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विशेष : राजनीति में सिर्फ वोट बैंक रहा दलित, रहना-खाना आज भी मयस्सर नहीं

बिहार की राजनीति में समाज के दबे कुचले और दलित समुदाय के लोगों की बात खूब होती है. एक बार फिर बिहार में चुनावी मौसम है और राजनेताओं को दलितों की याद सताने लगी है. लेकिन हकिकत ये है कि इनकी दशा में सुधार ना चुनाव के पहले होता है और ना ही चुनाव बीत जाने के बाद. सालों से इनकी उम्मीदें सिर्फ दलित राजनीति की भेंट चढ़ती रही हैं. देखिये मोतिहारी से एक रिपोर्ट..

मोतिहारी
मोतिहारी
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Published : Aug 27, 2020, 3:48 PM IST

मोतिहारी : चुनाव नजदीक आते ही दलित राजनीति गरमा गई है. लेकिन दलित समाज के सबसे अंतिम पायदान के मुसहर जाति के लोग समाज के मुख्य धारा से अभी भी कटे हुए हैं. आज तक इस समाज के लोग बुनयादी जरूरतों के लिए भी तरस रहे हैं.

पूर्वी चम्पारण जिला के चकिया प्रखंड में स्थित है चकबारा पंचायत और चकबारा पंचायत में एक दलित बस्ती है, जिसे भरथुईया मुसहर टोला के नाम से जाना जाता है. यहां मुसहर समाज के लोगों का चार सौ घर है. सभी घर झोपड़ी के हैं. ये लोग दूसरे की जमीन में झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं. जिस कारण जमीन मालिक से इन लोगों का तनाव बना रहता है.

मुसहर बस्ती के लोग
मुसहर बस्ती के लोग

दूसरे के खेत में करते हैं काम
भरथुईया मुसहर टोला के अधिकांश लोगों के पास ना आधार कार्ड है और ना ही राशन कार्ड. बस्ती में एक प्राईमरी स्कूल है. लेकिन शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं. स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर भगवान का आशीर्वाद इन लोगों पर है. दूसरे के खेत में ये लोग काम करके परिवार चलाते हैं. बस्ती के बच्चों के शरीर पर कपड़ा के नाम पर चीथड़ा लपेटा हुआ है. अभी भी इनके घरों में लकड़ी के चुल्हा पर खाना बनता है. इन लोगों से शासन-प्रशासन सभी ने मुंह मोड़ लिया है.

रोजमर्रा के काम में लगी औरतें और बच्चे
रोजमर्रा के काम में लगी औरतें और बच्चे

खाने के लिए दूसरे के खेत से साग चुनकर लाई बस्ती की लीला देवी साग छांटते हुए बताती हैं-
सब्जी काफी महंगी है इसलिए दूसरे के खेत से किसी-किसी चीज का पत्ता या साग बनाकर खाते हैं. अपनी जमीन भी नहीं है, तो दूसरे के खेतों में काम करके परिवार चलाते हैं.

मदद की आस में बैठी बुजुर्ग महिला
मदद की आस में बैठी बुजुर्ग महिला

घर के दरवाजे पर बैठी शैल देवी कहती हैं-
उनका बच्चा स्कूल जाता है, लेकिन शिक्षक पढ़ाते नहीं है. बच्चा स्कूल में पढ़ने के बजाय वहां से खेलकर लौट आता है.

बयान देती महिला
बयान देती महिला

'आज तक नहीं बना राशन कार्ड'
ग्रामीण श्रीपति देवी ने बताया कि उन्होनें राशन कार्ड के लिए प्रखंड कार्यालय में कई बार आवेदन दिया, लेकिन राशन कार्ड नहीं बना. थक हार कर उसने राशन कार्ड के लिए प्रयास करना छोड़ दिया.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

दूसरों के जमीन पर बसे हैं मुसहर जाति के लोग
बस्ती के रहने वाले भरत मांझी ने बताया कि उनकी बस्ती में लगभग चार सौ घर मुसहर के हैं. लेकिन सभी लोग दूसरे की जमीन में बसे हुए हैं. जमीन मालिक बार-बार आकर घर उजाड़ देने का धमकी देते हैं. उन्होंने बताया कि इस बस्ती के अधिकांश लोगों के पास राशन कार्ड भी नहीं है.

मुसहर टोला के बच्चे
मुसहर टोला के बच्चे

मुसहर जाति समाज की मुख्य धारा से है दूर
वहीं, इस क्षेत्र में दलितों के उत्थान के लिए काम कर रहे जगजीवन बैठा ने बताया कि आजादी के 74 साल बाद भी मुसहर जाति के ये लोग समाज की मुख्यधारा से कटे हुए है. उन्होंने बताया कि इस बस्ती के लोग सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से भी वंचित हैं. जिसके लिए उन्होंने काम करना शुरु किया है. तकि इनलोगों के हालत में सुधार किया जा सके.

मुसहर टोला निवासी
मुसहर टोला निवासी

चुनाव को लेकर दलितों की बढ़ी अहमियत
बहरहाल, बिहार विधानसभा का चुनाव नजदीक है. जिस कारण राजनीतिक दलों को दलितों की चिंता सताने लगी है और दलितों अहमियत काफी बढ़ गई है. लेकिन इनकी दशा में सुधार ना ही चुनाव के पहले होता है और ना ही चुनाव बीत जाने के बाद. सामाजिक और आर्थिक स्तर पर इनके लिए विकास का कोई प्रयास नहीं होता है. सालों से इनकी उम्मीदें सिर्फ दलित राजनीति की भेंट चढ़ती रही हैं.

मोतिहारी : चुनाव नजदीक आते ही दलित राजनीति गरमा गई है. लेकिन दलित समाज के सबसे अंतिम पायदान के मुसहर जाति के लोग समाज के मुख्य धारा से अभी भी कटे हुए हैं. आज तक इस समाज के लोग बुनयादी जरूरतों के लिए भी तरस रहे हैं.

पूर्वी चम्पारण जिला के चकिया प्रखंड में स्थित है चकबारा पंचायत और चकबारा पंचायत में एक दलित बस्ती है, जिसे भरथुईया मुसहर टोला के नाम से जाना जाता है. यहां मुसहर समाज के लोगों का चार सौ घर है. सभी घर झोपड़ी के हैं. ये लोग दूसरे की जमीन में झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं. जिस कारण जमीन मालिक से इन लोगों का तनाव बना रहता है.

मुसहर बस्ती के लोग
मुसहर बस्ती के लोग

दूसरे के खेत में करते हैं काम
भरथुईया मुसहर टोला के अधिकांश लोगों के पास ना आधार कार्ड है और ना ही राशन कार्ड. बस्ती में एक प्राईमरी स्कूल है. लेकिन शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं. स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर भगवान का आशीर्वाद इन लोगों पर है. दूसरे के खेत में ये लोग काम करके परिवार चलाते हैं. बस्ती के बच्चों के शरीर पर कपड़ा के नाम पर चीथड़ा लपेटा हुआ है. अभी भी इनके घरों में लकड़ी के चुल्हा पर खाना बनता है. इन लोगों से शासन-प्रशासन सभी ने मुंह मोड़ लिया है.

रोजमर्रा के काम में लगी औरतें और बच्चे
रोजमर्रा के काम में लगी औरतें और बच्चे

खाने के लिए दूसरे के खेत से साग चुनकर लाई बस्ती की लीला देवी साग छांटते हुए बताती हैं-
सब्जी काफी महंगी है इसलिए दूसरे के खेत से किसी-किसी चीज का पत्ता या साग बनाकर खाते हैं. अपनी जमीन भी नहीं है, तो दूसरे के खेतों में काम करके परिवार चलाते हैं.

मदद की आस में बैठी बुजुर्ग महिला
मदद की आस में बैठी बुजुर्ग महिला

घर के दरवाजे पर बैठी शैल देवी कहती हैं-
उनका बच्चा स्कूल जाता है, लेकिन शिक्षक पढ़ाते नहीं है. बच्चा स्कूल में पढ़ने के बजाय वहां से खेलकर लौट आता है.

बयान देती महिला
बयान देती महिला

'आज तक नहीं बना राशन कार्ड'
ग्रामीण श्रीपति देवी ने बताया कि उन्होनें राशन कार्ड के लिए प्रखंड कार्यालय में कई बार आवेदन दिया, लेकिन राशन कार्ड नहीं बना. थक हार कर उसने राशन कार्ड के लिए प्रयास करना छोड़ दिया.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

दूसरों के जमीन पर बसे हैं मुसहर जाति के लोग
बस्ती के रहने वाले भरत मांझी ने बताया कि उनकी बस्ती में लगभग चार सौ घर मुसहर के हैं. लेकिन सभी लोग दूसरे की जमीन में बसे हुए हैं. जमीन मालिक बार-बार आकर घर उजाड़ देने का धमकी देते हैं. उन्होंने बताया कि इस बस्ती के अधिकांश लोगों के पास राशन कार्ड भी नहीं है.

मुसहर टोला के बच्चे
मुसहर टोला के बच्चे

मुसहर जाति समाज की मुख्य धारा से है दूर
वहीं, इस क्षेत्र में दलितों के उत्थान के लिए काम कर रहे जगजीवन बैठा ने बताया कि आजादी के 74 साल बाद भी मुसहर जाति के ये लोग समाज की मुख्यधारा से कटे हुए है. उन्होंने बताया कि इस बस्ती के लोग सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से भी वंचित हैं. जिसके लिए उन्होंने काम करना शुरु किया है. तकि इनलोगों के हालत में सुधार किया जा सके.

मुसहर टोला निवासी
मुसहर टोला निवासी

चुनाव को लेकर दलितों की बढ़ी अहमियत
बहरहाल, बिहार विधानसभा का चुनाव नजदीक है. जिस कारण राजनीतिक दलों को दलितों की चिंता सताने लगी है और दलितों अहमियत काफी बढ़ गई है. लेकिन इनकी दशा में सुधार ना ही चुनाव के पहले होता है और ना ही चुनाव बीत जाने के बाद. सामाजिक और आर्थिक स्तर पर इनके लिए विकास का कोई प्रयास नहीं होता है. सालों से इनकी उम्मीदें सिर्फ दलित राजनीति की भेंट चढ़ती रही हैं.

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