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इसरो के वैज्ञानिक एन के गुप्ता ने बनाया है गगनयान में लगने वाला क्रायोजेनिक इंजन, जानिए खासियत - गगनयान परियोजना

इसरो वैज्ञानिक और क्रायोजेनिक इंजन टेक्नोलॉजी के प्रोजेक्ट हेड एन. के. गुप्ता और उनकी टीम ने भारत में क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक को विकसित किया है. दुनिया में गिनती के देशों के पास ही क्रायोजेनिक इंजन तकनीक (cryogenic engine technology) है. एन. के. गुप्ता ने कहा, एक दौर था जब क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक रूस देने वाला था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण उसने यह तकनीक भारत को नहीं दी. पढ़िए इसरो के पूर्व वैज्ञानिक और इस तकनीक को बनाने वाले परियोजना प्रमुख एन.के. गुप्ता के साथ विशेष बातचीत के कुछ अंश...

N K Gupta
एन के गुप्ता
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Published : Dec 11, 2021, 5:20 PM IST

Updated : Dec 11, 2021, 7:04 PM IST

सूरत : 2022 में भारत गगनयान लॉन्च करेगा, जिस पर दुनिया की नजर है. इसके लिए इसरो द्वारा पूरी तैयारी की जा रही है. पहली बार कोई भारतीय अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में जाएगा. यह भारत के लिए एक महत्वाकांक्षी परियोजना है. इस प्रोजेक्ट में मिले इंजन को इसरो वैज्ञानिक और क्रायोजेनिक इंजन टेक्नोलॉजी के प्रोजेक्ट हेड एन. के. गुप्ता और उनकी टीम ने बनाया है.

उन्होंने कहा, पहले यह इंजन तकनीक रूस देने वाला था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण उसने यह तकनीक भारत को नहीं दी. इसरो के पूर्व निदेशक एनके गुप्ता और उनकी टीम ने भारत में यह टेक्नोलॉजी विकसित की. दुनिया में गिनती के देशों में अब क्रायोजेनिक इंजन तकनीक (cryogenic engine technology) है जिनमें से एक भारत भी है. पढ़िए इसरो के पूर्व वैज्ञानिक और इस तकनीक को बनाने वाले परियोजना प्रमुख एन.के. गुप्ता के साथ विशेष बातचीत के कुछ अंश...

सवाल : गगनयान में प्रयुक्त इंजन कितना महत्वपूर्ण है?

जवाब : रॉकेट में तीन प्रकार के ईंधन होते हैं, सॉलिड (ठोस), लिक्विड (तरल) और क्रायोजेनिक. क्रायोजेनिक ईंधन की क्षमता सबसे अधिक है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इसका उपयोग बड़े रॉकेट और अंतरिक्ष यान में किया जाता है. क्रायोजेनिक इंजन बहुत जटिल होते हैं. इन्हें डेवलप करने के लिए काफी मेहनत लगती है और केवल चार या पांच देशों में ही यह क्रायोजेनिक टेक्नोलोजी है. जब हम क्रायोजेनिक इंजन का निर्माण कर रहे थे, हमने रूस से संपर्क किया. किसी कारण से उन्होंने हमें तकनीक देने से इनकार कर दिया. फिर हमने अपना क्रायोजेनिक इंजन बनाने के बारे में सोचा. इस प्रोजेक्ट में, मैं प्रोजेक्ट हेड था. क्रायोजेनिक इंजन ईंधन के रूप में लिक्विड (तरल) हाइड्रोजन और तरल ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं. यह दोनों बहुत कम तापमान पर रहते हैं. हाइड्रोजन माइनस 253 सेंटीग्रेड और लिक्विड ऑक्सीजन माइनस 183 सेन्टीग्रेड पर है. हम माइनस 253 में काम कर रहे हैं. हम कम तापमान से 20 डिग्री से ऊपर काम कर रहे हैं. ये बहुत जटिल हैं. हाइड्रोजन का घनत्व बहुत कम है. जिसे स्टोर करने के लिए एक बड़ा टैंक लगता है. संक्षेप में, क्रायोजेनिक इंजन एक बहुत ही जटिल प्रणाली है जिसे हमने विकसित किया है.

सवाल : रूस ने यह तकनीक क्यों नहीं दी ?
जवाब : क्योंकि यह तकनीक बहुत जटिल है. इसे इतने आसान तरीके से कोई देता नहीं है. शायद उस समय रूस की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण भारत को तकनीक देने से इनकार कर दिया. हालांकि हमने खुद तकनीक विकसित करने के बारे में सोचा और मुझे इस परियोजना का निदेशक बनने का सौभाग्य मिला. इस क्रायोजेनिक इंजन (cryogenic engine) पर आधारित रॉकेट को GSLV मार्क 3 कहा जाता है. हमारा चंद्रयान-ii (Chandrayaan-2) वर्ष 2019 में GSLV मार्क 3 से लॉन्च किया गया था. हम अपनी सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना गगनयान को लॉन्च करने की उम्मीद कर रहे हैं, जिसके माध्यम से वर्ष 2022 में इंसान को अंतरिक्ष में भेजना चाहते हैं. पहले हमने सोचा था कि जब देश आजादी की 73वीं वर्षगांठ मनाएगा तो हम इसे भेज देंगे, लेकिन कोरोना के कारण परियोजना में देरी हुई है. हालांकि साल 2022 के अंत तक हम इंसानों को अंतरिक्ष में भेजने में सक्षम होंगे और इस अंतरिक्ष यान में यह क्रायोजेनिक इंजन होगा.

सवाल : इसरो पूरी दुनिया को अपना दम दिखाने के लिए कैसे तैयार है ?
जवाब : मेरा मानना है कि इसरो की सभी उपलब्धियां सराहनीय हैं. मैं ज़्यादा तारिफ करनें में नहीं मानता, वैसे भी मैं स्वयं वहां नहीं हूं. अगर एक बाहरी व्यक्ति के रूप में पूछा जाता है, तो मैं कहूंगा कि इसरो ने एक महत्वपूर्ण काम किया है, इसमें कोई शक नहीं है. दुनिया ने हमारी उपलब्धियों को पहचाना है और आज दुनिया में काम कर रहे सभी अंतरिक्ष संगठन हमारे साथ सहयोग करने पर गर्व महसूस कर रहे हैं. उदाहरण के लिए साल 2008 में हमने चंद्रयान-1 भेजा, जिसमें कई देशों ने हमारा सहयोग किया. फिर चंद्रयान-2 भेजा गया, जिसके अंदर क्रायोजेनिक इंजन लगा था और फिर हमने वर्ष 2014 में मंगल अंतरिक्ष यान भेजा. गगनयान परियोजना भी वर्तमान में चल रही है. हमने इतनी उपलब्धियां हासिल की हैं कि जब हमने मंगल ग्रह पर एक अंतरिक्ष यान भेजा, तो वह पहले प्रयास में ही सफल रहा. अमरिका को यह सफलता सातवीं बार में मिली थी. भारत मंगलयान परियोजना में एक ही प्रयास में सफल होने वाला पहला देश है.

पढ़ें :- 2030 तक भारत एक स्पेस स्टेशन भी बनेगा : मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह

सवाल : भारत के लिए गगनयान परियोजना (gaganyan project) को आप कैसे देखते हैं?
जवाब : जब हमने रॉकेट बनाया था, तो केवल एक ही सवाल पूछा गया था कि आपने एक रॉकेट बनाया है, लेकिन आप अपने ही आदमी को अंतरिक्ष में कब भेजेंगे ? हमारे पास मानव को अंतरिक्ष में भेजने की क्षमता है, लेकिन इसे सुरक्षित रूप से वापस लाने के लिए प्रयोगों की आवश्यकता थी, क्योंकि इंसान को भेजना बहुत आसान है. लेकिन उन्हें सुरक्षित लाने के लिए काफ़ी संशोधन करना होगा. हमने इसे वर्ष 2006 में हासिल किया जिसे एसआरई (स्पेस रिकवरी एक्सपेरिमेंट) कहा गया. इसमें हमने एक सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजा और तीन-चार दिन बाद उसे वापस धरती पर ले आए. हमने इसे पैराशूट से समुद्र में उसे इकट्ठा किया और इससे हमें एहसास हुआ कि हम कुछ भी अंतरिक्ष में भेज सकते हैं और वापस भी ला सकते हैं. अंतरिक्ष से किसी भी चीज को वापस लाना एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है. एरोडायनेमिक हिटिंग के कारण तापमान में वृद्धि होती है अंदर का तापमान न बढ़े इसलिए थर्मल सेल भी लगाया जाता है. आपको याद होगा ऐसे ही हादसे में कल्पना चावला की मौत हो गई थी. एक अंतरिक्ष यात्री को वापस पृथ्वी पर लाना एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है. चंद्रयान-1 को हमने इसे कक्षा में भेजा लेकिन वापस नहीं लाए. चंद्रयान 2 में सैटेलाइट को वहीं भेजा जाना था न कि वापस लाया जाना था. लेकिन, गगनयान में हमें अंतरिक्ष यात्रियों को वापस लाना है यह एक मुश्किल काम है, लेकिन हम कर सकते हैं. चंद्रयान-1 को सिर्फ ऑर्बिट में ही घुमना था. जबकि चंद्रयान-2 में एक ही समय पर ऑर्बिट में जाना था और लैंड भी करना था. जब हम उतर रहे होते हैं तब भी कई जटिलताएं होती हैं. लैंडिंग बहुत सॉफ्ट होनी चाहिए. हम जानते हैं कि इस मिशन पर हम सफलता से थोड़े दूर रह गए है, आशा है की इस बार हम सफल होंगे. हमारे पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा थे, जो 1984 में अंतरिक्ष में एक रूसी रॉकेट से गए और अब एक भारतीय अंतरिक्ष यात्री एक भारतीय रॉकेट से और केवल भारतीय धरती से जाएगा. जिससे यह अद्भुत प्रोजेक्ट देश और दुनिया को एक अनूठा संदेश देगा.

सवाल : युवा भारतीय वैज्ञानिकों को आप क्या कहेंगे जो भारत के लिए नहीं बल्कि दूसरे देशों के लिए काम करना चाहते हैं?

जवाब : यह सवाल सिर्फ अंतरिक्ष क्षेत्र के लिए नहीं है. यह जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों के लिए है. हमारा इसरो कई कार्यक्रम चलाता है जहां कई वैज्ञानिक काम करते हैं, कई वैज्ञानिक ऐसे भी हैं जिन्होंने दूसरे देशों में काम छोड़ा और भारत आ गए. यदि इसरो जैसी और संस्था भारत के अंदर विकसित होती है, तो स्वाभाविक है कि अन्य लोग विदेश नहीं जाना चाहेंगे. इसके लिए हमें इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की जरूरत है, जिससे भारत की प्रतिभा भारत में ही रहे.

सूरत : 2022 में भारत गगनयान लॉन्च करेगा, जिस पर दुनिया की नजर है. इसके लिए इसरो द्वारा पूरी तैयारी की जा रही है. पहली बार कोई भारतीय अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में जाएगा. यह भारत के लिए एक महत्वाकांक्षी परियोजना है. इस प्रोजेक्ट में मिले इंजन को इसरो वैज्ञानिक और क्रायोजेनिक इंजन टेक्नोलॉजी के प्रोजेक्ट हेड एन. के. गुप्ता और उनकी टीम ने बनाया है.

उन्होंने कहा, पहले यह इंजन तकनीक रूस देने वाला था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण उसने यह तकनीक भारत को नहीं दी. इसरो के पूर्व निदेशक एनके गुप्ता और उनकी टीम ने भारत में यह टेक्नोलॉजी विकसित की. दुनिया में गिनती के देशों में अब क्रायोजेनिक इंजन तकनीक (cryogenic engine technology) है जिनमें से एक भारत भी है. पढ़िए इसरो के पूर्व वैज्ञानिक और इस तकनीक को बनाने वाले परियोजना प्रमुख एन.के. गुप्ता के साथ विशेष बातचीत के कुछ अंश...

सवाल : गगनयान में प्रयुक्त इंजन कितना महत्वपूर्ण है?

जवाब : रॉकेट में तीन प्रकार के ईंधन होते हैं, सॉलिड (ठोस), लिक्विड (तरल) और क्रायोजेनिक. क्रायोजेनिक ईंधन की क्षमता सबसे अधिक है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इसका उपयोग बड़े रॉकेट और अंतरिक्ष यान में किया जाता है. क्रायोजेनिक इंजन बहुत जटिल होते हैं. इन्हें डेवलप करने के लिए काफी मेहनत लगती है और केवल चार या पांच देशों में ही यह क्रायोजेनिक टेक्नोलोजी है. जब हम क्रायोजेनिक इंजन का निर्माण कर रहे थे, हमने रूस से संपर्क किया. किसी कारण से उन्होंने हमें तकनीक देने से इनकार कर दिया. फिर हमने अपना क्रायोजेनिक इंजन बनाने के बारे में सोचा. इस प्रोजेक्ट में, मैं प्रोजेक्ट हेड था. क्रायोजेनिक इंजन ईंधन के रूप में लिक्विड (तरल) हाइड्रोजन और तरल ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं. यह दोनों बहुत कम तापमान पर रहते हैं. हाइड्रोजन माइनस 253 सेंटीग्रेड और लिक्विड ऑक्सीजन माइनस 183 सेन्टीग्रेड पर है. हम माइनस 253 में काम कर रहे हैं. हम कम तापमान से 20 डिग्री से ऊपर काम कर रहे हैं. ये बहुत जटिल हैं. हाइड्रोजन का घनत्व बहुत कम है. जिसे स्टोर करने के लिए एक बड़ा टैंक लगता है. संक्षेप में, क्रायोजेनिक इंजन एक बहुत ही जटिल प्रणाली है जिसे हमने विकसित किया है.

सवाल : रूस ने यह तकनीक क्यों नहीं दी ?
जवाब : क्योंकि यह तकनीक बहुत जटिल है. इसे इतने आसान तरीके से कोई देता नहीं है. शायद उस समय रूस की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण भारत को तकनीक देने से इनकार कर दिया. हालांकि हमने खुद तकनीक विकसित करने के बारे में सोचा और मुझे इस परियोजना का निदेशक बनने का सौभाग्य मिला. इस क्रायोजेनिक इंजन (cryogenic engine) पर आधारित रॉकेट को GSLV मार्क 3 कहा जाता है. हमारा चंद्रयान-ii (Chandrayaan-2) वर्ष 2019 में GSLV मार्क 3 से लॉन्च किया गया था. हम अपनी सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना गगनयान को लॉन्च करने की उम्मीद कर रहे हैं, जिसके माध्यम से वर्ष 2022 में इंसान को अंतरिक्ष में भेजना चाहते हैं. पहले हमने सोचा था कि जब देश आजादी की 73वीं वर्षगांठ मनाएगा तो हम इसे भेज देंगे, लेकिन कोरोना के कारण परियोजना में देरी हुई है. हालांकि साल 2022 के अंत तक हम इंसानों को अंतरिक्ष में भेजने में सक्षम होंगे और इस अंतरिक्ष यान में यह क्रायोजेनिक इंजन होगा.

सवाल : इसरो पूरी दुनिया को अपना दम दिखाने के लिए कैसे तैयार है ?
जवाब : मेरा मानना है कि इसरो की सभी उपलब्धियां सराहनीय हैं. मैं ज़्यादा तारिफ करनें में नहीं मानता, वैसे भी मैं स्वयं वहां नहीं हूं. अगर एक बाहरी व्यक्ति के रूप में पूछा जाता है, तो मैं कहूंगा कि इसरो ने एक महत्वपूर्ण काम किया है, इसमें कोई शक नहीं है. दुनिया ने हमारी उपलब्धियों को पहचाना है और आज दुनिया में काम कर रहे सभी अंतरिक्ष संगठन हमारे साथ सहयोग करने पर गर्व महसूस कर रहे हैं. उदाहरण के लिए साल 2008 में हमने चंद्रयान-1 भेजा, जिसमें कई देशों ने हमारा सहयोग किया. फिर चंद्रयान-2 भेजा गया, जिसके अंदर क्रायोजेनिक इंजन लगा था और फिर हमने वर्ष 2014 में मंगल अंतरिक्ष यान भेजा. गगनयान परियोजना भी वर्तमान में चल रही है. हमने इतनी उपलब्धियां हासिल की हैं कि जब हमने मंगल ग्रह पर एक अंतरिक्ष यान भेजा, तो वह पहले प्रयास में ही सफल रहा. अमरिका को यह सफलता सातवीं बार में मिली थी. भारत मंगलयान परियोजना में एक ही प्रयास में सफल होने वाला पहला देश है.

पढ़ें :- 2030 तक भारत एक स्पेस स्टेशन भी बनेगा : मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह

सवाल : भारत के लिए गगनयान परियोजना (gaganyan project) को आप कैसे देखते हैं?
जवाब : जब हमने रॉकेट बनाया था, तो केवल एक ही सवाल पूछा गया था कि आपने एक रॉकेट बनाया है, लेकिन आप अपने ही आदमी को अंतरिक्ष में कब भेजेंगे ? हमारे पास मानव को अंतरिक्ष में भेजने की क्षमता है, लेकिन इसे सुरक्षित रूप से वापस लाने के लिए प्रयोगों की आवश्यकता थी, क्योंकि इंसान को भेजना बहुत आसान है. लेकिन उन्हें सुरक्षित लाने के लिए काफ़ी संशोधन करना होगा. हमने इसे वर्ष 2006 में हासिल किया जिसे एसआरई (स्पेस रिकवरी एक्सपेरिमेंट) कहा गया. इसमें हमने एक सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजा और तीन-चार दिन बाद उसे वापस धरती पर ले आए. हमने इसे पैराशूट से समुद्र में उसे इकट्ठा किया और इससे हमें एहसास हुआ कि हम कुछ भी अंतरिक्ष में भेज सकते हैं और वापस भी ला सकते हैं. अंतरिक्ष से किसी भी चीज को वापस लाना एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है. एरोडायनेमिक हिटिंग के कारण तापमान में वृद्धि होती है अंदर का तापमान न बढ़े इसलिए थर्मल सेल भी लगाया जाता है. आपको याद होगा ऐसे ही हादसे में कल्पना चावला की मौत हो गई थी. एक अंतरिक्ष यात्री को वापस पृथ्वी पर लाना एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है. चंद्रयान-1 को हमने इसे कक्षा में भेजा लेकिन वापस नहीं लाए. चंद्रयान 2 में सैटेलाइट को वहीं भेजा जाना था न कि वापस लाया जाना था. लेकिन, गगनयान में हमें अंतरिक्ष यात्रियों को वापस लाना है यह एक मुश्किल काम है, लेकिन हम कर सकते हैं. चंद्रयान-1 को सिर्फ ऑर्बिट में ही घुमना था. जबकि चंद्रयान-2 में एक ही समय पर ऑर्बिट में जाना था और लैंड भी करना था. जब हम उतर रहे होते हैं तब भी कई जटिलताएं होती हैं. लैंडिंग बहुत सॉफ्ट होनी चाहिए. हम जानते हैं कि इस मिशन पर हम सफलता से थोड़े दूर रह गए है, आशा है की इस बार हम सफल होंगे. हमारे पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा थे, जो 1984 में अंतरिक्ष में एक रूसी रॉकेट से गए और अब एक भारतीय अंतरिक्ष यात्री एक भारतीय रॉकेट से और केवल भारतीय धरती से जाएगा. जिससे यह अद्भुत प्रोजेक्ट देश और दुनिया को एक अनूठा संदेश देगा.

सवाल : युवा भारतीय वैज्ञानिकों को आप क्या कहेंगे जो भारत के लिए नहीं बल्कि दूसरे देशों के लिए काम करना चाहते हैं?

जवाब : यह सवाल सिर्फ अंतरिक्ष क्षेत्र के लिए नहीं है. यह जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों के लिए है. हमारा इसरो कई कार्यक्रम चलाता है जहां कई वैज्ञानिक काम करते हैं, कई वैज्ञानिक ऐसे भी हैं जिन्होंने दूसरे देशों में काम छोड़ा और भारत आ गए. यदि इसरो जैसी और संस्था भारत के अंदर विकसित होती है, तो स्वाभाविक है कि अन्य लोग विदेश नहीं जाना चाहेंगे. इसके लिए हमें इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की जरूरत है, जिससे भारत की प्रतिभा भारत में ही रहे.

Last Updated : Dec 11, 2021, 7:04 PM IST
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