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Gaya Patwa Toli News: 'बुनकरों का गांव' पटवाटोली कर रहा अस्तित्व की लड़ाई, संकट में सूती वस्त्र उद्योग

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Published : Feb 9, 2023, 8:48 PM IST

गया का पटवाटोली बुनकरों के गांव के नाम से (cotton textile industry in gaya patwa toli ) प्रसिद्ध है. यहां 24 घंटे खटखट का शोर नहीं थमता. 24 घंटे पावर लूम चलते हैं और सूती वस्त्र बनाए जाते हैं. अब यह 'बुनकरों का गांव' अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. तकनीकी रूप से इस उद्योग का विकास नहीं होने के कारण यह पिछड़ रहा है. साथ ही नई पीढ़ी अब इस धंधे से दूरी बना रही है. पढ़ें पूरी खबर..

गया पटवा टोली में सूती कपड़ा उद्योग पर संकट
गया पटवा टोली में सूती कपड़ा उद्योग पर संकट
गया पटवा टोली में सूती कपड़ा उद्योग पर संकट

गयाः बिहार के गया में मानपुर का पटवाटोली को 'बिहार का मैनचेस्टर' और 'मिनी कानपुर' कहा जाता है. किंतु सीमित संसाधनों के बीच पटवाटोली का सूती वस्त्र उद्योग संकट के दौर से गुजर (crisis in cotton textile industry in gaya) रहा है. यूं कहें तो 'बुनकरों का गांव' पटवाटोली अब अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. बीते दशकों तक नई पीढियां इस व्यवसाय को अपना उद्योग बनाते थे. किंतु अब नई पीढ़ी इससे दूर रहना चाहती है. इसका मुख्य कारण नई तकनीक वाली पावर लूम मशीनों का अभाव, आमद कम और सरकार द्वारा प्रोत्साहन नहीं दिया जाना है.

ये भी पढ़ेंः गया: पटवाटोली कपड़े की बढ़ी मांग, प्रतिदिन 12 हजार मीटर कॉटन कपड़ा का हो रहा उत्पाद

नई पीढ़ी धंधे से बना रही दूरीः पटवाटोली में कुछ नहीं बदला है. सब कुछ वही पुरानी चीजें और पुरानी तकनीक है. नतीजतन लोगों की सोच अब इस पुश्तैनी उद्योग धंधे से उचटने लगी है. अब नई पीढ़ी इस धंधे में नहीं आना चाहती. क्योंकि पहले वाली बात नहीं रही. महंगाई बढ़ी, लेकिन आमद वही रह गई. सरकार की ओर से भी कोई प्रोत्साहन नहीं मिला. आज भी संकीर्ण पतली पतली गलियां बाधा के रूप में सामने है. पतली संकरी गलियों से निजात के लिए औद्योगिक क्षेत्र का चयन तो किया गया, लेकिन वहां शिलान्यास तक नहीं हुआ. ऐसे दर्जन भर कारण हैं, जिससे बुनकरों के गांव की नई पीढ़ी इससे नहीं जुड़ना चाहती है.

बिहार का मैनचेस्टर अस्तित्व बचाने के लिए कर रहा संघर्षः बिहार प्रदेश बुनकर कल्याण संघ के अध्यक्ष गोपाल प्रसाद पटवा बताते हैं कि मानपुर पटवाटोली जिसे बिहार का मैनचेस्टर और मिनी कानपुर कहा जाता था. यहां 12000 पावर लूम और 2000 हैंडलूम मशीनें संचालित है. किंतु नई तकनीक नहीं आने के कारण अपेक्षित विकास इस उद्योग का नहीं हो सका है, जिस अनुपात में रोजगार का केंद्र बिंदु है. उस अनुपात में सरकार का प्रोत्साहन नहीं के बराबर है. यही वजह है कि बुनकरों का गांव अब अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है.

" मानपुर पटवाटोली जिसे बिहार का मैनचेस्टर और मिनी कानपुर कहा जाता था. यहां 12000 पावर लूम और 2000 हैंडलूम मशीनें संचालित है. किंतु नई तकनीक नहीं आने के कारण अपेक्षित विकास इस उद्योग का नहीं हो सका है, जिस अनुपात में रोजगार का केंद्र बिंदु है. उस अनुपात में सरकार का प्रोत्साहन नहीं के बराबर है. यही वजह है कि बुनकरों का गांव अब अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है"-गोपाल प्रसाद पटवा, अध्यक्ष, बिहार प्रदेश बुनकर कल्याण संघ

बिहार में बंद हो चुकी हैं कच्चे धागे की मिल, बाहर से मंगाना पड़ रहा महंगाः दो-तीन दशक पहले बिहार में कई धागा की मिल थी. इससे सस्ता धागा कच्चा माल के रूप में उपलब्ध होता था. अब वह नहीं रहे, बंद हो गए तो दूसरे राज्यों से मंगानी पड़ रही है. इससे सस्ता धागा अब उपलब्ध नहीं हो रहा है. इससे यह उद्योग प्रभावित हो रहा है. पहले मानपुर में ही पावर लूम सर्विस सेंटर, रेशम सेवा केंद्र थे. धीरे-धीरे सब समाप्त होते चले जा रहे हैं. ऐसे में नई पीढ़ी इस उद्योग में रुचि नहीं ले रही है. सीमित संसाधनों में सिमट रहे बुनकरों के सूती वस्त्र के उद्योग को अब नई पीढ़ी अपने कैरियर के रूप में नहीं देख रहे.

दूसरे राज्यों से तकनीकी रूप से हो गए हैं पीछेः गोपाल प्रसाद पटवा बताते हैं कि हमारे पास पुरानी किस्म की ही मशीनें हैं. जबकि दूसरे राज्यों में उन्नत तकनीक की मशीनें आई है. ऐसे में हम तकनीकी रूप से पीछे हो गए हैं. धागा पंजाब व दक्षिण भारत के राज्यों से मंगाना पड़ रहा है. बिहार से होता तो यह सस्ता होता. यह उद्योग अब संघर्षरत है. सरकार को आगे आकर विकास कैसे हो, इस पर सोचना पड़ेगा, अन्यथा यही स्थिति बनी रही तो आने वाले दिनों में मुश्किलें आएगी. नए लोग इससे नहीं के बराबर जुड़ रहे हैं.

औद्योगिक क्षेत्र का विकास तो दूर, शिलान्यास तक नहीं हो सकाः वस्त्र उद्योग बुनकर सेवा समिति के अध्यक्ष प्रेम नारायण पटवा कहते हैं कि एक तरफ सरकार कहती है कि औद्योगिक क्षेत्र का विकास होगा. वहीं दूसरी तरफ 5 वर्षों से औद्योगिक क्षेत्र के लिए चयनित हुए स्थान पर शिलान्यास नहीं किया गया. पटवाटोली को औद्योगिक क्षेत्र बनाने के लिए शादीपुर के पास भूमि का चयन किया गया था. किंतु 5 वर्षों में भी इसका शिलान्यास भी नहीं हुआ. हमारे पास सिर्फ पुरानी मशीनें हैं. नई ऑटोमेटिक मशीनें नहीं के बराबर है. सरकार की मदद की जरूरत है, तभी ऑटोमेटिक, प्रिंटिंग मशीन, ऑटोमेटिक पावर लूम मशीनें बैठ पाएगी और ज्यादा आमद और ज्यादा लोगों को रोजगार मिल सकेगा.

"एक तरफ सरकार कहती है, कि औद्योगिक क्षेत्र का विकास होगा तो दूसरी तरफ 5 वर्षों से औद्योगिक क्षेत्र के लिए चयनित हुए स्थान पर शिलान्यास नहीं किया गया. पटवाटोली को औद्योगिक क्षेत्र के लिए शादीपुर के पास भूमि का चयन किया गया था. किंतु 5 वर्षों में भी इसका शिलान्यास नहीं हुआ, हमारे पास सिर्फ पुरानी मशीनें है. नई ऑटोमेटिक मशीनें नहीं के बराबर है. सरकार की मदद की जरूरत है"- प्रेम नारायण पटवा, अध्यक्ष, वस्त्र उद्योग बुनकर सेवा समिति

इस उद्योग में नहीं जुड़ रहे नए लोगः प्रेम नारायण पटवा बताते हैं कि यहां बने वस्त्र पूरे भारत में जाते हैं. यहां निर्मित करीब 60% वस्त्र पश्चिम बंगाल, 15% वस्त्र असम और शेष झारखंड, उड़ीसा और बिहार में खपत होते हैं. जानकारी के अनुसार यहां के उद्योग से 25000 लोग जुड़े हुए हैं. करीब 400 करोड़ का सालाना कारोबार होता है. किंतु अब धीरे-धीरे इस उद्योग से जुड़े लोग कम हो रहे हैं. इसमें सिर्फ पुराने लोग ही रह गए हैं. वहीं सालाना कारोबार में भी गिरावट देखी जा रही है. बैंकों से ऋण नहीं मिलने के कारण बुनकरों के इस उद्योग को बढ़ावा नहीं मिलना भी एक वजह है.
पुरानी मजदूरी 350 ही मिल रहीः पावर लूम में मजदूरी करने वाले शिवप्रसाद, अजय प्रसाद आदि बताते हैं कि वेलोग पावर लूम कारीगर हैं. यहां 10 घंटे काम करते हैं, लेकिन सिर्फ 350 रुपये ही मिलते हैं. किसी-किसी को 400 तक मिल जाता है. यह वही बात है कि जो राशि पहले मिलती थी, वही राशि अभी भी मिल रही है. महंगाई के समय में इससे घर नहीं चल पाता है. यदि उन्नत मशीनें आएगी और अलग-अलग तरह के कपड़े बनने लगेंगे तो उसी स्थिति में हमारी आमदनी भी बढ़ जाएगी.

"कोरोना से पहले स्थिति कुछ ठीक थी. किंतु इसके बाद से जो बाजार गड़बड़ हुआ तो अभी पटरी पर नहीं आया है. अब इसमें आमदनी एकदम से कम है. आपस में कंपटीशन भी ज्यादा है, जिसके कारण कम मूल्य पर ही निर्मित वस्त्र खपत कर दिए जा रहे हैं. यही सब कुछ कारण है कि अब पुराने लोग ही इस धंधे से जुड़े हुए हैं. नई पीढ़ी को नहीं उतारना चाहते हैं. सरकार को चाहिए कि ऐसी स्थिति में यहां के निर्मित वस्त्रों को बाजार दे" -तुलसी प्रसाद, पावर लूम संचालक

"यहां 10 घंटे काम करते हैं, लेकिन सिर्फ 350 रूपए ही मिलते हैं. किसी-किसी को 400 तक मिलती है. यह वही बात है कि जो पहले मिलती थी, वही राशि अभी मिल रही है. महंगाई के इस समय में इससे घर नहीं चलते"- शिवप्रसाद, पावर लूम कारीगर.


गया पटवा टोली में सूती कपड़ा उद्योग पर संकट

गयाः बिहार के गया में मानपुर का पटवाटोली को 'बिहार का मैनचेस्टर' और 'मिनी कानपुर' कहा जाता है. किंतु सीमित संसाधनों के बीच पटवाटोली का सूती वस्त्र उद्योग संकट के दौर से गुजर (crisis in cotton textile industry in gaya) रहा है. यूं कहें तो 'बुनकरों का गांव' पटवाटोली अब अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. बीते दशकों तक नई पीढियां इस व्यवसाय को अपना उद्योग बनाते थे. किंतु अब नई पीढ़ी इससे दूर रहना चाहती है. इसका मुख्य कारण नई तकनीक वाली पावर लूम मशीनों का अभाव, आमद कम और सरकार द्वारा प्रोत्साहन नहीं दिया जाना है.

ये भी पढ़ेंः गया: पटवाटोली कपड़े की बढ़ी मांग, प्रतिदिन 12 हजार मीटर कॉटन कपड़ा का हो रहा उत्पाद

नई पीढ़ी धंधे से बना रही दूरीः पटवाटोली में कुछ नहीं बदला है. सब कुछ वही पुरानी चीजें और पुरानी तकनीक है. नतीजतन लोगों की सोच अब इस पुश्तैनी उद्योग धंधे से उचटने लगी है. अब नई पीढ़ी इस धंधे में नहीं आना चाहती. क्योंकि पहले वाली बात नहीं रही. महंगाई बढ़ी, लेकिन आमद वही रह गई. सरकार की ओर से भी कोई प्रोत्साहन नहीं मिला. आज भी संकीर्ण पतली पतली गलियां बाधा के रूप में सामने है. पतली संकरी गलियों से निजात के लिए औद्योगिक क्षेत्र का चयन तो किया गया, लेकिन वहां शिलान्यास तक नहीं हुआ. ऐसे दर्जन भर कारण हैं, जिससे बुनकरों के गांव की नई पीढ़ी इससे नहीं जुड़ना चाहती है.

बिहार का मैनचेस्टर अस्तित्व बचाने के लिए कर रहा संघर्षः बिहार प्रदेश बुनकर कल्याण संघ के अध्यक्ष गोपाल प्रसाद पटवा बताते हैं कि मानपुर पटवाटोली जिसे बिहार का मैनचेस्टर और मिनी कानपुर कहा जाता था. यहां 12000 पावर लूम और 2000 हैंडलूम मशीनें संचालित है. किंतु नई तकनीक नहीं आने के कारण अपेक्षित विकास इस उद्योग का नहीं हो सका है, जिस अनुपात में रोजगार का केंद्र बिंदु है. उस अनुपात में सरकार का प्रोत्साहन नहीं के बराबर है. यही वजह है कि बुनकरों का गांव अब अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है.

" मानपुर पटवाटोली जिसे बिहार का मैनचेस्टर और मिनी कानपुर कहा जाता था. यहां 12000 पावर लूम और 2000 हैंडलूम मशीनें संचालित है. किंतु नई तकनीक नहीं आने के कारण अपेक्षित विकास इस उद्योग का नहीं हो सका है, जिस अनुपात में रोजगार का केंद्र बिंदु है. उस अनुपात में सरकार का प्रोत्साहन नहीं के बराबर है. यही वजह है कि बुनकरों का गांव अब अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है"-गोपाल प्रसाद पटवा, अध्यक्ष, बिहार प्रदेश बुनकर कल्याण संघ

बिहार में बंद हो चुकी हैं कच्चे धागे की मिल, बाहर से मंगाना पड़ रहा महंगाः दो-तीन दशक पहले बिहार में कई धागा की मिल थी. इससे सस्ता धागा कच्चा माल के रूप में उपलब्ध होता था. अब वह नहीं रहे, बंद हो गए तो दूसरे राज्यों से मंगानी पड़ रही है. इससे सस्ता धागा अब उपलब्ध नहीं हो रहा है. इससे यह उद्योग प्रभावित हो रहा है. पहले मानपुर में ही पावर लूम सर्विस सेंटर, रेशम सेवा केंद्र थे. धीरे-धीरे सब समाप्त होते चले जा रहे हैं. ऐसे में नई पीढ़ी इस उद्योग में रुचि नहीं ले रही है. सीमित संसाधनों में सिमट रहे बुनकरों के सूती वस्त्र के उद्योग को अब नई पीढ़ी अपने कैरियर के रूप में नहीं देख रहे.

दूसरे राज्यों से तकनीकी रूप से हो गए हैं पीछेः गोपाल प्रसाद पटवा बताते हैं कि हमारे पास पुरानी किस्म की ही मशीनें हैं. जबकि दूसरे राज्यों में उन्नत तकनीक की मशीनें आई है. ऐसे में हम तकनीकी रूप से पीछे हो गए हैं. धागा पंजाब व दक्षिण भारत के राज्यों से मंगाना पड़ रहा है. बिहार से होता तो यह सस्ता होता. यह उद्योग अब संघर्षरत है. सरकार को आगे आकर विकास कैसे हो, इस पर सोचना पड़ेगा, अन्यथा यही स्थिति बनी रही तो आने वाले दिनों में मुश्किलें आएगी. नए लोग इससे नहीं के बराबर जुड़ रहे हैं.

औद्योगिक क्षेत्र का विकास तो दूर, शिलान्यास तक नहीं हो सकाः वस्त्र उद्योग बुनकर सेवा समिति के अध्यक्ष प्रेम नारायण पटवा कहते हैं कि एक तरफ सरकार कहती है कि औद्योगिक क्षेत्र का विकास होगा. वहीं दूसरी तरफ 5 वर्षों से औद्योगिक क्षेत्र के लिए चयनित हुए स्थान पर शिलान्यास नहीं किया गया. पटवाटोली को औद्योगिक क्षेत्र बनाने के लिए शादीपुर के पास भूमि का चयन किया गया था. किंतु 5 वर्षों में भी इसका शिलान्यास भी नहीं हुआ. हमारे पास सिर्फ पुरानी मशीनें हैं. नई ऑटोमेटिक मशीनें नहीं के बराबर है. सरकार की मदद की जरूरत है, तभी ऑटोमेटिक, प्रिंटिंग मशीन, ऑटोमेटिक पावर लूम मशीनें बैठ पाएगी और ज्यादा आमद और ज्यादा लोगों को रोजगार मिल सकेगा.

"एक तरफ सरकार कहती है, कि औद्योगिक क्षेत्र का विकास होगा तो दूसरी तरफ 5 वर्षों से औद्योगिक क्षेत्र के लिए चयनित हुए स्थान पर शिलान्यास नहीं किया गया. पटवाटोली को औद्योगिक क्षेत्र के लिए शादीपुर के पास भूमि का चयन किया गया था. किंतु 5 वर्षों में भी इसका शिलान्यास नहीं हुआ, हमारे पास सिर्फ पुरानी मशीनें है. नई ऑटोमेटिक मशीनें नहीं के बराबर है. सरकार की मदद की जरूरत है"- प्रेम नारायण पटवा, अध्यक्ष, वस्त्र उद्योग बुनकर सेवा समिति

इस उद्योग में नहीं जुड़ रहे नए लोगः प्रेम नारायण पटवा बताते हैं कि यहां बने वस्त्र पूरे भारत में जाते हैं. यहां निर्मित करीब 60% वस्त्र पश्चिम बंगाल, 15% वस्त्र असम और शेष झारखंड, उड़ीसा और बिहार में खपत होते हैं. जानकारी के अनुसार यहां के उद्योग से 25000 लोग जुड़े हुए हैं. करीब 400 करोड़ का सालाना कारोबार होता है. किंतु अब धीरे-धीरे इस उद्योग से जुड़े लोग कम हो रहे हैं. इसमें सिर्फ पुराने लोग ही रह गए हैं. वहीं सालाना कारोबार में भी गिरावट देखी जा रही है. बैंकों से ऋण नहीं मिलने के कारण बुनकरों के इस उद्योग को बढ़ावा नहीं मिलना भी एक वजह है.
पुरानी मजदूरी 350 ही मिल रहीः पावर लूम में मजदूरी करने वाले शिवप्रसाद, अजय प्रसाद आदि बताते हैं कि वेलोग पावर लूम कारीगर हैं. यहां 10 घंटे काम करते हैं, लेकिन सिर्फ 350 रुपये ही मिलते हैं. किसी-किसी को 400 तक मिल जाता है. यह वही बात है कि जो राशि पहले मिलती थी, वही राशि अभी भी मिल रही है. महंगाई के समय में इससे घर नहीं चल पाता है. यदि उन्नत मशीनें आएगी और अलग-अलग तरह के कपड़े बनने लगेंगे तो उसी स्थिति में हमारी आमदनी भी बढ़ जाएगी.

"कोरोना से पहले स्थिति कुछ ठीक थी. किंतु इसके बाद से जो बाजार गड़बड़ हुआ तो अभी पटरी पर नहीं आया है. अब इसमें आमदनी एकदम से कम है. आपस में कंपटीशन भी ज्यादा है, जिसके कारण कम मूल्य पर ही निर्मित वस्त्र खपत कर दिए जा रहे हैं. यही सब कुछ कारण है कि अब पुराने लोग ही इस धंधे से जुड़े हुए हैं. नई पीढ़ी को नहीं उतारना चाहते हैं. सरकार को चाहिए कि ऐसी स्थिति में यहां के निर्मित वस्त्रों को बाजार दे" -तुलसी प्रसाद, पावर लूम संचालक

"यहां 10 घंटे काम करते हैं, लेकिन सिर्फ 350 रूपए ही मिलते हैं. किसी-किसी को 400 तक मिलती है. यह वही बात है कि जो पहले मिलती थी, वही राशि अभी मिल रही है. महंगाई के इस समय में इससे घर नहीं चलते"- शिवप्रसाद, पावर लूम कारीगर.


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