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चौसा युद्ध पर विशेष: हुमायूं की जान बचाने वाला भिस्ती आज गुमनामी के अंधेरे में, बना था एक दिन का बादशाह

भारतीय इतिहास में बक्सर में दो महत्वपूर्ण निर्णायक युद्ध हुए थे. इतिहास को बदल कर रख देने वाले इस युद्ध में हुमायूं की जान बचाने के एवज में दिल्ली के एक दिन के बादशाह बने बक्सर के भिस्ती आज गुमनामी के अंधेरे में हैं. पढ़ें पूरी रिपोर्ट

बक्सर चौसा मैदान
बक्सर चौसा मैदान
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Published : Jun 26, 2021, 10:05 AM IST

बक्सर : बिहार के बक्सर (Buxar) का चौसा, जहां आज ही के दिन 1539 में हुमायूं और शेरखां के बीच मध्यकालीन भारतीय इतिहास (Indian History) की महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी गई थी. जिसे इतिहास में चौसा का युद्ध (Chausa Battle Ground) कहा गया. यह गौरवशाली इतिहास है, जो आज दफन होने की ओर अग्रसर है.

आज अगर कोई बक्सर स्टेशन पर उतरकर भूले-भटके चौसा का मैदान या एक दिन के राजा बने निजाम भिस्ती के बारे में जानकारी लेता है तो उसे हैरानी भरी निगाहों से देखा जाता है.

ये भी पढ़ें : सरकारी उपेक्षा का शिकार हैं बक्सर की ऐतिहासिक धरोहरें, 'छोटी काशी' में है पर्यटन की असीम संभावनाएं

चौसा युद्ध मैदान का इतिहास
चौसा के मैदान पर आज ही के दिन, 26 जून 1539 ई. को मुगल बादशाह हुमायूं व अफगानी शासक शेरशाह के बीच युद्ध ने हिंदुस्तान की नई तारीख लिखी थी. इस युद्ध में अफगान शासक शेरशाह ने मुगलों को जबरदस्त मात दी थी. मुगल शासक हुमायूं को अपनी जान बचाने के लिए उफनती गंगा में कूदना पड़ा था.

तब इसी चौसा के निजाम नामक भिस्ती ने अपने मशक के सहारे हुमायूं को डूबने से बचाया था. अहसानमंद हुमायूं पुनः सत्ता की बागडोर संभालने के बाद निजाम को एक दिन के लिए मुगल सल्तनत का बादशाह नियुक्त करते हुए तख्त और ताज सौंपा था.

निजाम भिस्ती ने चमड़े का सिक्का चलाया
वरिष्ठ पत्रकार अजय मिश्रा का मानना है कि जिस शाही ईमाम ने भिस्ती को मुगल सम्राट का ताज पहनाने का रस्म अदा किया था, उसी दिन शाम के वक्त एक दुर्घटना में उस शाही ईमाम की मौत हो गई. इस दौरान मुगल परम्परा के अनुसार पहले दरबार में शाही ईमाम का चुनाव हुआ. तब चुने गये ईमाम द्वारा हुमायूं की पुनः ताजपोशी हुई.

'दिल्ली तख्त पर काबिज होते ही निजाम भिस्ती ने मशहूर चमड़े का सिक्का चलाया था. इस सिक्के के साथ पहली खरीद ईरान से आये रेशम के व्यपारी फिरोज फरहान के साथ किया गया. टकशाल का अधिकार भिस्ती के पास नहीं था अतः इसे राज मोहर का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ.' : - अजय मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार

देखें वीडियो

उपेक्षा का शिकार चौसा युद्ध मैदान
वहीं, एक ऐसा शख्स जो बक्सर की मिट्टी से निकलकर मुगल सल्तनत की सत्ता की बागडोर तक पहुंचा, आज बक्सर में उसकी पहचान तक नहीं है. जिस तख्त पर बाद की तारीख में अकबर और जहांगीर जैसे महान बादशाह बैठे, उस पर बक्सर का यह भिस्ती बैठ चुका था. ऐसे में इससे बड़ी विडंबना क्या होगी, बक्सर का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि जिसकी मिट्टी का लाल मुगलिया सल्तनत के तख्त पर बैठा, वह उपेक्षा के कारण यहीं पर गुमनामी के अंधेरे में डूब चुका है.

इसे भी पढ़ें : BUXAR NEWS: गंगा में शव मिलने के साइड इफेक्ट्स, कमाई बंद होने से भुखमरी की कगार पर मछुआरे

स्थानीय जनप्रनिधियों ने फेरा मुंह
चौसा युद्ध मैदान और भिस्ती के प्रति भारत और बिहार राज्य पर्यटन विभाग का यह सौतेलापन नहीं तो और क्या है? स्थानीय जनप्रतिनिधि भी बक्सर के इस सुनहरे इतिहास से कहीं न कहीं मुंह फेरे हुए ही नजर आतें हैं. आज ये अपनी बदहाली के आंसू रो रहा है.

'केंद्र और बिहार सरकार की पहल पर यहां निजाम भिस्ती की मूर्ति लगनी चाहिए. ताकि यहां के लोग स्वर्णिम इतिहास से वाकिफ हो सकें.' :- नागेंद्र सिंह, स्थानीय

चौसा युद्ध पर विशेष: हुमायूं की जान बचाने वाला भिस्ती आज गुमनामी के अंधेरे में, बना था एक दिन का बादशाह

बक्सर : बिहार के बक्सर (Buxar) का चौसा, जहां आज ही के दिन 1539 में हुमायूं और शेरखां के बीच मध्यकालीन भारतीय इतिहास (Indian History) की महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी गई थी. जिसे इतिहास में चौसा का युद्ध (Chausa Battle Ground) कहा गया. यह गौरवशाली इतिहास है, जो आज दफन होने की ओर अग्रसर है.

आज अगर कोई बक्सर स्टेशन पर उतरकर भूले-भटके चौसा का मैदान या एक दिन के राजा बने निजाम भिस्ती के बारे में जानकारी लेता है तो उसे हैरानी भरी निगाहों से देखा जाता है.

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चौसा युद्ध मैदान का इतिहास
चौसा के मैदान पर आज ही के दिन, 26 जून 1539 ई. को मुगल बादशाह हुमायूं व अफगानी शासक शेरशाह के बीच युद्ध ने हिंदुस्तान की नई तारीख लिखी थी. इस युद्ध में अफगान शासक शेरशाह ने मुगलों को जबरदस्त मात दी थी. मुगल शासक हुमायूं को अपनी जान बचाने के लिए उफनती गंगा में कूदना पड़ा था.

तब इसी चौसा के निजाम नामक भिस्ती ने अपने मशक के सहारे हुमायूं को डूबने से बचाया था. अहसानमंद हुमायूं पुनः सत्ता की बागडोर संभालने के बाद निजाम को एक दिन के लिए मुगल सल्तनत का बादशाह नियुक्त करते हुए तख्त और ताज सौंपा था.

निजाम भिस्ती ने चमड़े का सिक्का चलाया
वरिष्ठ पत्रकार अजय मिश्रा का मानना है कि जिस शाही ईमाम ने भिस्ती को मुगल सम्राट का ताज पहनाने का रस्म अदा किया था, उसी दिन शाम के वक्त एक दुर्घटना में उस शाही ईमाम की मौत हो गई. इस दौरान मुगल परम्परा के अनुसार पहले दरबार में शाही ईमाम का चुनाव हुआ. तब चुने गये ईमाम द्वारा हुमायूं की पुनः ताजपोशी हुई.

'दिल्ली तख्त पर काबिज होते ही निजाम भिस्ती ने मशहूर चमड़े का सिक्का चलाया था. इस सिक्के के साथ पहली खरीद ईरान से आये रेशम के व्यपारी फिरोज फरहान के साथ किया गया. टकशाल का अधिकार भिस्ती के पास नहीं था अतः इसे राज मोहर का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ.' : - अजय मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार

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उपेक्षा का शिकार चौसा युद्ध मैदान
वहीं, एक ऐसा शख्स जो बक्सर की मिट्टी से निकलकर मुगल सल्तनत की सत्ता की बागडोर तक पहुंचा, आज बक्सर में उसकी पहचान तक नहीं है. जिस तख्त पर बाद की तारीख में अकबर और जहांगीर जैसे महान बादशाह बैठे, उस पर बक्सर का यह भिस्ती बैठ चुका था. ऐसे में इससे बड़ी विडंबना क्या होगी, बक्सर का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि जिसकी मिट्टी का लाल मुगलिया सल्तनत के तख्त पर बैठा, वह उपेक्षा के कारण यहीं पर गुमनामी के अंधेरे में डूब चुका है.

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चौसा युद्ध मैदान और भिस्ती के प्रति भारत और बिहार राज्य पर्यटन विभाग का यह सौतेलापन नहीं तो और क्या है? स्थानीय जनप्रतिनिधि भी बक्सर के इस सुनहरे इतिहास से कहीं न कहीं मुंह फेरे हुए ही नजर आतें हैं. आज ये अपनी बदहाली के आंसू रो रहा है.

'केंद्र और बिहार सरकार की पहल पर यहां निजाम भिस्ती की मूर्ति लगनी चाहिए. ताकि यहां के लोग स्वर्णिम इतिहास से वाकिफ हो सकें.' :- नागेंद्र सिंह, स्थानीय

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