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जयंती विशेष: हिंदी और भोजपुरी साहित्य के पुरोधा थे पद्म भूषण आचार्य शिवपूजन सहाय

शिवपूजन सहाय बिहार के बक्सर जिले के उनवास गांव के रहने वाले थे. वे कई पत्रिकाओं के संपादक रहे और मुंशी प्रेमचंद की भी कई किताबों का संपादन उन्होंने ही किया था.

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Published : Aug 9, 2020, 7:15 AM IST

पटना
पटना

बक्सरः 9 अगस्त 1893 को जन्मे हिंदी साहित्य के पुरोधा और भोजपुरी साहित्य के ओज पुरुष आचार्य शिवपूजन सहाय की जन्म स्थली बक्सर जिले का उनवास गांव अपनी सपूत को लेकर हमेशा इतराता रहा है. हो भी क्यों ना, एक छोटे से किसान परिवार में जन्मा बालक देखते ही देखते हिंदी और भोजपुरी साहित्य का वह दीप्तिमान सितारा बन गया, जिसकी छटा आज भी हिंदी और भोजपुरी जगत को रौशन किए हुए है.

यह बात हम यूं ही नहीं कह रहे, बानगी यह कि हिंदी साहित्य के सेक्सपियर प्रेमचंद भी जिसके सामने नहीं बैठा करते थे. बात चाहे गोदान की हो, या फिर नमक का दरोगा की प्रेम जी की हर पुस्तक को सहाय जी ने ही एडिट किया था. सहाय जी की लिखी बालक, परदेसी का लोहा खुद प्रेमचंद ने मानी है. बिहार राष्ट्र भाषा परिषद के प्रथम अध्यक्ष के पद पर रहते हुए हिंदी और भोजपुरी को जो सबलता उन्होंने दिलवाई, उस योगदान को नकारा नहीं जा सकता.

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कही गई उक्त पंक्तिया 'जे यारी राहे बाटे से कलुआही नाही, आ जे लईका झुन-झुना खेले से लईका हम ना ही.' उधृत पंक्ति को ही बाल गंगाधर तिलक जैसे विभूति ने स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, बोलकर अंग्रेजो के कूल्हे हिला दिए थे.

शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)
शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)

पद्म भूषण से सम्मानित
हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक और पत्रकार रहे शिवपूजन सहाय को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में सन 1960 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था.

सहाय के लिखे हुए प्रारंभिक लेख 'लक्ष्मी', 'मनोरंजन' और 'पाटलीपुत्र' पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे. शिवपूजन सहाय ने 1934 ई. में 'लहेरियासराय' (दरभंगा) जाकर मासिक पत्र 'बालक' का संपादन किया. स्वतंत्रता के बाद शिवपूजन सहाय बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से प्रकाशित 'साहित्य' नामक शोध-समीक्षाप्रधान त्रैमासिक पत्र के संपादक थे.

शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)
शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)

कई पत्रिकाओं का किया संपादन
सहाय के बचपन का नाम भोलानाथ था. दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने बनारस की अदालत में नकलनवीस की नौकरी की. बाद में वे हिंदी के अध्यापक बन गए. असहयोग आंदोलन के प्रभाव से उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्रा दे दिया. शिवपूजन सहाय अपने समय के लेखकों में बहुत लोकप्रिय और सम्मानित व्यक्ति थे. उन्होंने जागरण, हिमालय, माधुरी और बालक सहित कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया. इसके साथ ही वे हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका मतवाला के संपादक-मंडल में थे.

वे मुख्यतः गद्य के लेखक थे. देहाती दुनिया, ग्राम सुधर, वे दिन वे लोग और स्मृतिशेष सहित उनकी दर्जन भर गद्य-कृतियां प्रकाशित हुई हैं. शिवपूजन रचनावली के चार खंडों में उनकी संपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हैंं. उनकी रचनाओं में लोकजीवन और लोकसंस्कृति के प्रसंग सहज ही मिल जाते हैं. 1 923 में मतवाला के संपादक के रूप में शामिल हुए. 1924 में माधुरी के संपादकीय विभाग में शामिल होने के लिए लखनऊ चले गए. जहां उन्होंने प्रसिद्ध हिंदी लेखक मुंशी प्रेमचंद के साथ काम किया और उनके रंगभूमि और कुछ अन्य कहानियों का संपादन किया.

शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)
शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)

कुछ दिन भागलपुर में भी रहे
1925 में वह कलकत्ता लौटे और अल्पकालीन पत्रिकाओं जैसे समनवे, मौजी, गोलमाल, उपन्यास तरंग को संपादित करने में कामयाब रहे. सहाय फ्रीलांस एडिटर के रूप में काम करने के लिए वाराणसी चले गए. वे 1931 में एक छोटी अवधि के लिए, वह गंगा को संपादित करने के लिए भागलपुर के पास सुल्तानगंज गए. हालांकि 1932 में फिर वाराणसी लौटे, जहां उन्हें जगतारन को संपादित करने करने की जिम्मेदारी मिली.

1963 में हुआ निधन
सहाय ने एक बार फिर प्रेमचंद के साथ काम किया. वह भी नागरी प्रचारिनी सभा के एक प्रमुख सदस्य और वाराणसी में इसी तरह के साहित्यिक हलकों में बने रहे. 1935 में वे लाहारीया सराय (दरभंगा) के लिए बालाक और आचार्य राममोचन सरन के स्वामित्व वाले पुस्टक भंडार के अन्य प्रकाशनों के संपादक के रूप में काम करने गए. 1939 में उन्होंने हिंदी भाषा के प्रोफेसर के रूप में छपरा के राजेंद्र कॉलेज में शामिल हो गए. साहित्य का यह सितारा 21 जनवरी 1963 को हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया.

बक्सरः 9 अगस्त 1893 को जन्मे हिंदी साहित्य के पुरोधा और भोजपुरी साहित्य के ओज पुरुष आचार्य शिवपूजन सहाय की जन्म स्थली बक्सर जिले का उनवास गांव अपनी सपूत को लेकर हमेशा इतराता रहा है. हो भी क्यों ना, एक छोटे से किसान परिवार में जन्मा बालक देखते ही देखते हिंदी और भोजपुरी साहित्य का वह दीप्तिमान सितारा बन गया, जिसकी छटा आज भी हिंदी और भोजपुरी जगत को रौशन किए हुए है.

यह बात हम यूं ही नहीं कह रहे, बानगी यह कि हिंदी साहित्य के सेक्सपियर प्रेमचंद भी जिसके सामने नहीं बैठा करते थे. बात चाहे गोदान की हो, या फिर नमक का दरोगा की प्रेम जी की हर पुस्तक को सहाय जी ने ही एडिट किया था. सहाय जी की लिखी बालक, परदेसी का लोहा खुद प्रेमचंद ने मानी है. बिहार राष्ट्र भाषा परिषद के प्रथम अध्यक्ष के पद पर रहते हुए हिंदी और भोजपुरी को जो सबलता उन्होंने दिलवाई, उस योगदान को नकारा नहीं जा सकता.

भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कही गई उक्त पंक्तिया 'जे यारी राहे बाटे से कलुआही नाही, आ जे लईका झुन-झुना खेले से लईका हम ना ही.' उधृत पंक्ति को ही बाल गंगाधर तिलक जैसे विभूति ने स्वाधीनता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, बोलकर अंग्रेजो के कूल्हे हिला दिए थे.

शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)
शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)

पद्म भूषण से सम्मानित
हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक और पत्रकार रहे शिवपूजन सहाय को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में सन 1960 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था.

सहाय के लिखे हुए प्रारंभिक लेख 'लक्ष्मी', 'मनोरंजन' और 'पाटलीपुत्र' पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे. शिवपूजन सहाय ने 1934 ई. में 'लहेरियासराय' (दरभंगा) जाकर मासिक पत्र 'बालक' का संपादन किया. स्वतंत्रता के बाद शिवपूजन सहाय बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संचालक और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से प्रकाशित 'साहित्य' नामक शोध-समीक्षाप्रधान त्रैमासिक पत्र के संपादक थे.

शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)
शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)

कई पत्रिकाओं का किया संपादन
सहाय के बचपन का नाम भोलानाथ था. दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने बनारस की अदालत में नकलनवीस की नौकरी की. बाद में वे हिंदी के अध्यापक बन गए. असहयोग आंदोलन के प्रभाव से उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्रा दे दिया. शिवपूजन सहाय अपने समय के लेखकों में बहुत लोकप्रिय और सम्मानित व्यक्ति थे. उन्होंने जागरण, हिमालय, माधुरी और बालक सहित कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया. इसके साथ ही वे हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका मतवाला के संपादक-मंडल में थे.

वे मुख्यतः गद्य के लेखक थे. देहाती दुनिया, ग्राम सुधर, वे दिन वे लोग और स्मृतिशेष सहित उनकी दर्जन भर गद्य-कृतियां प्रकाशित हुई हैं. शिवपूजन रचनावली के चार खंडों में उनकी संपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हैंं. उनकी रचनाओं में लोकजीवन और लोकसंस्कृति के प्रसंग सहज ही मिल जाते हैं. 1 923 में मतवाला के संपादक के रूप में शामिल हुए. 1924 में माधुरी के संपादकीय विभाग में शामिल होने के लिए लखनऊ चले गए. जहां उन्होंने प्रसिद्ध हिंदी लेखक मुंशी प्रेमचंद के साथ काम किया और उनके रंगभूमि और कुछ अन्य कहानियों का संपादन किया.

शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)
शिवपूजन सहाय (फाइल फोटो)

कुछ दिन भागलपुर में भी रहे
1925 में वह कलकत्ता लौटे और अल्पकालीन पत्रिकाओं जैसे समनवे, मौजी, गोलमाल, उपन्यास तरंग को संपादित करने में कामयाब रहे. सहाय फ्रीलांस एडिटर के रूप में काम करने के लिए वाराणसी चले गए. वे 1931 में एक छोटी अवधि के लिए, वह गंगा को संपादित करने के लिए भागलपुर के पास सुल्तानगंज गए. हालांकि 1932 में फिर वाराणसी लौटे, जहां उन्हें जगतारन को संपादित करने करने की जिम्मेदारी मिली.

1963 में हुआ निधन
सहाय ने एक बार फिर प्रेमचंद के साथ काम किया. वह भी नागरी प्रचारिनी सभा के एक प्रमुख सदस्य और वाराणसी में इसी तरह के साहित्यिक हलकों में बने रहे. 1935 में वे लाहारीया सराय (दरभंगा) के लिए बालाक और आचार्य राममोचन सरन के स्वामित्व वाले पुस्टक भंडार के अन्य प्रकाशनों के संपादक के रूप में काम करने गए. 1939 में उन्होंने हिंदी भाषा के प्रोफेसर के रूप में छपरा के राजेंद्र कॉलेज में शामिल हो गए. साहित्य का यह सितारा 21 जनवरी 1963 को हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया.

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