बक्सर: बिहार की राजधानी पटना से करीब 126 किलोमीटर दूर बक्सर का पांडेपट्टी गांव. यहां मान्यता है कि बगीचों में पेड़-पौधों (आम के पेड़) की शादी किए बिना उनके फल नहीं खाते हैं. इसी कड़ी में मंगलवार को जिले के मुफ्फसिल थाना क्षेत्र के पांडेपट्टी गांव में आम के दो फलदार वृक्षों की शादी कराई गई.
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काठ के दूल्हे और आम के पेड़ की शादी : दरअसल, यहां के बगीचों में आम के पेड़ पर पहली फसल (नई दुल्हन) आने पर आम की शादी कराई गई, साथ ही धूमधाम से बारात भी निकाली गई. आम के पेड़ (जिस पेड़ पर आम की नई फसल हो) की शादी काठ के दूल्हे से कराने की परंपरा यहां पूर्वजों के जमाने से चली आ रही है.
दूल्हे की तरह काठ पर लगता है हल्दी : परंपरा के मुताबिक, पेड़ों (दुल्हन) के लिए काठ का दूल्हा तैयार किया गया. उसके बाद दूल्हे को उसकी दुल्हन यानी फलदार पेड़ के पार रख दिया गया. महिलाएं मंगल गीत के साथ काठ के दूल्हे के शरीर पर हल्दी का लेप लगाती हैं और उसे तैयार करती हैं. इसके बाद ग्रामीण पेड़ को एक डोर में बांध देते हैं.
बाराती और घराती हुए शामिल : सभी ग्रामीण पेड़ के आसपास इकट्ठा होते हैं और फिर शुरू होती है काठ से बने दूल्हे और आम के पेड़ (दुल्हन) की शादी की रस्में. बता दें कि इस अनोखी शादी में बाराती और घराती दोनों पक्ष भी शामिल हुए. पंडित को भी बुलाया गया. सात फेरे की रस्म को पेड़ के मालिक ने अपनी पत्नी के साथ पूरी की.
शादी संपन्न होने के बाद लोगों ने आम खाया : परंपरा के तहत पंडित जी ने मंत्रोचार के साथ विवाह से जुड़ी रस्मों (सिंदूरदान और कन्यादान) को निभाते हुए शादी संपन्न कराई. रस्म के बाद दोनों पक्ष के मेहमानों के लिए भोज का भी इंतजाम किया गया था. आखिर में जितने लोग इस आयोजन में शामिल थे, उन्होंने पौधारोपण का संकल्प लिया. साथ ही ग्रामीणों ने पहली फसल यानी आम का स्वाद लिया.
पहली बार फल आने पर शादी की परंपरा : बगीचे के मालिक राम प्रवेश पांडे ने बताया कि ''आम के पे़ड़ पर पहली बार फल आने पर यह रस्म निभाई जाती है. इस दौरान कन्यादान भी होता है, मंगलगीत भी गाए जाते है, साथ ही भोज भी होता है. विवाह संपन्न होने पर बगीचों में लगे आम के फल को चखते हैं.''
क्या कहते हैं पंडित: वहीं शादी करा रहे ब्राह्मण पुखराज पांडे ने बताया कि ''यह एक रस्म है, जब फलदार पेड़ों की शादी कराई जाती है. इस दौरान शादी की सभी रस्मों को निभाया जाता है. आम के पेड़ को दुल्हन मानकर उसकी काठ के दूल्हे के साथ शादी कराने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है.''
ऋषि-मुनियों ने वृक्ष को धर्म से जोड़ा : इस मुद्दे पर पर्यावरण संरक्षक विपिन कुमार ने कहा कि वृक्ष हमारे जीवन का अमूल्य धरोहर है. इसीलिए प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों ने वृक्ष को धर्म से जोड़ा. हम पीपल-बरगद की पूजा करते हैं. छठ जैसे महापर्व में फलों से पूजा अर्चना की जाती है. ऐसी ही एक परंपरा है, जब हम नया बाग लगाते हैं, उसका फल हम तब तक नहीं खाते हैं जबतक शादी नहीं करा देते.
''इन रीति रिवाजों का एक ही उदेश्य था कि हमारे पेड़-पौधे संरक्षित रह सकें. ताकि धरती पर जीवन और जल बचा रह सके. इसी से हमारा कल बचा रह सकता है. यदि ऐसा नहीं करेंगे तो धरती पर ना जीवन बचेगा और ना ही जल. पूरे सृष्टि का विनाश हो जाएगा. इसलिए प्राचीन काल से जो परंपरा चली आ रही है, उन्हें हमें अपनाना होगा और पेड़-पौधों की रक्षा करनी होगी.''- विपिन कुमार, पर्यावरण संरक्षक