गया: भगवान विष्णु के चरणों की छाया में गया धाम अवस्थित है. यह पुण्य धाम संसार के प्राचीन शहरों में से एक है. गया को तीर्थों का प्राण कहा गया है और इसे मंदिरों का शहर भी कहा जाता है. संपूर्ण भारत में गया ही ऐसा शहर है, जिसे लोग श्रद्धा भाव से गया जी संबोधित करते हैं. इस शहर की चर्चा ऋग्वेद में की गई है.
धर्म ग्रंथों के अनुसार गया को मोक्ष की नगरी कहा गया है. यहां पूर्वजों का पिंडदान करने से उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है. ऐसा कहा जाता है कि पितरों की आत्मा इस मोह माया की दुनिया में भटकती रहती है. वहीं, कई योनियों में उनकी आत्मा जन्म लेती है. ऐसे में गया में पिंडदान करने मात्र से इससे मुक्ति मिलती है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है.
गयासुर की नगरी...
भगवान विष्णु की नगरी गया धाम को सनातन धर्मावलंबियों के लिए गयासुर नामक राक्षस ने पावन बनाया है. इसके पीछे वायुपुराण में कहानी है. प्राचीन काल में गयासुर नामक एक असुर बसता था उसने दैत्यों को गुरु शंकराचार्य की सेवा कर वेद-वेदांत, धर्म तथा युद्ध कला में महारथ हासिल कर भगवान विष्णु की तपस्या शुरू कर दी. उसकी कठिन तपस्या से प्रभावित होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और उसे वरदान मांगने को कहा. गयासुर ने यह वरदान मांगा कि भगवान जो भी मेरा दर्शन करें वह सीधे बैकुंठ यानी स्वर्ग में जाए.
वरदान बना जी का जंजाल
भगवान विष्णु तथास्तु कह कर चले गए. भगवान विष्णु से वरदान प्राप्त करते ही लोग गयासुर का दर्शन और स्पर्श कर पूर्ण और मोक्ष की प्राप्ति करने लगे. इसे यमलोक और देवलोक में हाहाकार मच गया. देवी-देवताओं का अस्तित्व संकट में आने लगा. इसके बाद ब्रह्माजी ने एक सभा बुलाकर विचार-विमर्श किया. उसके बाद भगवान विष्णु ने ब्रह्मा से कहा कि आप सभी गयासुर को उसके शरीर पर यज्ञ करने के लिए राजी करें. उसके बाद ब्रह्माजी गयासुर के पास गए और कहा कि मुझे यज्ञ करने के लिए स्थल की जरूरत है. तुम्हारे शरीर से अधिक पवित्र स्थल कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है.
ब्रह्माजी ने शुरू किया यज्ञ
गयासुर अपने शरीर को यज्ञ करने के लिए देवताओं को दे दिया. देवता उसके शरीर पर यज्ञ करने लगे. देवताओं ने गयासुर की जीवनलीला समाप्त करने के लिए धर्मशिला पर्वत छाती पर रख दिया, तब भी गयासुर जीवित रहा. अंत में भगवान विष्णु यज्ञ स्थल पर पहुंचे और गयासुर के सीने पर रखे धर्मशिला को अपना चरणों से दबाते हुए गयासुर से कहा, 'अंतिम घड़ी में मुझसे, जो चाहे वर मांग लो.' इस पर गयासुर ने कहा कि भगवान मैं जिस स्थान पर प्राण त्याग रहा हूं, वो शिला में परिवर्तित हो जाए. उसमें मैं मौजूद रहूं. इस शिला पर आपके पवित्र चरण की स्थापना हो.
इसलिए होता है यहां पिंडदान...
साथ में जो इस शीला पर पिंडदान और मुंडन दान करेगा. उसके पूर्वज तमाम पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में वास करेंगे. जिस दिन यहां एक भी पिंड और मुंडन दान नहीं होगा, उस दिन इस क्षेत्र का नाश हो जाएगा. वर देने के बाद भगवान विष्णु ने शिला को इतना कस कर दबाया शिला पर चरण चिन्ह बन गया. भगवान विष्णु के पदचिन्ह आज भी विष्णुपद मंदिर में मौजूद हैं. भगवान विष्णु के गयासुर को दिए गए के बाद से ही पितरों को मोक्ष के लिए गयाधाम में पिंड दान की परंपरा का आज तक चली आ रही है.
फाह्यान के यात्रा वृत्तांत में है जिक्र
चीनी यात्री फाह्यान 405 ईसवी में भारत आया था. 441 ईसवी तक भारत के विभिन्न स्थलों का भ्रमण किया गया. प्रवास के दौरान फाह्यान ने यहां समय बिताया. उसके बाद यहां के बारे में अपने किताब में जिक्र भी किया है.
इस बार 17 दिन का पिंडदान
इस वर्ष पिंडदान की अवधि 17 दिन है. गया जी में पिंडदान एक दिवसीय, तीन दिवसीय, सात दिवसीय,पंद्रह या सत्रह दिवसीय किया जाता है. यहां कुल 48 वेदियां हैं. 48 वेदियों पर पिंडदान करने में 15 से 17 दिन लगता है. सभी पिंडवेदियों का अलग महत्व है. यहां कई सरोवर पिंडवेदी में है. बताया जाता है दशकों पहले यहां 365 वेदी थीं. सभी पिंडवेदियों पर पिंडदान करने में एक वर्ष का समय लगता था. ये सभी पिंडवेदी विलुप्त हो गई. विष्णुपद, फल्गू नदी, सीताकुंड, अक्षयवट और प्रेतशिला प्रमुख पिंडवेदी हैं.