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Pitru Paksha 2021: दूसरे दिन तिल और सत्तू के तर्पण का विधान, पूर्वजों को प्रेत योनि से मिलती है मुक्ति

पितृपक्ष 20 सितंबर से शुरू हो चुका है. पहले दिन पूर्णिमा को दिवंगत हुए पूर्वजों ने तर्पण किया. वहीं, आज पितृपक्ष के दूसरे दिन प्रेतशिला में पिंडदान करने का महत्व है. जानिए आखिर क्यों किया जाता है भूतों वाले पहाड़ पर पिंडदान...

पितृपक्ष
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Published : Sep 21, 2021, 7:23 AM IST

गया: गया जी में पितृपक्ष (Pitru Paksha 2021) के तहत पिंडदान शुरू हो गया है. बिहार की धार्मिक नगरी गया जी में त्रैपाक्षिक कर्मकांड करने वाले पिंडदानी आज दूसरा पिंडदान (Second Of Pinddan In Gaya) कर रहे हैं. पितृपक्ष के दूसरे दिन प्रेतशिला में पिंडदान करने का महत्व है. यहां पिंडदान करने से जो पितर प्रेत योनि में रहते है, उन्हें मुक्ति मिलती है. प्रेतशिला को भूतों का पहाड़ कहा जाता है. मान्यता है कि इस पहाड़ पर आज भी भूत और प्रेत का वास रहता है.

इसे भी पढ़ें: पितृपक्ष 2021 का हुआ आगाज, जानें पहले दिन का महत्व

प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध या प्रौष्ठप्रदी श्राद्ध के दिन उन लोगों का श्राद्ध किया जाता है, जिनका स्वर्गवास किसी भी महीने के कृष्ण या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हुआ हो. ऐसा कहा जाता है कि इस दिन श्राद्ध कर्म करने वालों को धन-सम्पत्ति में वृद्धि होती है. वहीं पूर्वजों को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है.

ये भी पढ़ें: पितृपक्ष के पहले दिन फल्गु नदी के तट पिंडदान जारी, जानें विधि-विधान और महत्व

दूसरे दिन तिल और सत्तू के तर्पण का विधान है. श्राद्ध कर्म के दौरान इसे सम्मलित करना चाहिए. तिल और सत्तू अर्पित करते हुए पूर्वजों से प्रार्थना करनी चाहिए. सत्तू में तिल मिलाकर अपसव्य से दक्षिण-पश्चिम होकर, उत्तर, पूरब इस क्रम से सत्तू को छिंटते हुए प्रार्थना करना चाहिए कि हमारे कुल में जो कोई भी पितर प्रेतत्व को प्राप्त हो गए हैं, वो सभी तिल मिश्रित सत्तू से तृप्त हो जाएं. फिर उनके नाम से जल चढ़ाकर प्रार्थना करने का महत्व है. ब्रह्मा से लेकर चिट्ठी पर्यन्त चराचर जीव, इस जल-दान से तृप्त हो जाएं. ऐसा करने से कुल में कोई प्रेत नहीं रहता है.

दरअसल, प्रेतशिला को लेकर एक दंत कथा है कि ब्रह्मा जी सोने का पहाड़ ब्राह्मण को दान में दिया था. सोने का पहाड़ दान में देने के बाद ब्रह्मा जी ब्राह्मणों के पास शर्त रखे थे. यदि आपलोग किसी से दान लेंगे, तो ये सोने का पर्वत पत्थर का पर्वत हो जाएगा. राजा भोग ने छल से पंडा को दान दे दिया. जिसके बाद ब्रह्मा जी ने इस पर्वत को पत्थर का पर्वत बना दिया था.

ब्राह्मणों ने भगवान ब्रह्ना से गुहार लगाया कि हमलोग की जीविका कैसे चलेगी. ब्रह्मा जी ने कहा कि इस पहाड़ पर बैठकर मेरे पद चिन्ह पर पिंडदान करना होगा. जिसके बाद पीतर को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलेगी. इस पर्वत पर तीन स्वर्ण रेखा है, तीनों स्वर्ण रेखा में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान रहेंगे. तब से इस पर्वत को प्रेतशिला कहा गया और ब्रहा जी के पदचिह्न पर पिंडदान होने लगा.


इस पर्वत पर धर्मशीला है, जिस पर पिंडदानी ब्रह्ना जी के पद चिन्ह पर पिंडदान करके धर्मशीला पर सत्तू उड़ाते हैं. इसके साथ ही कहते हैं कि 'उड़ल सत्तू पितर को पैठ हो'. सत्तू उड़ाते हुए पांच बार परिक्रमा करने से पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिल जाती है.

प्रेतशिला पर भगवान विष्णु की प्रतिमा है. पिंडदानी अकाल मृत्यु वाले लोग की तस्वीर विष्णु चरण में रखते हैं. उस मंदिर की पुजारी छः माह तक उसे पूजा करके उस तस्वीर गंगा में प्रवाहित कर देता है. पुजारी बताते हैं कि पहले लोग चांदी, सोने में लाते थे. जिसके बाद पत्थर पर अंकित तस्वीर लाने लगे. वहीं, अब कागज पर अंकित फोटो लाते हैं.

गौरतलब है कि प्रेतशिला के शिखर पर जाने के लिए खड़ी चढ़ाई और 676 सीढ़ी चढ़ना होता है. यह पिंडदानियों के लिए बड़ा ही कष्टदायक रहता है. जो भी पिंडदानी सीढ़ी चढ़ने में सक्षम नहीं रहते हैं, वे पालकी का सहारा लेते हैं. जिससे आसानी से पहाड़ी पर जाया जा सके.

गया: गया जी में पितृपक्ष (Pitru Paksha 2021) के तहत पिंडदान शुरू हो गया है. बिहार की धार्मिक नगरी गया जी में त्रैपाक्षिक कर्मकांड करने वाले पिंडदानी आज दूसरा पिंडदान (Second Of Pinddan In Gaya) कर रहे हैं. पितृपक्ष के दूसरे दिन प्रेतशिला में पिंडदान करने का महत्व है. यहां पिंडदान करने से जो पितर प्रेत योनि में रहते है, उन्हें मुक्ति मिलती है. प्रेतशिला को भूतों का पहाड़ कहा जाता है. मान्यता है कि इस पहाड़ पर आज भी भूत और प्रेत का वास रहता है.

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प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध या प्रौष्ठप्रदी श्राद्ध के दिन उन लोगों का श्राद्ध किया जाता है, जिनका स्वर्गवास किसी भी महीने के कृष्ण या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को हुआ हो. ऐसा कहा जाता है कि इस दिन श्राद्ध कर्म करने वालों को धन-सम्पत्ति में वृद्धि होती है. वहीं पूर्वजों को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है.

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दूसरे दिन तिल और सत्तू के तर्पण का विधान है. श्राद्ध कर्म के दौरान इसे सम्मलित करना चाहिए. तिल और सत्तू अर्पित करते हुए पूर्वजों से प्रार्थना करनी चाहिए. सत्तू में तिल मिलाकर अपसव्य से दक्षिण-पश्चिम होकर, उत्तर, पूरब इस क्रम से सत्तू को छिंटते हुए प्रार्थना करना चाहिए कि हमारे कुल में जो कोई भी पितर प्रेतत्व को प्राप्त हो गए हैं, वो सभी तिल मिश्रित सत्तू से तृप्त हो जाएं. फिर उनके नाम से जल चढ़ाकर प्रार्थना करने का महत्व है. ब्रह्मा से लेकर चिट्ठी पर्यन्त चराचर जीव, इस जल-दान से तृप्त हो जाएं. ऐसा करने से कुल में कोई प्रेत नहीं रहता है.

दरअसल, प्रेतशिला को लेकर एक दंत कथा है कि ब्रह्मा जी सोने का पहाड़ ब्राह्मण को दान में दिया था. सोने का पहाड़ दान में देने के बाद ब्रह्मा जी ब्राह्मणों के पास शर्त रखे थे. यदि आपलोग किसी से दान लेंगे, तो ये सोने का पर्वत पत्थर का पर्वत हो जाएगा. राजा भोग ने छल से पंडा को दान दे दिया. जिसके बाद ब्रह्मा जी ने इस पर्वत को पत्थर का पर्वत बना दिया था.

ब्राह्मणों ने भगवान ब्रह्ना से गुहार लगाया कि हमलोग की जीविका कैसे चलेगी. ब्रह्मा जी ने कहा कि इस पहाड़ पर बैठकर मेरे पद चिन्ह पर पिंडदान करना होगा. जिसके बाद पीतर को प्रेतयोनि से मुक्ति मिलेगी. इस पर्वत पर तीन स्वर्ण रेखा है, तीनों स्वर्ण रेखा में ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान रहेंगे. तब से इस पर्वत को प्रेतशिला कहा गया और ब्रहा जी के पदचिह्न पर पिंडदान होने लगा.


इस पर्वत पर धर्मशीला है, जिस पर पिंडदानी ब्रह्ना जी के पद चिन्ह पर पिंडदान करके धर्मशीला पर सत्तू उड़ाते हैं. इसके साथ ही कहते हैं कि 'उड़ल सत्तू पितर को पैठ हो'. सत्तू उड़ाते हुए पांच बार परिक्रमा करने से पितरों को प्रेतयोनि से मुक्ति मिल जाती है.

प्रेतशिला पर भगवान विष्णु की प्रतिमा है. पिंडदानी अकाल मृत्यु वाले लोग की तस्वीर विष्णु चरण में रखते हैं. उस मंदिर की पुजारी छः माह तक उसे पूजा करके उस तस्वीर गंगा में प्रवाहित कर देता है. पुजारी बताते हैं कि पहले लोग चांदी, सोने में लाते थे. जिसके बाद पत्थर पर अंकित तस्वीर लाने लगे. वहीं, अब कागज पर अंकित फोटो लाते हैं.

गौरतलब है कि प्रेतशिला के शिखर पर जाने के लिए खड़ी चढ़ाई और 676 सीढ़ी चढ़ना होता है. यह पिंडदानियों के लिए बड़ा ही कष्टदायक रहता है. जो भी पिंडदानी सीढ़ी चढ़ने में सक्षम नहीं रहते हैं, वे पालकी का सहारा लेते हैं. जिससे आसानी से पहाड़ी पर जाया जा सके.

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