गोपालगंजः प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों की लापरवाही और मानवीय गलतियों के कई किस्से अक्सर सुनने को मिल जाते हैं. एक बार फिर जिला प्रशासन की बड़ी भूल उजागर हुई है, जहां आजादी के एक महानायक को डाकू बना दिया गया.
दरअसल, गोपालगंज जिला प्रशासन के ऑफिशियल वेबसाइट पर आजादी के महानायक हुस्सेपुर के महाराज फतेह बहादुर शाही को डकैत नाम से संबोधित किया गया है. जिसके बाद जिले के बुद्धिजीवियों में आक्रोश है. वहीं इस मामले पर डीएम अरशद अजीज ने तत्काल गलती को सुधारने की बात कही है.
ब्रिटिश हुकूमत ने रखा था 20 हजार का इनाम
जिस महानायक को गोपालगंज जिला प्रशासन के ऑफिशियल वेबासाइट पर डकैत शब्द से संबोधित किया गया है. उसे ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार करने के लिए 20 हजार का इनाम रखा था. इतिहासकारों का कहना है कि 9 अगस्त 1925 को देश के क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती की थी. काकोरी कांड में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, पंडित चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला शामिल थे. तो क्या वे डाकू थे. 1929 में 8 अप्रैल को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बम फेंका था तो क्या वे आतंकवादी हो गए.
भाई की हत्या करने की बताई गई अधूरी कहानी
गोपालगंज जिला प्रशासन का सरकारी वेबसाइट पेज के चौथे कॉलम पर्यटन में फतेह बहादुर शाही को एक डाकू नाम से संबोधित किया गया है. जिसमें लिखा है कि पूर्व में हुस्सेपुर हथुआ महाराजाओं का कार्यक्षेत्र हुआ करता था. फतेह बहादुर शाही जो कि बसंत शाही के चचेरे भाई और डाकू थे उन्होंने बसंत शाही की हत्या कर दी थी. ये हत्या उन्होंने आंदोलन के बारे में जानकारी पाने और ईस्ट इंडिया कंपनी को मदद पहुंचाने के लिए की थी.
जबकि सच्चाई ये है कि अंग्रेजों से युद्ध के दौरान ही उनके चचेरे भाई बसंत शाही 1788 में ईस्ट इंडिया कंपनी से महाराजा फतेह बहादुर शाही के विद्रोह मिशन की मुखबिरी करने लगे. इसकी जानकारी मिलने पर फतेह बहादुर शाही ने बसंत शाही की हत्या की थी.
अंग्रेजों ने तबाह किया था बहादुर शाही का राज्य
इतिहासकारों की मानें तो हुस्सेपुर वर्तमान गोपालगंज जिले का एक गांव है. जहां के महाराज फतेह बहादुर शाही से नाम करने की मांग की गई थी. साथ ही कंपनी की अधीनता स्वीकार करने की बात की गई. फतेह बहादुर शाही ने दोनों बातें मानने से इनकार कर दिया. 1768 में महाराज फतेह बहादुर शाही अंग्रेजों से विद्रोह करते हुए कभी सामने से डटकर और कभी छापामार ढंग से जंग लड़ते रहे.
इसके विरोध में अंग्रेजों ने उनका राज्य तबाह कर दिया. उनका हुस्सेपुर का किला बर्बाद किया गया. लेकिन फतेह बहादुर शाही ने जीवन भर ना अंग्रेजी राज की अधीनता स्वीकार की और ना अपने राज्य में अंग्रेजों को कभी कर वसूली करने दी.
जंगल काट कर बनाया परिवार के लिए घर
फतेह बहादुर ने तमकुही गांव के पास जंगल काट कर अपना निवास बनाया. अपनी पत्नी और चारों पुत्रों को वहीं रखा. इधर वारेन हेस्टिंग ने फतेह बहादुर को मारने के लिए इंग्लैंड से और अधिक सेना बुलाई. जिसमें फतेह बहादुर शाही का बड़ा पुत्र मारा गया. अंग्रेजों ने अवध के नवाब पर दबाव बनाया कि महाराजा फतेह बहादुर शाही को अपने क्षेत्र से निकाले. फतेह बहादुर शाही अचानक कहीं चले गए. किसी ने कहा कि सन्यासी हो गए तो किसी ने कहा कि चेत सिंह के साथ महाराष्ट्र चले गए. लेकिन उनके गुरिल्ला युद्ध से भयभीत अंग्रेज उनके गायब होने के बाद भी वर्षों तक आतंकित रहे.
'स्वतंत्रता संग्राम और इतिहास का हो रहा अपमान'
वहीं, इतिहास के जानकार वरुण मिश्रा ने बताया कि फतेह बहादुर शाही को एक डाकू करार देना स्वतंत्रता संग्राम और इतिहास का अपमान है. उन्होंने कहा कि हमने कई पुस्तके पढ़ीं हैं. जिसमें कहीं यह जिक्र नहीं है कि फतेह बहादुर शाही एक डाकू थे. उन्होंने बताया कि 1767 में पी ई रॉबर्ट की लिखी गई बुक ब्रिटिश इंडिया हो या 1775/ 1883 में 12 अगस्त के अंक हों या फिर आरएसएस ओमले की लिखित 1883 में बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, कहीं भी उनको डाकू शब्द से सम्बोधित नहीं किया गया है.
डीएम ने स्वीकार की प्रशासनिक भूल
वरुण मिश्रा के मुताबिक इन सभी किताबों में उनकी वीरता और देश भक्ति की व्याख्या की गई है. इसके बावजूद गोपालगंज जिला प्रशासन के वेबसाइट पर उनको डाकू कैसे लिखा गया, ये समझ से परे है. जो एक निंदनीय घटना है. वहीं, इस संदर्भ में जब हमने डीएम अरशद अजीज से बात की तो उन्होंने भी माना कि इस तरह के शब्द लिखे गये हैं. जिसे तत्तकाल हटाया जाएगा और जो सही है उसको लिखा जाएगा.