पटनाः बिहार के गया (Gaya) में नक्सलियों (Naxalites) ने एक परिवार के 4 लोगों की जिस तरीके से हत्या की, उसके बाद इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि नक्सलियों का आंदोलन और नक्सलियों का संगठन अब अपनी अंतिम सांसें गिनना शुरू कर चुका है. यही वजह है कि नक्सली ऐसी वारदात को अंजाम दे रहे हैं, जो न तो नक्सल साहित्य में कहीं लिखा गया है और ना ही नक्सली वारदात में कभी किया भी गया.
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जातीय अदावत के लिए बिहार में बनी सेनाओं ने वर्चस्व की जंग में कई नरसंहार ऐसे किए थे, जिसमें उन चीजों को तोड़ा गया था, जिसमें बच्चे महिलाएं युवा या फिर बुजुर्ग कौन हैं, इसका ध्यान नहीं रखा गया था. इसमें एक नहीं कई नरसंहार चाहे लक्ष्मणपुर बाथे हो, दलेल चक भदौरा नरसंहार हो, बेलछी नरसंहार हो, सेनारी मियांपुर शंकर बीघा बथानी टोला की बात छोड़ दी जाए तो नक्सलियों को कभी ऐसी वारदात के तहत जोड़कर नहीं देखा गया.
लेकिन गया की घटना के बाद कई सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या नक्सलियों की जमीन और उनका मूल जनाधार इतना टूट चुका है कि अब नक्सली अपनी उस नैतिकता को भी तोड़ते जा रहे हैं. जिसमें महिलाओं और बच्चों को इस विधा से पूरे तौर पर अलग रखने की बात कही गई थी.
पूरे देश में कोविड-19 से पहले जो व्यवस्था थी. कोविड-19 के बाद उसमें बहुत कुछ बदल गया. देश की आर्थिक संरचना बेपटरी हुई. लोग बेरोजगार हुए. उद्योग धंधों पर असर पड़ा तो इसका असर गांव की उस पगडंडी तक पहुंचा, जहां से पैसा लेकर सरकार के विरोध वाली सत्ता चलती थी. कोरोना के कारण नक्सलियों की संरचना भी टूट गई. क्योंकि पहाड़ से होने वाले खनन से मिलने वाला टैक्स, बालू के उत्खनन से होने वाली वसूली, जंगल की लकड़ी और खेतों में पैदा होने वाली फसल से लिया जाने वाला टैक्स, सब कुछ खत्म हो गया.
नक्सली संगठन को चलाने के लिए जिस पैसे की जरूरत होती है और संगठन को जीने के लिए जिस राशन की जरूरत होती है, वह भी नक्सलियों तक नहीं पहुंच रहा है. कोरोना ने संरचना को तोड़ दिया. तो नक्सलियों ने विरोध की धारा भी बदल दी. जिस तरीके से गया में घटना घटी, उसके बाद इस बात की समीक्षा शुरू हो गई है कि आखिर नक्सलियों की इस वारदात की वजह क्या है.
वास्तव में नक्सलियों ने जिनकी हत्या की वह कभी उनके सूत्र हुआ करते थे. नक्सलियों के लिए खाना पहुंचाना खाना बनाना, उनके लिए पुलिस की मुखबिरी करना, बाजार से वैसे चीजों का इंतजाम करना, जो नक्सलियों की जरूरत की हुआ करती थी, यहीं से पूरा होता था. यह नक्सलियों के लिए उनकी लाइफ लाइन हुआ करते थे. लेकिन नक्सलियों के कामकाज का तरीका जिस तरीके से बदला, उसमें बड़े नक्सलियों के पास तो अकूत धन हो गया. लेकिन जो लोग इनके लिए काम करते थे, वह आज भी 2 जून की रोटी के लिए जद्दोजहद ही कर रहे हैं. बाहर जाकर नौकरी करना ऐसे लोगों की मजबूरी बन गई.
यह बात उन लोगों के समझ में भी आने लगी कि नक्सली सिर्फ उनका उपयोग करते हैं. अपने लिए पैसे का इंतजाम करते हैं. नक्सली जो मूल धारा में आकर कुछ दिन भी रहे उनके घर पैसे का भंडार हो गया. लेकिन जो इनके लिए काम करते रहे, उनकी पूरी कमर ही टूट गई. अब इस विभेद को सरकार ने भी पाटने का काम किया है. बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार हर संभव प्रयास कर रही है.
इंदिरा आवास के तहत घर देना, खाद्यान्न योजना के तहत भोजन देना, शिक्षा की योजना के तहत बच्चों तक पढ़ाई पहुंचाना, आंगनबाड़ी योजना के तहत सभी महिलाओं तक वैसी तमाम चीजों को पहुंचाना, जो आम जरूरतों के लिए है. पिछले एक दशक में तेजी से यह सब बदला है. यही वजह है कि लोगों ने अपनी जीवनशैली बदली है. लोगों की बदलती जीवन शैली की दिनचर्या नक्सलियों को अब नागवार गुजर रही है. क्योंकि उनका लाइफ लाइन ही टूटता जा रहा है. गया कि घटना इस बात को बताने के लिए धमकी के तौर पर है कि नक्सलियों की बौखलाहट और नक्सलियों की जमीन बहुत कमजोर हो चुकी है.
गया में जिन लोगों की हत्या की गई, उसे लेकर कभी नक्सलियों के जनसंपर्क का काम करने वाले प्रदीप कुमार के एक सहयोगी थे, उन्होंने बताया कि नक्सली अब उस तरह से काम नहीं करते हैं, जिस सिद्धांत के तहत नक्सलियों ने काम करना शुरू किया था. दरअसल नक्सलियों की सैद्धांतिक व्यवस्था भटक चुकी है. अब जिस व्यवस्था के तहत नक्सली काम करना चाह रहे हैं, उसमें कुछ ऐसे लोग हैं, जो पैसे की उगाही में जुटे हुए हैं. इन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त है. कभी पुलिस वाले इनसे काम करवाते हैं, तो कभी राजनीति पैसा वसूलने के लिए इनसे काम करवाती है. यही वजह है कि जिस उद्देश्य को लेकर नक्सली आंदोलन शुरू हुआ था, वह अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गया. अब पैसे की उगाही और राजनीतिक दलों का काम करना नक्सलियों के लिए सिद्धांत बन गया है आम आदमी के लिए परेशानी का कारण. क्योंकि उनके हक की लड़ाई अब नक्सली नहीं लड़ रहे हैं.
नक्सलियों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने भी बहुत तेजी से काम किए हैं. कोबरा बटालियन जिस तरीके से दुर्गम क्षेत्र में अब जाती है, आधुनिक तकनीक से सेनाएं लाइट हुई हैं. नक्सलियों के सूचना तंत्र को सेनाओं ने तोड़ा है और स्थानीय स्तर के प्रशासन की टीम भी नक्सलियों से लड़ाई के लिए जिस तरीके से आंतरिक संरचना को मजबूत किया है, वह भी नक्सलियों के भीतर डर बैठा दिया है.
पहले नक्सलियों की इतनी तूती बोलती थी कि सरकार के किसी काम को वह रोक देते थे. उसकी वजह संरचना और संसाधन का कमजोर होना था. लेकिन विगत एक दशक में सरकारों ने नक्सलियों से निपटने के लिए जिस तरीके से संसाधन और संरचना को मजबूत किया है, वह भी नक्सलियों के लिए काल बना है. मुद्दा सड़क का हो या फिर बुनियादी जरूरतों का, सरकार ने ऐसे दुर्गम क्षेत्रों को चिह्नित करके प्राथमिकता के आधार पर काम किया. ताकि वहां के लोगों को सरकार बुनियादी सुविधाएं मुहैया करा सके. वह नक्सलियों के मूल विचारधारा से खुद को अलग करें. इसकी अब परिणति भी दिख रही है. नक्सलियों को आम लोगों का समर्थन अब नहीं मिल रहा है. जो कभी नक्सलियों के लाइफ लाइन हुआ करते थे. उन्होंने नक्सलियों से मुंह मोड़ लिया है.
गया की घटना के बाद नक्सली और किसी एक विचारधारा को लेकर होने वाली लड़ाई पर एक बात जरूर शुरू हुई है क्योंकि बदलते राजनीतिक हालात और सामाजिक समीकरण में एक चीज तो साफ हो गया है कि नक्सलियों के लिए कोविड-19 भी एक डर है. कोरोना के कारण पैसे ने नक्सली संगठनों की कमर तोड़ दी है. बालू और अवैध खनन पर नक्सलियों को उस तरह से कमाई हो नहीं रही है. एक दौर में नक्सली खेत में लगी फसल को काट लेते थे, जो आज इतनी प्रासंगिक रही नहीं.
नक्सलियों के सिद्धांतों से लोग इतने ज्यादा प्रभावित थे कि कई लोग छोटा नक्सली बन जाते थे, जो आज नहीं बन रहे हैं. आधुनिक तकनीक ने फोर्स को मजबूत किया है. जंगल, जमीन और जल को भी फोर्स ने निगरानी में रखा है. आधुनिक तकनीक और बदलती जीवनशैली ने नक्सली संगठन की कमर तोड़ दी है. यह बिल्कुल तय है, क्योंकि जिस तरीके से नक्सलियों ने महिलाओं और बच्चों की हत्या की है, उससे एक बात तो साफ है कि छोटे हो रहे नक्सली संगठन बड़े होने का मंसूबा तो पाल रहे हैं लेकिन टूटती विचारधारा के साथ भटकती बुनियाद और संजीदगी के साथ जुड़े लोग अब इस विचारधारा से मुंह मोड़ रहे हैं. क्योंकि उनके हिस्से वह भाग आया ही नहीं, जो उनके जीवन में बदलाव ले आता. यही वजह है कि गया में नक्सलियों ने अपनी बौखलाहट का अंतिम स्वरूप दिखाया है. लेकिन इसके परिणाम के तौर पर नक्सलियों का भी उत्तर मिल गया कि अब आम लोग ऐसे नक्सली विचारधारा के साथ खड़े होने वाले नहीं हैं, जिसमें नक्सलियों के नेता का विकास तो होता है लेकिन जो साथ होते हैं वे लोग दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद ही करते रहते हैं. इसका प्रतिकार ही बिहार में नक्सलियों को ना कह कर नए बिहार को बनाने की आम भागीदारी की पहली कहानी भी कही जा सकती है.
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