पटना: दीपों का त्योहार दीपावली (Festival of Lights Diwali) में कुछ ही दिन शेष हैं तो वहीं इस बार दीपावली पर बहुत से घरों में मिट्टी के नहीं, बल्कि गोबर से बने दीये ( Cow Dung Lamps ) जगमगाएंगे. पर्यावरण संरक्षण (Environment Protection) और महिला समूहों को रोजगार मुहैया कराने की दिशा में गोबर से बने दीए को अहम माना जा रहा है. रंग-बिरंगे देसी गोबर के ये दीए पहली बार बाजार में आए हैं.
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दरअसल, राजधानी पटना से सटे बिहटा प्रखण्ड के पैनाल पंचायत के सरपंच बबिता देवी के नेतृत्व में दर्जनों महिलाएं देसी गाय के गोबर के दीये बना रही हैं. आर्थिक रूप से कमजोर यह महिलाएं अपने हुनर से सबको चकित कर रही हैं. वो दीयों के अलावा लक्ष्मी-गणेश की गोबर की मूर्तियां एवं थाली, स्टैंड तैयार कर रही हैं.
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दीपावली के बाद इन दीयों का उपयोग गोबर की खाद के रूप में किया जा सकेगा इससे धरती से पर्यावरण स्वच्छ बनाने वाली सुगंध उठेगी. इस तरह मिट्टी के दीये बनाने और पकाने में पर्यावरण को होने वाले नुकसान के स्थान पर गोबर के दीए को इको फ्रेंडली माना जाता है.
सात दिन में तैयार होता है गोबर का दीपक-दीये और मूर्ति बनाने में सिर्फ देसी गाय के गोबर एवं गोवाम्बगर पाउडर या लकड़ी के पाउडर का ही इस्तेमाल किया जाता है. गोबर सुखाने के बाद मशीन में पीसा जाता है. इसके बाद छानकर उसे ग्वार, गम और पानी मिलाकर आटे की तरह गूंथा जाता है.
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सांचे से दीये और मूर्तियां बनाई जाती हैं. दीये की खासियत है कि बाती जलेगी लेकिन दीया सुरक्षित रहेगा. इसके अलावा दीया तेल भी नहीं सोखेगा जिसकी वजह से तेल की बचत भी होगी. मिट्टी की दीए कि तुलना से गोबर से निर्मित यह दीया ऊंचाई से गिरने के बावजूद भी नहीं टूटेगा.
गोबर का दीया सात दिन में तैयार होता है जबकि मूर्तियों को तैयार करने में दस दिन का समय लगता है. एक मिनट में चार दीये तैयार हो जाते हैं. इसे दो दिनों तक धूप में सुखाने के बाद अलग-अलग रंगों से सजाया जाता है. प्रतिदिन दो दर्जन महिलाएं 5000 हजार दीपक बना रही हैं. इन प्रत्येक महिला को प्रतिदिन चार से पांच सौ रुपए मिल रहे हैं.
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दिए दो प्रकार बनाए जाते हैं. ऊर्जा दिए एवं एक समान दिए. उर्जा दिए पूर्ण रूप से जल जाने के बाद अवशेषों को बचाने के बाद उसे खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. एक सामान्य दीपक 60 से 40% मिट्टी गोबर मिलाकर बनते हैं जिसके वजह से पूरा जल नहीं पाता है. इसे दोबारा भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
समूह में शामिल गुड़िया कुमारी, रीता देवी, कुसुम देवी, सुषमा कुमारी, संगीता कुमारी सहित अन्य लोगों ने बताया कि आज से दो साल पूर्व हम लोगों के पास कोई रोजगार नहीं था लेकिन गांव की नई सरपंच महिला बनने के बाद हम लोगों को घर पर बैठे रोजगार मिला है जिससे पुरुषों से तुलना अब हम लोग भी कर सकते हैं. घर पर बैठकर ही प्रतिदिन 400 के आसपास दीए को बना लेते हैं जिसकी मजदूरी के रूप में 400 से 500 रुपये भी मिल जाते हैं.
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सरकार से मांग करते हुए उनलोगों ने कहा कि- 'हम लोगों को बाहर से मटेरियल लाने पर अधिक खर्चा पड़ता है अगर अपने राज्य में ही मटेरियल मिल जाता है तो कम लागत में इसे बनाकर बाजारों में उपलब्ध करा सकते थे. आर्थिक रूप से मदद नहीं मिलने पर हम लोग अपनी पूंजी लगाकर ही इसे बनाने का काम कर रहे हैं.'
वहीं, महिला सरपंच बबिता देवी ने बताया की दो साल पूर्व नागपुर से दस दिनों के परीक्षण लेने के बाद अपने गांव लौटकर इसे बनाने की शुरआत की थी जो गांव की महिलाएं को निशुल्क परीक्षण दिया गया. अब महिलाओं की टोली धीरे-धीरे बढ़ती गई. अब तक इस टोली में तीन समूहों में 75 लोगों की टीम बनाकर चार माह पूर्व से ही दिए बनाने में जुट जाती हैं.
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अबतक इन लोगों के द्वारा पचास हजार से अधिक दिए, लक्षमी-गणेश की मूर्ति, थाली, स्टैंड बनाया गया है. बनाने के सारे मटेरयल दूसरे प्रदेशों से मंगाया जाता है. इसे बनाने में गोबर का सूखा पाउडर एवं गोवाम्बगर पाउडर या मैदा का इस्तेमाल किया जाता है तब जाकर दीए बनते हैं. एक साधारण दीए बनाने पर डेढ़ रुपय खर्च पड़ते हैं.
बाजारों में दो रुपय मूल्य रखी गई है. इसे बनाने का मुख्य उद्देश्य यह रहा था कि देसी गायों का अपने यहां खात्मा हो गया है, जिसे लाने के लिए यह एक छोटी सी शुरुआत है.
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