उत्साह के साथ रहता है. क्योंकि छठ पर्व को सूप और टोकरी के बिना अधूरा माना जाता है. बिहार के तकरीबन सभी हिस्सों में इसका निर्माण दलित बस्ती के लोग ही करते हैं. यही वजह कि अपने परिवार को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने के लिए ये लोग छठ पर्व का खास इंतजार करते हैं.

सालो भर रहता है छठ का इंंतजार
छठ महापर्व 31 अक्टूबर से शुरू होने वाला है और बाजार में इसकी तैयारी भी शुरू हो गई है. छठ के इस महापर्व में किसी खास वर्ग के लोगों की जिंदगी बांस से बने सूप, डगरा और टोकरी पर टिकी होती है. हालांकि यह परिवार सालो भर बांस से बने इन बर्तनों को बेचते है. लेकिन छठ में इसका महत्व सबसे अधिक होता है.

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छठ के लिए सूप बनाती महिला

मेहनत के अनुसार नहीं मिलता वाजिब दाम
आज के इस आधुनिक दौर में भी इस कारीगरों को उनकी मेहनत के अनुसार वाजिब दाम नहीं मिल पाता है. भभुआ प्रखंड स्तिथ अखलासपुर गांव में रहने वाले पिछड़े और दलित समाज के लगभग 7 घरों के लोग बांस से सूप का निर्माण करते हैं और इसे छठ पूजा में बेचते हैं.

छठ पूजा के लिए बनने लगी सूप और टोकरी

एक दिन में कारीगर बनाते हैं 5 से 6 सूप
कारीगर विनोद डोम ने बताया कि एक दिन का पूरा समय तो एक कच्चे बांस को छीलकर कमाची बनाने में लग जाता है. इसके बाद उसे धूप में सुखाया जाता है. इतना सब होने के बाद तीसरे दिन अपने परिवार वालों के साथ मिलकर एक दिन में 5 से 6 सूप का निर्माण करते है. उन्होंने बताया गरीबी के कारण ये लोग ज्यादा बांस नहीं खरीद पाते हैं, इसलिए गांव के हर घरों में उनके समाज के लोग छठ को देखते हुए 60 से 80 सूप का ही निर्माण कर पाते हैं.

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जानकारी देती महिला कारिगर

कारीगरों ने सरकार से लगाई गुहार
विनोद ने बताया कि एक बांस की कीमत 250 से कम नहीं होती है. 250 रुपये लगाने के बाद 700-800 रुपये का मुनाफा होता है. कभी कभी बांस नहीं मिलता है तो बगल के जिले से पैदल जाकर बांस लाते हैं और फिर निर्माण का कार्य करते हैं. दूसरी तरफ विनोद का परिवार भूमिहीन है, इसलिए कोई सरकारी लाभ भी इन्हें नहीं मिलता है. इस परिवार का तो बीपीएल कार्ड तक नहीं बन सका है. ऐसे में यह परिवार सरकार से गुहार लगा रहा है कि अगर सरकार उनकी मदद करे तो उनकी जिंदगी भी सुधर जाएगी.

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सूप बनाता कारीगर
Intro:
कैमूर।

जिले में बांस के कारीगरों की जीवन बदहाल हो गई हैं। बिहार के महापर्व छठ का इंतजार इन करोगरों को बड़े उत्साह के साथ रहता हैं क्योंकि छठ पर्व को सूप और डगरा के बिना अधूरा माना जाता हैं। इन खास वर्ग के लोगों को तो इस पर्व का इंतज़ार सिर्फ अपने परिवार को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने के लिए होता हैं। बिहार का महापर्व छठ की कल्पना सूप और डगरा के बिना नही की जा सकती हैं। जबकि बिहार के लगभग सभी हिस्सों में इसका निर्माण दलित बस्ती में खास वर्ग के लोगों द्वारा किया जाता हैं। छठ महापर्व सामाजिक एकता का बेजोड़ उदाहरण हैं इस पर्व में लोग जाति धर्म और समाज से उठकर भगवान भास्कर या यूं कहें तो प्राकृतिक की पूजा करते हैं।


Body:आपकों बतादें कि छठ का महापर्व 31 अक्टूबर को शुरू होने वाला हैं और बाजार में इसकी तैयारी भी शुरू हो गई हैं हालांकि कारीगरों को जिंदगी आज भी अंधकार में हैं।

छठ के इस महापर्व में किसी खास वर्ग के लोगों द्वारा बांस से बनी सूप, डगरा और टोकरी पर जिंदगी टिकी होती हैं। हालांकि यह परिवार सालोभर बांस से बने इन बर्तनों को बेचते हैं लेकिन छठ में इसका महत्व सबसे अधिक होता हैं।

लेकिन आज के इस आधुनिक दौर में भी इस कारीगरों को उनकी मेहनत के अनुसार वाजिब दाम नही मिल पाता हैं। भभुआ प्रखंड स्तिथ अखलासपुर गांव में रहने वालों पिछड़े और दलित समाज के लगभग 7 घरों के लोगों द्वारा बांस से सूप का निर्माण किया जाता हैं जिसे छठ पूजा में बेचते हैं।


कारीगर विनोद डोम ने बताया एक दिन का पूरा समय तो एक कच्चे बांस को छीलकर कमाची बनाने में लग जाता हैं। जिसके बाद उसे धूप में सुखाया जाता हैं। इतना सब होने के बाद तीसरे दिन अपनी पत्नी के साथ मिलकर एक दिन में 5 से 6 सूप का निर्माण करते हैं। उन्होंने बताया गरीबी के कारण ज्यादा बांस नही खरीद पाते हैं इसलिए गांव के प्रत्येक घरों में उनके समाज के लोगों छठ को देखते हुए 60 से 80 सूप का ही निर्माण कर पाते हैं। उन्होंने बताया कि बाजार में एक बांस की कीमत 250 से कम की नही होती हैं। 250 कि पूंजी लगाने के बाद 700- 800 का काम होता हैं। कभी कभी तो बांस नही मिलता हैं तो बगल के जिले से पैदल जाकर बांस लाते हैं और निर्माण कार्य करते हैं।

दूसरी तरह विनोद का परिवार भूमिहीन हैं इसलिए कोई सरकारी लाभ भी इन्हें नही मिलता हैं। इस परिवार का तो बीपीएल कार्ड तक नही बन सका हैं। ऐसे में सरकार से यह परिवार यही गुहार लगा रहा हैं कि यदि सरकार उनकी मदद करें तो उनके हुनर को नई पहचान मिल जाएगी।



Conclusion:
Last Updated : Oct 28, 2019, 6:09 PM IST
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