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संवैधानिक अधिकार के बावजूद बुनियादी सुविधाओं से वंचित है आदिवासी समाज

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Published : Apr 17, 2019, 3:18 PM IST

बिहार के जमुई जिले के आदिवासियों की स्थिति बदहाल है. इनके पास ना तो रोजगार है और ना ही कृषि योग्य भूमि. लिहाजा, ये दातून बेचकर अपनी जिंदगी काट रहे हैं.

bad status of tribals of bihar

जमुई: संविधान ने आदिवासियों के संरक्षण का जिम्मा सरकार को सौंपा था, लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी इनके जन-जीवन में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. आज भी जमुई जिले में रह रहे आदिवासी दातून की लकड़ी काटकर राजधानी पटना में बेचने के लिए मजबूर हैं. इसी से वो अपना गुजर बसर कर रहे हैं.

रोजाना जमुई रेलवे स्टेशन पर आदिवासी दातून की लकड़ी का गट्ठा लेकर राजधानी पटना जाते हैं. इनका कहना है कि इसे बेचकर वो अपने पूरे परिवार का भरण पोषण करते हैं. उनके पास ना तो रोजगार है, ना ही कृषि योग्य भूमि है. जिससे की वो अपने परिवार का भरण-पोषण या गुजर बसर कर सकें. ऐसे में जिले के लक्ष्मीपुर ब्लॉक और बालक ब्लॉक से आए ये तमाम आदिवासी बस ऐसे ही दातून बेच-बेचकर गुजर बसर कर रहे हैं.

जमुई स्टेशन पर से जानकारी देते संवाददाता

कौन डाल रहा डाका
आजादी से पहले आदिवासी स्वतंत्र रूप से रहते थे. ब्रिटिश शासन और प्रशासन का भी उन पर हुकुम नहीं चलाता था. लिहाजा, जब देश आजाद हुआ और 1950 में संविधान का निर्माण हो रहा था. तब संविधान निर्माताओं ने आदिवासियों की बेहतरी के लिए अनुच्छेद 5 में कुछ मुख्य बिंदु रखें. आदिवासी की सुरक्षा संरक्षण और विकास जैसी मुख्य बुनियादी व्यवस्था संविधान में रखी गई, ताकि आदिवासियों की तरक्की और उनके जीवन में बेहतरी लायी जा सके.

मंत्रालय का क्या काम
हालांकि, आदिवासियों की बेहतरी के लिए भारत सरकार में एक मंत्रालय भी है. उसमें आदिवासियों की बेहतरी के लिए तमाम बातें भी कही गई है और संवैधानिक अधिकार उन्हें दिलाने की बात पर जोर भी दिए जा रहा है. बावजूद इसके आदिवासियों का जनजीवन जस का तस है. अब देखना होगा कि आखिर कब इन्हें समानता का अधिकार मिल पाता है. कब इनकी जिंदगी में दुनिया की सतरंगी रोशनी पड़ती है.

जमुई: संविधान ने आदिवासियों के संरक्षण का जिम्मा सरकार को सौंपा था, लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी इनके जन-जीवन में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. आज भी जमुई जिले में रह रहे आदिवासी दातून की लकड़ी काटकर राजधानी पटना में बेचने के लिए मजबूर हैं. इसी से वो अपना गुजर बसर कर रहे हैं.

रोजाना जमुई रेलवे स्टेशन पर आदिवासी दातून की लकड़ी का गट्ठा लेकर राजधानी पटना जाते हैं. इनका कहना है कि इसे बेचकर वो अपने पूरे परिवार का भरण पोषण करते हैं. उनके पास ना तो रोजगार है, ना ही कृषि योग्य भूमि है. जिससे की वो अपने परिवार का भरण-पोषण या गुजर बसर कर सकें. ऐसे में जिले के लक्ष्मीपुर ब्लॉक और बालक ब्लॉक से आए ये तमाम आदिवासी बस ऐसे ही दातून बेच-बेचकर गुजर बसर कर रहे हैं.

जमुई स्टेशन पर से जानकारी देते संवाददाता

कौन डाल रहा डाका
आजादी से पहले आदिवासी स्वतंत्र रूप से रहते थे. ब्रिटिश शासन और प्रशासन का भी उन पर हुकुम नहीं चलाता था. लिहाजा, जब देश आजाद हुआ और 1950 में संविधान का निर्माण हो रहा था. तब संविधान निर्माताओं ने आदिवासियों की बेहतरी के लिए अनुच्छेद 5 में कुछ मुख्य बिंदु रखें. आदिवासी की सुरक्षा संरक्षण और विकास जैसी मुख्य बुनियादी व्यवस्था संविधान में रखी गई, ताकि आदिवासियों की तरक्की और उनके जीवन में बेहतरी लायी जा सके.

मंत्रालय का क्या काम
हालांकि, आदिवासियों की बेहतरी के लिए भारत सरकार में एक मंत्रालय भी है. उसमें आदिवासियों की बेहतरी के लिए तमाम बातें भी कही गई है और संवैधानिक अधिकार उन्हें दिलाने की बात पर जोर भी दिए जा रहा है. बावजूद इसके आदिवासियों का जनजीवन जस का तस है. अब देखना होगा कि आखिर कब इन्हें समानता का अधिकार मिल पाता है. कब इनकी जिंदगी में दुनिया की सतरंगी रोशनी पड़ती है.

Intro:आजादी के 70 साल बाद भी बदहाली की आंसू रो रहे हैं जिले के आदिवासी

ANC- संविधान ने आदिवासियों के संरक्षण का जिम्मा सरकार को सौंपा था, लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी आदिवासियों की जन जीवन में कोई खास बदलाव नहीं हुआ आज भी जमुई जिले में रह रहे आदिवासी दातुन की लकड़ी काटकर राजधानी पटना में बेचने के लिए मजबूर है,और अपना गुजर बसर कर रहे हैं




Body:दातून बेचकर यहां के आदिवासी करते हैं अपना गुजर बसर

VO- जमुई रेलवे स्टेशन पर बैठे यह आदिवासी दरअसल दांतो के गट्ठा लेकर राजधानी पटना जा रहे हैं आदिवासियों का कहना है कि इस बातों को बेचकर वह अपने पूरे परिवार का भरण पोषण करते हैं दातों बेच रहे इन आदिवासियों का कहना है कि उनके पास ना तो रोजगार है ना ही कृषि योग्य भूमि है जिससे कि वह अपने परिवार का भरण-पोषण या गुजर बसर कर सकें ऐसे में जिले के लक्ष्मीपुर ब्लाक और बालक ब्लाक से आए यह तमाम आदिवासी लकड़ी सकवा का टहनी काटकर घटा बनाते हैं और फिर राजधानी पटना ले जाकर इसे दातुन के रूप में बेचते हैं जिसके बाद इन्हें कुछ आमदनी होती है और उस पैसे से अपना परिवार चलाते हैं

आखिर आदिवासियों के हाथ पर कौन डाल रहा है डाका?

आजादी से पहले आदिवासी स्वतंत्र रूप से रहते थे ब्रिटिश शासन और प्रशासन उन पर हुकुम नहीं चलाता था ,लिहाजा जब देश आजाद हुआ और 1950 में जब संविधान का निर्माण हो रहा था तब संविधान निर्माताओं ने आदिवासियों की बेहतरी के लिए अनुच्छेद 5 में कुछ मुख्य बिंदु रखें ।आदिवासी की सुरक्षा संरक्षण और विकास जैसी मुख्य बुनियादी व्यवस्था संविधान में रखा गया ताकि आदिवासियों की तरक्की और उनके जन्म जीवन में बेहतरीन लाया जा सके।

हालांकि आदिवासियों की बेहतरी के लिए भारत सरकार में एक मंत्रालय भी है बजाते उसमें आदिवासियों के आदिवासियों की बेहतरी के लिए तमाम बातें भी कही गई है और संवैधानिक अधिकार उन्हें दिलाने की बात पर जोर भी दी जा रही है साथ ही तमाम राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने पार्टी में सिविल क्राइम मोर्चा का भी निर्माण किए हैं बावजूद आदिवासियों की जनजीवन जस का तस पड़ा हुआ है।


Conclusion: आदिवासियों की बदहाल जीवन के लिए कौन है जिम्मेदार?

आदिवासियों के को सुरक्षा के साथ साथ उनके जन जीवन में बेहतर ही लाया जा सके इसके लिए उन्हें संविधान के अनुच्छेद 5 में मुख्य रुप से आदिवासियों की सुरक्षा संरक्षण और विकास की बातें तो कहीं गई लेकिन संवैधानिक बातों को अमलीजामा पहनाने में 70 साल से भी ज्यादा लग गए हैं बावजूद अभी भी आदिवासियों की जीवन बदहाल है आदिवासियों का जनजीवन जस का तस है आदिवासियों के जीवन में कोई खासा बदलाव नहीं हो रहा है इससे लगता है कि आदिवासियों के लिए जो संवैधानिक अधिकार है उसे अमली जामा पहनाने में कहीं ना कहीं सरकार से लेकर प्रशासन तक विफल रहा है

ईटीवी भारत के लिए जमुई से ब्रजेंद्र नाथ झा
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