जमुई: संविधान ने आदिवासियों के संरक्षण का जिम्मा सरकार को सौंपा था, लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी इनके जन-जीवन में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है. आज भी जमुई जिले में रह रहे आदिवासी दातून की लकड़ी काटकर राजधानी पटना में बेचने के लिए मजबूर हैं. इसी से वो अपना गुजर बसर कर रहे हैं.
रोजाना जमुई रेलवे स्टेशन पर आदिवासी दातून की लकड़ी का गट्ठा लेकर राजधानी पटना जाते हैं. इनका कहना है कि इसे बेचकर वो अपने पूरे परिवार का भरण पोषण करते हैं. उनके पास ना तो रोजगार है, ना ही कृषि योग्य भूमि है. जिससे की वो अपने परिवार का भरण-पोषण या गुजर बसर कर सकें. ऐसे में जिले के लक्ष्मीपुर ब्लॉक और बालक ब्लॉक से आए ये तमाम आदिवासी बस ऐसे ही दातून बेच-बेचकर गुजर बसर कर रहे हैं.
कौन डाल रहा डाका
आजादी से पहले आदिवासी स्वतंत्र रूप से रहते थे. ब्रिटिश शासन और प्रशासन का भी उन पर हुकुम नहीं चलाता था. लिहाजा, जब देश आजाद हुआ और 1950 में संविधान का निर्माण हो रहा था. तब संविधान निर्माताओं ने आदिवासियों की बेहतरी के लिए अनुच्छेद 5 में कुछ मुख्य बिंदु रखें. आदिवासी की सुरक्षा संरक्षण और विकास जैसी मुख्य बुनियादी व्यवस्था संविधान में रखी गई, ताकि आदिवासियों की तरक्की और उनके जीवन में बेहतरी लायी जा सके.
मंत्रालय का क्या काम
हालांकि, आदिवासियों की बेहतरी के लिए भारत सरकार में एक मंत्रालय भी है. उसमें आदिवासियों की बेहतरी के लिए तमाम बातें भी कही गई है और संवैधानिक अधिकार उन्हें दिलाने की बात पर जोर भी दिए जा रहा है. बावजूद इसके आदिवासियों का जनजीवन जस का तस है. अब देखना होगा कि आखिर कब इन्हें समानता का अधिकार मिल पाता है. कब इनकी जिंदगी में दुनिया की सतरंगी रोशनी पड़ती है.