दरभंगाः भारत की प्राचीन लिपियों में कैथी और तिरहुता या मिथिलाक्षर का नाम आता है. ये दोनों डेढ़ हजार साल से चलन में रहीं हैं. कैथी में तो उत्तर भारत के जमीन-जायदाद के अधिकतर दस्तावेज आज भी मौजूद हैं. लेकिन, अब इन लिपियों का उपयोग करने वाले लोगों की आखिरी पीढ़ी देश में बची है.
यूनेस्को ने साल 2006 में ही कैथी को विलुप्त घोषित कर दिया था. इस चिंता को देखते हुए केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान सीआईआईएल मैसूर की ओर से इन दोनों लिपियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास शुरू किया गया है. इसके तहत दरभंगा के महाराजाधिराज लक्ष्मीश्वर सिंह संग्रहालय में सात दिवसीय प्रशिक्षण शिविर चलाया जा रहा है.
केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान मैसूर
संग्रहालय के सहायक क्यूरेटर शिवकुमार मिश्र ने बताया कि केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान मैसूर भारत की 22 भाषाओं के उन्नयन का काम करता है. इसी के तहत विलुप्त हो रही कैथी और तिरहुता या मिथिलाक्षर लिपि को पुनर्जीवित करने की कोशिश हो रही है. दरअसल उत्तर भारत मे जमीन के दस्तावेज से लेकर दुर्लभ पांडुलिपियां तक इन दो लिपियों में हैं. अब उन्हें पढ़ने वाला ढूंढे से नहीं मिलता. इसलिए ये सात दिवसीय कार्यशाला शुरू की गई है. इसमें 48 प्रतिभागी शामिल हो रहे हैं.
'रोजगार की संभावना बढ़ेगी'
प्रशिक्षण में प्रतिभागी के तौर पर शामिल ललित नारायण मिथिला विवि के शिक्षक डॉ. मंजर सुलेमान ने कहा कि तिरहुता या मिथिलाक्षर और कैथी में दुर्लभ ग्रंथ और पांडुलिपियां भरी पड़ी हैं. इनको सीख कर वे दुर्लभ सामग्री को पढ़ना चाहते हैं. इससे वह सामग्री उपयोगी बनी रहेगी. वहीं, दस्तावेज नवीस का काम करने वाले डॉ. कृष्ण कुमार सहनी ने कहा कि वे ग्रामीण क्षेत्र से आते हैं. कैथी सीख कर पुराने दस्तावेज को ठीक ढंग से पढ़ सकेंगे. उन्होंने बताया कि जमीन के सभी पुराने दस्तावेज कैथी में ही हैं, जिन्हें पढ़ने वाले लोग नहीं मिलते. इसको सीख लेने से रोजगार की संभावना बढ़ेगी.