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जातियों के 'मालिकों' का U-टर्न, अब कह रहे 'जनता मालिक है'

बिहार की राजनीति में पिछले 24 घंटे में अहम बदलाव आया है. कहां अलग-अलग जातियों के नेताओं को आगे रखकर जाति आधारित वोट बैंक को साधने की कोशिश की जा रही थी, वहीं अब कहा जाने लगा है कि जनता ही मालिक है. पढ़ें आखिर ऐसा क्यों हुआ?

bihar politics
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Published : Oct 25, 2021, 10:34 PM IST

Updated : Oct 25, 2021, 10:49 PM IST

पटना: बिहार में राजनीति (Politics in Bihar) ने विगत 24 घंटे में यू-टर्न लिया है. बिहार में 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में जातीय गुणा-गणित का जो खेल चल रहा था, उसमें हर नेता अपने को जातियों का मालिक बता रहा था. लेकिन 24 घंटे में बदली राजनीति ने अब राजनेताओं को जनता को मालिक बोलने पर मजबूर कर दिया है.

ये भी पढ़ें: पुराने रंग में लौटे नीतीश, दिखाया लालू राज का आइना

दरअसल, यह बदलाव बिहार में लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) के आने के बाद हुआ है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि लालू यादव के सोशल इंजीनियरिंग में किसी एक नेता के जाति पकड़ की बात टिकती नहीं है. यही वजह है कि नेता जो खुद को जातियों का मालिक और उनका रहनुमा बताते थे अब उन्होंने जनता को अपना मालिक बताना शुरू कर दिया है. वजह साफ है कि 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में किसी एक राजनीतिक दल को जाति नहीं जनता ही जीत दिलाएगी. इसलिए जातियों के मालिक अब जनता को मालिक बनाने शुरू कर दिए हैं.

जब भी बिहार में चुनाव आते थे तो बिहार में राजनीतिक दलों के कुछ नेताओं की ऐसी हनक होती थी कि पार्टियों की तूती बोलती थी. उसमें धनबल, जाति बल और बाहुबल सिर चढ़कर बोलता था. लेकिन बदले राजनीतिक हालात और चुनावी प्रक्रिया ने इसमें बहुत कुछ बदल दिया है. बाहुबल और धनबल पर तो अंकुश लगा है लेकिन जाति बल के रहनुमा अभी भी अपनी बात रखने से बाज नहीं आते. कहीं पर भी उपचुनाव की बात होती है या चुनाव की बात किसी राज्य में होती है तो सबसे पहले सीट किस जाति को दी जा सकती है, इसी की चर्चा शुरू होती है.

यही चर्चा सीट पर उम्मीदवार देती है. कुछ मजबूरी परिसीमन का भी कहा जा सकता है कि निर्वाचन आयोग ही कुछ सीटों को आरक्षित कर दे रहा है. अगर आरक्षण की बात से थोड़ा अलग जा करके देखें तो हर जगह पर जातियों के मालिक अपनी दुकान खोल कर बैठे हैं. जैसे ही सीट देने की बात आती है, अपनी जाति का सामान बेचने के लिए हर जाति का ठेकेदार सामने खड़ा हो जाता है. बिहार की राजनीति में जाति को मालिक बताने वाले कम नहीं है. अगर शुरू से इसे देखा जाए तो बिहार में कभी कांग्रेस की तूती जातियों पर ही बोलती थी. लालू यादव का सोशल इंजीनियरिंग काफी मजबूत था और बिहार में लालू को जिताने के लिए जिन निकला करता था.

ये भी पढ़ें: लालू के सामने बड़ी चुनौती... क्या दोनों बेटों के विवाद सुलझा सकेंगे राजद सुप्रीमो ?

जब नीतीश कुमार (Nitish Kumar) आए तो वहां भी जातियों का बोलबाला खूब रहा. यही वजह है कि दलित-महादलित भी चुनावी मुद्दे का हिस्सा बन गए और नीतीश का जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) पर किया गया प्रयोग बिहार की राजनीति का बहुत बड़ा जातीय राजनीति की परिपाटी का स्तंभ लेख हो गया. अब हर जगह हर सीट और हर चुनाव के लिए जातीय गिनती के बाद ही बात आगे बढ़ती है. इसे गिनाने में भी नेता पीछे नहीं रहते लेकिन पिछले 24 घंटे में बिहार की सियासत ने जिस तरीके से करवट लिया है, उसमें हर नेता के मुंह से जाति कि नहीं जनता की बात निकलनी शुरू हो गई है. जो बिहार में इस बात को शायद स्थापित कर रही है कि सभी राजनीतिक दलों को यह लगने लगा है कि अगर जाति की दुहाई देते रहे तो शायद जनता मुंह फेर ले.

लालू यादव को रविवार को पटना पहुंचे तो बात शुरू हो गई कि क्या लालू यादव चुनाव प्रचार में जाएंगे. जब विपक्षी दलों को इस बात की जानकारी हो गई कि लालू यादव चुनाव प्रचार में जाएंगे तो जाति का चेहरा लेकर चलने वाले तमाम नेताओं की दुकान बंद सी होती दिख रही है. सबसे पहले जनता दल यूनाइटेड ने इस बयान दिया कि जनता मालिक है, उसे जो करना है करेगी क्योंकि मुकेश साहनी वाली मल्लाह सियासत अब दरकिनार हो जाएगी.

यह सबको पता है और मांझी वाली राजनीति में कोई दम है नहीं. यह नीतीश बखूबी जानते हैं. लालू यादव के नहीं होने पर जातीय संरचना, जातीय गोलबंदी जाती है. विकास, आरक्षण की सियासत, दलित-महादलित की राजनीति सब कुछ मंच से रखा जा सकता था लेकिन लालू के आने के बाद राजनीतिक दलों ने अपना राजनीतक पैंतरा बदल लिया है. क्योंकि यह जानकारी सबको है कि लालू यादव के पास सोशल इंजीनियरिंग को समेटने का जो फार्मूला है, उसके सामने ना तो जीतन राम मांझी के पास उनके समुदाय का वोट टिकेगा और ना ही वीआईपी के मुकेश साहनी का.

ये भी पढ़ें: प्रतिष्ठा दांव पर: काफी दिन बाद लालू और नीतीश फिर आमने-सामने, उपचुनाव बताएगा कौन किस पर भारी!

लगभग यही स्थिति कांग्रेस की भी है कि उनके सामने भी जाति को जोड़ने वाली जो कहानी है वह पिछले पर्दे पर चली गई है. लोजपा के चिराग पासवान भी सिर्फ पासवान जाति की बात नहीं कर रहे हैं, विकास की बात कर रहे हैं. क्योंकि इस नारे से उन्हें भी गुरेज है कि बोले धरती आसमान, पासवान पासवान. वे जानते है कि इस बूते जीत संभव नहीं है. इस परिपाटी को बदलने में लालू यादव की भूमिका ही है यह नहीं कहा जा सकता. लेकिन भूमिका में लालू यादव नहीं हैं इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता.

कुशेश्वरस्थान से चुनाव प्रचार करके लौटे नीतीश कुमार से जब इस बाबत पूछा गया कि दोनों सीटें जीतने का दावा राष्ट्रीय जनता दल ने कर दिया है तो नीतीश कुमार ने कहा कि जनता मालिक है. दावा तो बहुत होता रहता है. सबके जेहन में यह बात घर कर गई है की जाति पर जीत का दावा ठोकने पर तीर कहीं उल्टा ना लग जाए. अभी तक 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में जो चीजें सामने आई हैं, उसमें जनता को मालिक बता दिया गया है. बड़ी बात यह है कि लालू यादव अभी भाजपा की तरफ हमलावर भी नहीं हुए हैं.

शायद बीजेपी का कोई एजेंडा वाला मुद्दा इस उपचुनाव में राजनीतिक जगह पाएगा, कहा भी नहीं जा सकता. क्योंकि राम और मंदिर का मुद्दा बीजेपी नेपथ्य में डाल चुकी है. विपक्ष इस मुद्दे में फिर खुद को घसीटना चाहता नहीं है. जो मुद्दे अब आए हैं उसमें बात राजद की करें, कांग्रेस की करें, लोजपा के चिराग पासवान (Chirag Paswan) की करें या फिर पुष्पम प्रिया (Pushpam Priya), पप्पू यादव (Pappu Yadav) या फिर कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) की करें तो सभी ने जनता की बात कहना शुरू कर दिया है. जाति के मुद्दे से लोगों ने थोड़ा सा खुद को अलग किया है.

बिहार में 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में जातिगत संरचना का वोट नहीं पड़ेगा या जाति का टिकट असर नहीं डालेगा, यह नहीं कहा जा सकता. एक बात तो साफ है कि जाति की सियासत करने वाले लोग जो जातियों के मालिक बन बैठे थे, अब जनता को अपना मालिकाना हक दे दिया है. यह कम बड़ी बात नहीं है लेकिन सुनना, देखना और समझना जनता को है. क्योंकि जनता को मालिक बनाने वाले यही नेता जब जनता का मालिकाना हक ले लेते हैं तो सिर्फ जनता अपने हक के लिए इनके दरवाजे पर गिड़गिड़ाती घूमती फिरती है. सुनने वाला कोई नहीं होता है.

2 सीटों पर ही सही, लेकिन अगर राजनेताओं को यह समझ में आ गया है कि जातियों के मालिक नहीं जनता के मालिक या जनता मालिक तो फिर एक बात साफ है कि उन तमाम नेताओं के मन में है कि कहीं जनता ने अपना मालिकाना हक मांग लिया तो आगे की राजनीति उनके लिए मुश्किल है. अब देखने वाली बात यह होगी कि जातियों के मालिक जनता का हक देने के लिए जिस तरीके से चुनाव में जा रहे हैं, उसमें चुनाव परिणाम किस तरीके के आते हैं क्योंकि जनता मालिक होगी तो अपना उत्तर तो मजबूती से रखेगी.

ये भी पढ़ें: तेजस्वी का तंज: '32 साल के लड़के के सामने नीतीश कुमार ने पूरा कैबिनेट उतार दिया है...'

पटना: बिहार में राजनीति (Politics in Bihar) ने विगत 24 घंटे में यू-टर्न लिया है. बिहार में 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में जातीय गुणा-गणित का जो खेल चल रहा था, उसमें हर नेता अपने को जातियों का मालिक बता रहा था. लेकिन 24 घंटे में बदली राजनीति ने अब राजनेताओं को जनता को मालिक बोलने पर मजबूर कर दिया है.

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दरअसल, यह बदलाव बिहार में लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) के आने के बाद हुआ है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि लालू यादव के सोशल इंजीनियरिंग में किसी एक नेता के जाति पकड़ की बात टिकती नहीं है. यही वजह है कि नेता जो खुद को जातियों का मालिक और उनका रहनुमा बताते थे अब उन्होंने जनता को अपना मालिक बताना शुरू कर दिया है. वजह साफ है कि 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में किसी एक राजनीतिक दल को जाति नहीं जनता ही जीत दिलाएगी. इसलिए जातियों के मालिक अब जनता को मालिक बनाने शुरू कर दिए हैं.

जब भी बिहार में चुनाव आते थे तो बिहार में राजनीतिक दलों के कुछ नेताओं की ऐसी हनक होती थी कि पार्टियों की तूती बोलती थी. उसमें धनबल, जाति बल और बाहुबल सिर चढ़कर बोलता था. लेकिन बदले राजनीतिक हालात और चुनावी प्रक्रिया ने इसमें बहुत कुछ बदल दिया है. बाहुबल और धनबल पर तो अंकुश लगा है लेकिन जाति बल के रहनुमा अभी भी अपनी बात रखने से बाज नहीं आते. कहीं पर भी उपचुनाव की बात होती है या चुनाव की बात किसी राज्य में होती है तो सबसे पहले सीट किस जाति को दी जा सकती है, इसी की चर्चा शुरू होती है.

यही चर्चा सीट पर उम्मीदवार देती है. कुछ मजबूरी परिसीमन का भी कहा जा सकता है कि निर्वाचन आयोग ही कुछ सीटों को आरक्षित कर दे रहा है. अगर आरक्षण की बात से थोड़ा अलग जा करके देखें तो हर जगह पर जातियों के मालिक अपनी दुकान खोल कर बैठे हैं. जैसे ही सीट देने की बात आती है, अपनी जाति का सामान बेचने के लिए हर जाति का ठेकेदार सामने खड़ा हो जाता है. बिहार की राजनीति में जाति को मालिक बताने वाले कम नहीं है. अगर शुरू से इसे देखा जाए तो बिहार में कभी कांग्रेस की तूती जातियों पर ही बोलती थी. लालू यादव का सोशल इंजीनियरिंग काफी मजबूत था और बिहार में लालू को जिताने के लिए जिन निकला करता था.

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जब नीतीश कुमार (Nitish Kumar) आए तो वहां भी जातियों का बोलबाला खूब रहा. यही वजह है कि दलित-महादलित भी चुनावी मुद्दे का हिस्सा बन गए और नीतीश का जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) पर किया गया प्रयोग बिहार की राजनीति का बहुत बड़ा जातीय राजनीति की परिपाटी का स्तंभ लेख हो गया. अब हर जगह हर सीट और हर चुनाव के लिए जातीय गिनती के बाद ही बात आगे बढ़ती है. इसे गिनाने में भी नेता पीछे नहीं रहते लेकिन पिछले 24 घंटे में बिहार की सियासत ने जिस तरीके से करवट लिया है, उसमें हर नेता के मुंह से जाति कि नहीं जनता की बात निकलनी शुरू हो गई है. जो बिहार में इस बात को शायद स्थापित कर रही है कि सभी राजनीतिक दलों को यह लगने लगा है कि अगर जाति की दुहाई देते रहे तो शायद जनता मुंह फेर ले.

लालू यादव को रविवार को पटना पहुंचे तो बात शुरू हो गई कि क्या लालू यादव चुनाव प्रचार में जाएंगे. जब विपक्षी दलों को इस बात की जानकारी हो गई कि लालू यादव चुनाव प्रचार में जाएंगे तो जाति का चेहरा लेकर चलने वाले तमाम नेताओं की दुकान बंद सी होती दिख रही है. सबसे पहले जनता दल यूनाइटेड ने इस बयान दिया कि जनता मालिक है, उसे जो करना है करेगी क्योंकि मुकेश साहनी वाली मल्लाह सियासत अब दरकिनार हो जाएगी.

यह सबको पता है और मांझी वाली राजनीति में कोई दम है नहीं. यह नीतीश बखूबी जानते हैं. लालू यादव के नहीं होने पर जातीय संरचना, जातीय गोलबंदी जाती है. विकास, आरक्षण की सियासत, दलित-महादलित की राजनीति सब कुछ मंच से रखा जा सकता था लेकिन लालू के आने के बाद राजनीतिक दलों ने अपना राजनीतक पैंतरा बदल लिया है. क्योंकि यह जानकारी सबको है कि लालू यादव के पास सोशल इंजीनियरिंग को समेटने का जो फार्मूला है, उसके सामने ना तो जीतन राम मांझी के पास उनके समुदाय का वोट टिकेगा और ना ही वीआईपी के मुकेश साहनी का.

ये भी पढ़ें: प्रतिष्ठा दांव पर: काफी दिन बाद लालू और नीतीश फिर आमने-सामने, उपचुनाव बताएगा कौन किस पर भारी!

लगभग यही स्थिति कांग्रेस की भी है कि उनके सामने भी जाति को जोड़ने वाली जो कहानी है वह पिछले पर्दे पर चली गई है. लोजपा के चिराग पासवान भी सिर्फ पासवान जाति की बात नहीं कर रहे हैं, विकास की बात कर रहे हैं. क्योंकि इस नारे से उन्हें भी गुरेज है कि बोले धरती आसमान, पासवान पासवान. वे जानते है कि इस बूते जीत संभव नहीं है. इस परिपाटी को बदलने में लालू यादव की भूमिका ही है यह नहीं कहा जा सकता. लेकिन भूमिका में लालू यादव नहीं हैं इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता.

कुशेश्वरस्थान से चुनाव प्रचार करके लौटे नीतीश कुमार से जब इस बाबत पूछा गया कि दोनों सीटें जीतने का दावा राष्ट्रीय जनता दल ने कर दिया है तो नीतीश कुमार ने कहा कि जनता मालिक है. दावा तो बहुत होता रहता है. सबके जेहन में यह बात घर कर गई है की जाति पर जीत का दावा ठोकने पर तीर कहीं उल्टा ना लग जाए. अभी तक 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में जो चीजें सामने आई हैं, उसमें जनता को मालिक बता दिया गया है. बड़ी बात यह है कि लालू यादव अभी भाजपा की तरफ हमलावर भी नहीं हुए हैं.

शायद बीजेपी का कोई एजेंडा वाला मुद्दा इस उपचुनाव में राजनीतिक जगह पाएगा, कहा भी नहीं जा सकता. क्योंकि राम और मंदिर का मुद्दा बीजेपी नेपथ्य में डाल चुकी है. विपक्ष इस मुद्दे में फिर खुद को घसीटना चाहता नहीं है. जो मुद्दे अब आए हैं उसमें बात राजद की करें, कांग्रेस की करें, लोजपा के चिराग पासवान (Chirag Paswan) की करें या फिर पुष्पम प्रिया (Pushpam Priya), पप्पू यादव (Pappu Yadav) या फिर कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) की करें तो सभी ने जनता की बात कहना शुरू कर दिया है. जाति के मुद्दे से लोगों ने थोड़ा सा खुद को अलग किया है.

बिहार में 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में जातिगत संरचना का वोट नहीं पड़ेगा या जाति का टिकट असर नहीं डालेगा, यह नहीं कहा जा सकता. एक बात तो साफ है कि जाति की सियासत करने वाले लोग जो जातियों के मालिक बन बैठे थे, अब जनता को अपना मालिकाना हक दे दिया है. यह कम बड़ी बात नहीं है लेकिन सुनना, देखना और समझना जनता को है. क्योंकि जनता को मालिक बनाने वाले यही नेता जब जनता का मालिकाना हक ले लेते हैं तो सिर्फ जनता अपने हक के लिए इनके दरवाजे पर गिड़गिड़ाती घूमती फिरती है. सुनने वाला कोई नहीं होता है.

2 सीटों पर ही सही, लेकिन अगर राजनेताओं को यह समझ में आ गया है कि जातियों के मालिक नहीं जनता के मालिक या जनता मालिक तो फिर एक बात साफ है कि उन तमाम नेताओं के मन में है कि कहीं जनता ने अपना मालिकाना हक मांग लिया तो आगे की राजनीति उनके लिए मुश्किल है. अब देखने वाली बात यह होगी कि जातियों के मालिक जनता का हक देने के लिए जिस तरीके से चुनाव में जा रहे हैं, उसमें चुनाव परिणाम किस तरीके के आते हैं क्योंकि जनता मालिक होगी तो अपना उत्तर तो मजबूती से रखेगी.

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Last Updated : Oct 25, 2021, 10:49 PM IST
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