दरभंगा: मिथिलांचल के प्रसिद्ध लोक पर्व सामा-चकेवा की इन दिनों धूम है. दरभंगा शहर से लेकर गांव की गलियों तक में महिलाएं और युवतियां पारंपरिक मैथिली गीत गाकर सामा चकेवा का त्योहार मना रहीं हैं. सामा-चकेवा भाई-बहन के असीम प्रेम का प्रतीक है. यह मिथिला की महान लोक सांस्कृतिक परंपराओं में से एक है. आधुनिकता की अंधी दौड़ में अब इस त्योहार पर भी ग्रहण लग रहा है.
परंपरा को बचाने का संकल्प
नई पीढ़ी की महिलाएं और युवतियां इस परंपरा को छोड़ रहीं हैं. लेकिन आज की पीढ़ी की महिलाओं और युवतियों ने इस परंपरा को बचाने का संकल्प लिया है. दरभंगा शहर के बाहरी इलाके छठी पोखर पर ईटीवी भारत संवाददाता विजय कुमार श्रीवास्तव ने सामा-चकेवा मना रहीं कुछ महिलाओं और युवतियों से बात की. स्थानीय महिला अन्नपूर्णा देवी ने कहा कि सामा-चकेवा सदियों पुरानी परंपरा है.
भाई-बहन के प्रेम का वर्णन
यह त्योहार छठ के पारण से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक मनाया जाता है. अन्नपूर्णा देवी ने कहा कि इस त्योहार में महिलाएं और युवतियां पारंपरिक मैथिली लोकगीत गाती हैं. इन गीतों में सामा और चकेवा के रूप में भाई-बहन के प्रेम का वर्णन होता है. महिलाएं इस कहानी के खलनायक चुगला और यहां तक कि वृंदावन को भी जला देती हैं. कार्तिक पूर्णिमा को सजा-धजा कर सामा-चकेवा का नदियों और तालाबों में विसर्जन कर दिया जाता है.
क्या कहते हैं स्थानीय
अन्नपूर्णा देवी ने बताया कि नई पीढ़ी की लड़कियां अब इस परंपरा को छोड़ रही हैं. लेकिन जब तक उनकी पीढ़ी रहेगी तब तक वे लोग इस त्योहार को जिंदा रखेंगी. उन्होंने कहा कि इस त्योहार में मिथिला की संस्कृति झलकती है और इसे बचा कर रखना ही होगा. एक युवती रागिनी कुमारी ने कहा कि सामा-चकेवा भाई-बहन के असीम प्रेम का प्रतीक है. सामा भगवान कृष्ण की बेटी थी और चकेवा उनका बेटा.
भगवान कृष्ण से शिकायत
भाई-बहन के बीच अथाह प्रेम था. उसने कहा कि भगवान कृष्ण के दरबार में चुगला नाम का एक मंत्री भी हुआ करता था. जो सामा की शिकायत भगवान कृष्ण से करता रहता था. इसी शिकायत से प्रभावित होकर भगवान कृष्ण ने बेटी सामा को पंछी बन जाने का शाप दे दिया. बहन के बिछड़ जाने से भाई को बहुत दुख पहुंचा.
उत्साह के साथ मनाया गया त्योहार
भाई चकेवा ने भगवान की तपस्या की. इससे प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण ने सामा को शाप मुक्त कर दिया. लेकिन उन्होंने यह शर्त रखी कि सामा हर वर्ष कार्तिक महीने की सप्तमी तिथि से पूर्णिमा तिथि तक ही आएगी और भाई को उसके दर्शन होंगे. तब से यही परंपरा चली आ रही है. रागिनी ने कहा कि हर साल कार्तिक महीने में यह त्योहार मिथिलांचल में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है.