डॉ. बीआर अंबेडकर की पुण्यतिथि के मौके पर हर साल 6 दिसंबर को महापरिनिर्वाण दिवस मनाया जाता है. डॉ बीआर अम्बेडकर भारत के संविधान के मुख्य वास्तुकार थे. वह एक प्रख्यात भारतीय कानूनविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक भी थे जिन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन के साथ-साथ महिलाओं और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कदम उठाया. बौद्ध धर्म में, 'परिनिर्वाण' का अर्थ है मृत्यु के बाद निर्वाण. इसका तात्पर्य संसार से मुक्ति, कर्म और पुनर्जन्म के साथ-साथ स्कंधों के विघटन से है.
बीआर अंबेडकर को महापरिनिर्वाण से क्यों जोड़ा गया है
अम्बेडकर, जो 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में वर्षों तक धर्म का अध्ययन करने के बाद 5,00,000 अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को अपना लिया था. उन्हें बौद्ध नेता माना जाता था. भारत में अस्पृश्यता के उन्मूलन में उनके कद और योगदान के कारण, उन्हें बौद्ध गुरु माना जाता था। उनके अनुयायियों और समर्थकों का मानना है कि अम्बेडकर भगवान बुद्ध के समान प्रभावशाली, शुद्ध और सौभाग्यशाली थे. और यही कारण है कि अम्बेडकर की पुण्यतिथि को महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में जाना जाता है.
बौद्ध धर्म में परिवर्तन आवेशपूर्ण नहीं था
डॉ अम्बेडकर का बौद्ध धर्म में परिवर्तन आवेशपूर्ण नहीं था. यह देश के दलित समुदाय के लिए जीवन के एक नए तरीके का उतना ही समर्थन था जितना कि हिंदू धर्म की पूरी तरह से अस्वीकृति. येओला, नासिक में आयोजित एक छोटे से सम्मेलन में उन्होंने यह घोषणा की थी कि वह एक हिंदू के रूप में पैदा हुए थे, लेकिन हिंदू के रूप में नहीं मरेंगे. अम्बेडकर ने 1935 में हिंदू धर्म छोड़ चुके थे. अपने निर्णय के कारणों पर प्रकाश डालते हुए, उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा, 'हम एक ऐसे धर्म में तब तक रहेंगे जब तक कि एक आदमी दूसरे आदमी को रोगी की तरह व्यवहार करना सिखाना बंद ना करें, साथ ही जाति के आधार पर भेदभाव की भावना खत्म ना हो और ये सब चीजें जो हमारे मन में गहराई में है खत्म नहीं हो जा जाती. जाति और अछूतों को मिटाने के लिए धर्म परिवर्तन ही एकमात्र उपाय है. उन्होंने यह भी कहा कि कैसे हिंदू धर्म अपने लोगों के लिए बुनियादी मानवाधिकारों को सुरक्षित करने में विफल रहा है, इसके बजाय जातिगत अन्याय को कायम रखा है.
बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य
अम्बेडकर ने इसका उत्तर 'बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य' नामक निबंध में दिया है, जो 1950 में कोलकाता की महाबोधि सोसाइटी की मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. निबंध में, चार धर्मों के संस्थापकों के व्यक्तित्वों की तुलना की गई है, जिन्होंने 'न केवल अतीत में दुनिया को हिला दिया है, बल्कि अभी भी लोगों के विशाल जनसमूह पर प्रभाव डाल रहे हैं.' और यह चार हैं बुद्ध, जीसस, मोहम्मद और कृष्ण.