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पंक्चर बनाकर गुजर-बसर कर रहा इंटरनेशनल खिलाड़ी, बिहार सरकार दे रही सिर्फ 'भरोसा' - सड़क पर पंक्चर बना रहा ये इंटरनेशनल खिलाड़ी

बिहार की राजधानी पटना में खो-खो के इंटरनेशनल खिलाड़ी मंसूर आलम की मजबूरी ऐसी है कि वो सड़क पर पंक्चर बनाकर (International player makes punctures) जिंदगी गुजार रहा है. मंसूर ने देश के स्तर पर भी भागीदारी की है. वह 18 बार बिहार का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. ऐसे में इतने उम्दा खिलाड़ी की उपेक्षा सिस्टम पर सवाल खड़े कर रही है. सरकार की 'मेडल लाओ नौकरी पाओ' योजना के बावजूद मंसूर आलम जैसे होनहार खिलाड़ी पंक्चर बनाने को मजबूर हैं. पढ़ें पूरी रिपोर्ट-

International player making puncture
पंक्चर बना रहा इंटरनेशनल खिलाड़ी
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Published : Feb 4, 2022, 11:00 PM IST

पटना : बिहार सरकार खेल और खिलाड़ियों के विकास के लाख दावे करे लेकिन हकीकत ( Poor condition of sports and players in Bihar) कुछ और ही बयां कर रही है. दरअसल, पटना के रहने वाले मंसूर आलम खो-खो के उम्दा खिलाड़ी हैं. वह कई बार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और प्रदेश को रिप्रेजेंट कर अपना परचम लहरा चुके हैंं. लेकिन सरकार से कोई मदद नहीं मिलने की वजह से आज वो पंक्चर बनाकर गुजर बसर कर रहे हैं. ऐसे होनहार खिलाड़ी को पंक्चर जोड़ते देखकर हर कोई हैरान है. बिहार में 'पंक्चर' हो चुके सिस्टम के चलते मंसूर आलम 10 साल तक नौकरी के लिए जूझते रहे. इन्हें नौकरी तो नहीं मिली लेकिन पंक्चर जोड़ना इनकी मजबूरी बन गई. घर में एक बूढ़ी मां, दो बहने हैं. एक बहन की शादी होना बाकी है. देश की खातिर मेडल जीते लेकिन परिवार के भरण पोषण के लिए अब जद्दोजहद कर रहे हैं. मंसूर का मानना है कि खेल का मैदान हो या जिंदगी की रेस, खिलड़ी कभी हारता नहीं.

देखें बिहार के सिस्टम की 'हवा ' निकालती रिपोर्ट.

'2015 से लेकर 2019 तक खेल चुके हैं. 2018 में इंटरनेशनल स्तर पर इंडिया को रिप्रेजेंट किया है. उस वक्त भी मैने खेल नहीं छोड़ा जब मैदान तक पहुंचने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हुआ करते थे. लोग चंदा जुटाकर मुझे भेजा करते थे. जीवन यापन के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने पंक्चर बनाने की दुकान खोल ली. गाड़ियों में हवा भरकर, पंक्चर जोड़कर परिवार का पेट पाल रहे हैं. खेल प्राधिकरण की तरफ से 5400 रुपए सालाना स्कॉलरशिप मिलती थी लेकिन 2011 से वो भी बंद हो गयी है.'- मंसूर आलम, इंटरनेशनल खो खो खिलाड़ी

बिहार सरकार भले ही खिलाड़ियों के लिए हमदर्द बताती है, सरकार की यह घोषणा भी है कि 'मेडल लाओ नौकरी पाओ' लेकिन यह कहीं ना कहीं हवा-हवाई साबित हो रही है. पटना के एनआईटी मोड़ के पास रहने वाले मंसूर आलम इसका जीता जागता उदाहरण हैं. खो खो के खेल में मंसूर आलम ने अपने राज्य का नाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन किया है. लेकिन आज मंसूर आलम की जिंदगी में अंधेरे के सिवाय कुछ नहीं है. अपनी विधवा मां और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के खो खो खिलाड़ी मंसूर आलम पंक्चर की दुकान चलाकर जीविकोपार्जन कर रहे हैं.

मंसूर आलम ने अपने करियर की शुरूआत 1998 से स्कूल के दौरान की. वहां से उन्होंने जिला स्तर पर खो खो खेलना शुरू किया. इनकी खेल में रुचि इतनी थी कि अपने मेहनत के बूते पर इनका चयन राज्य स्तरीय खेल में हो गया. मंसूर आलम बिहार को देश में रिप्रेजेंट करने लगे. फिर नेशनल लेवल में भी मंसूर का सलेक्शन हुआ जहां से वो 2018 में इंटरनेशनल स्तर पर भी अपने खेल का लोहा मनवा चुके हैं. कई मेडल झटक चुके मंसूर सिस्टम की मार झेलने को मजबूर हैं. सरकार से इस खिलाड़ी को कोई मदद नहीं मिली. घर-परिवार चलाने की जिम्मेदारी मंसूर के सिर पर आ चुकी थी. नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने उन्हें मजबूरन ये काम करना पड़ा.

ये भी पढ़ें - बिहार में पकड़ुआ विवाह: हर साल औसतन 3000 मामले होते दर्ज, जानें इसके पीछे का सच

बिहार में खेल और खिलाड़ी की दुर्दशा साफ दिख रही है. मंसूर जैसे ना जाने कितने खिलाड़ी खेल की ललक लिए बिहार और देश का नाम रोशन करने के लिए खेलते हैं. लेकिन, खिलाड़ियों की ऐसी उपेक्षा की वजह से कोई बिहार से खेलना नहीं चाहता. बिहार में प्रतिभा की नहीं बल्कि प्रोत्साहन की कमी दिखाई देती है. सरकार को चाहिए कि जो भी खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करे उसका वो सम्मान करे. हालांकि सरकार के इस रवैये के बावजूद मंसूर आलम का खेल के प्रति प्रेम और जज्बा कम नहीं हुआ है. उन्हें उम्मीद है कि कभी तो सिस्टम जगेगा और उनकी प्रतिभा का कद्र होगा.

पटना : बिहार सरकार खेल और खिलाड़ियों के विकास के लाख दावे करे लेकिन हकीकत ( Poor condition of sports and players in Bihar) कुछ और ही बयां कर रही है. दरअसल, पटना के रहने वाले मंसूर आलम खो-खो के उम्दा खिलाड़ी हैं. वह कई बार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश और प्रदेश को रिप्रेजेंट कर अपना परचम लहरा चुके हैंं. लेकिन सरकार से कोई मदद नहीं मिलने की वजह से आज वो पंक्चर बनाकर गुजर बसर कर रहे हैं. ऐसे होनहार खिलाड़ी को पंक्चर जोड़ते देखकर हर कोई हैरान है. बिहार में 'पंक्चर' हो चुके सिस्टम के चलते मंसूर आलम 10 साल तक नौकरी के लिए जूझते रहे. इन्हें नौकरी तो नहीं मिली लेकिन पंक्चर जोड़ना इनकी मजबूरी बन गई. घर में एक बूढ़ी मां, दो बहने हैं. एक बहन की शादी होना बाकी है. देश की खातिर मेडल जीते लेकिन परिवार के भरण पोषण के लिए अब जद्दोजहद कर रहे हैं. मंसूर का मानना है कि खेल का मैदान हो या जिंदगी की रेस, खिलड़ी कभी हारता नहीं.

देखें बिहार के सिस्टम की 'हवा ' निकालती रिपोर्ट.

'2015 से लेकर 2019 तक खेल चुके हैं. 2018 में इंटरनेशनल स्तर पर इंडिया को रिप्रेजेंट किया है. उस वक्त भी मैने खेल नहीं छोड़ा जब मैदान तक पहुंचने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हुआ करते थे. लोग चंदा जुटाकर मुझे भेजा करते थे. जीवन यापन के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने पंक्चर बनाने की दुकान खोल ली. गाड़ियों में हवा भरकर, पंक्चर जोड़कर परिवार का पेट पाल रहे हैं. खेल प्राधिकरण की तरफ से 5400 रुपए सालाना स्कॉलरशिप मिलती थी लेकिन 2011 से वो भी बंद हो गयी है.'- मंसूर आलम, इंटरनेशनल खो खो खिलाड़ी

बिहार सरकार भले ही खिलाड़ियों के लिए हमदर्द बताती है, सरकार की यह घोषणा भी है कि 'मेडल लाओ नौकरी पाओ' लेकिन यह कहीं ना कहीं हवा-हवाई साबित हो रही है. पटना के एनआईटी मोड़ के पास रहने वाले मंसूर आलम इसका जीता जागता उदाहरण हैं. खो खो के खेल में मंसूर आलम ने अपने राज्य का नाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन किया है. लेकिन आज मंसूर आलम की जिंदगी में अंधेरे के सिवाय कुछ नहीं है. अपनी विधवा मां और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर के खो खो खिलाड़ी मंसूर आलम पंक्चर की दुकान चलाकर जीविकोपार्जन कर रहे हैं.

मंसूर आलम ने अपने करियर की शुरूआत 1998 से स्कूल के दौरान की. वहां से उन्होंने जिला स्तर पर खो खो खेलना शुरू किया. इनकी खेल में रुचि इतनी थी कि अपने मेहनत के बूते पर इनका चयन राज्य स्तरीय खेल में हो गया. मंसूर आलम बिहार को देश में रिप्रेजेंट करने लगे. फिर नेशनल लेवल में भी मंसूर का सलेक्शन हुआ जहां से वो 2018 में इंटरनेशनल स्तर पर भी अपने खेल का लोहा मनवा चुके हैं. कई मेडल झटक चुके मंसूर सिस्टम की मार झेलने को मजबूर हैं. सरकार से इस खिलाड़ी को कोई मदद नहीं मिली. घर-परिवार चलाने की जिम्मेदारी मंसूर के सिर पर आ चुकी थी. नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने उन्हें मजबूरन ये काम करना पड़ा.

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बिहार में खेल और खिलाड़ी की दुर्दशा साफ दिख रही है. मंसूर जैसे ना जाने कितने खिलाड़ी खेल की ललक लिए बिहार और देश का नाम रोशन करने के लिए खेलते हैं. लेकिन, खिलाड़ियों की ऐसी उपेक्षा की वजह से कोई बिहार से खेलना नहीं चाहता. बिहार में प्रतिभा की नहीं बल्कि प्रोत्साहन की कमी दिखाई देती है. सरकार को चाहिए कि जो भी खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करे उसका वो सम्मान करे. हालांकि सरकार के इस रवैये के बावजूद मंसूर आलम का खेल के प्रति प्रेम और जज्बा कम नहीं हुआ है. उन्हें उम्मीद है कि कभी तो सिस्टम जगेगा और उनकी प्रतिभा का कद्र होगा.

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