जयपुर : विश्व भर में 26 अगस्त को महिला समानता दिवस मनाया जाता है. यह दिन अमेरिकी संविधान में 19वें संशोधन के पारित होने की याद दिलाता है, जिसने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया. अमेरिकी में आधिकारिक तौर पर 26 अगस्त को महिला समानता दिवस के रूप में मान्यता दी. महिलाओं की समानता की बात करें तो पुरुष प्रधान सोच ने आज भी महिलाओं को घर की दहलीज लांघने पर पाबंदी लगा रखी है. आजादी के बाद से भले ही महिलाओं को समानता के संवैधानिक अधिकार तो मिले है, लेकिन आज भी पुरुषों के समान अधिकार नहीं मिले हैं. समाज में महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है, फिर चाहे वो घर हो या दफ्तर, या फिर शिक्षा का क्षेत्र लैंगिक भेदभाव से आधी आबादी को गुजरना पड़ता है.
सुरक्षित माहौल मिले : महिला समाजिक कार्यकर्ता निशा सिद्धू कहती हैं कि भारतीय संविधान में महिला और पुरुष दोनों को ही बराबर का अधिकार मिला हुआ है, लेकिन समाज में अभी भी महिलाओं को लेकर लोगों के मन में दोहरी मानसिकता है. महिला मानव जाति का आधार है, बावजूद इसके महिलाओं को आज भी बराबरी के हक के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ रही है. घर हो या ऑफिस महिलाओं को हमेशा पुरुषों और पुरुषवादी सोच ने कम ही समझा है. देश और प्रदेश की महिलाएं आज के इस माहौल महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. जिस तरह की घटना पिछले दिनों में सामने आई उससे साफ है कि महिला समानता की बात करने से पहले उन्हें सुरक्षित माहौल देना पड़ेगा. निशा सिद्धू कहती हैं कि कानून से मिले अधिकारों के लिए भी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती है, ये लड़ाई आज से नहीं बल्कि सालों से चली आ रही है.
अधिकार मिले, लेकिन मानसिकता नहीं बदली : महिला समाजिक कार्यकर्ता मनीषा सिंह कहती हैं कि देश मे भले ही महिला पुरुष के बीच समानता की बात की जाती हो, लेकिन आज भी पितृसत्ता सोच ने महिलाओं को दहलीज लांघने पर पाबंदी लगा रखी है. घर हो या ऑफिस महिलाओं को हमेशा पीछे रखा जाता है. हर बार कमोजोर दिखाने और समझाने की कोशिश होती है, जबकि महिला किसी तरह से पुरुषों से पीछे नही है. देश को चलाने वाली प्रधानमंत्री की बात हो या आज की मौजूदा राष्ट्रपति की, अंतरिक्ष पर जाने वाली महिला की बात हो या फिर हर सड़क पर गाड़ियां दौड़ाती महिला हो. जहां पर भी महिलाओं को मौका मिला है, उन्होंने अपने आप को बेहतर साबित किया है.
फैसले लेने के अधिकार नहीं : मनीषा ने कहा कि जब तक महिला थानों में घरेलू हिंसा और अन्य थानों में महिला उत्पीड़न के आंकड़ों में कमी नहीं आएगी तब तक समानता की बात नहीं की जा सकती. आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में 50 फीसदी से ज्यादा महिलाएं काम पर जा रही हैं, लेकिन वो काम उनकी समानता के साथ नहीं बल्कि घर की जिम्मेदारी के साथ बंधा है. गांव में आज भी महिलाओं को दूर दराज में जाकर खेतों में काम करना पड़ता है, जिससे होने वाले आर्थिक लाभ पर उनका कोई हक नहीं. इसे समानता नहीं कहा जा सकता है. जब तक समाज मे महिला को उसके स्वयं के लिए फैसले लेने के अधिकार नहीं मिलेंगे तब तक हम समानता की बात नहीं कर सकते. इसके लिए जरूरी है हमारी वर्षों से चली आ रही पुरुष प्रधान मानसिकता की सोच को बदला जाए.
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क्या कहते हैं आंकड़े : राजस्थान में महिलाओं की समानता की बात हो रही है, लेकिन आंकड़े बड़े डराने वाले हैं. लैंगिक समानता को लेकर उठ रहे सवालों पर दलित महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सुमन देवठिया कहती हैं कि आज में सामाजिक और लैंगिक असमानता जब तक समाज में है तब तक समानता नहीं हो सकती है. देश में लैंगिक समानता लाने का प्रयास भले ही हो रहे हों, लेकिन नाकाफी है. आंकड़े बताते हैं कि नौकरी के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के मुकाबले बहुत कम है.
लिंगानुपात में इतने प्रयासों के बाद अंतर बरकरार : उन्होंने कहा कि 16 से 59 एज ग्रुप को देखें तो शहरी क्षेत्र में मात्र 21 से 23 फीसदी महिलाएं काम पर जा रही हैं या काम की तलाश कर रही हैं. हालांकि ये आंकड़ा शहरी क्षेत्र के हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र ठीक है. वहां 51 फीसदी महिलाएं काम पर जा रही हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर कृषि या पशुपालन जो परिवारक काम है उसे ही कर रहीं हैं. प्रदेश को हर चौथी बच्ची को 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ रही है. 33 प्रतिशत वो महिलाएं हैं, जिन्हें कक्षा 10 के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ती है. वहीं, इंटरनेट के इस्तेमाल की बात करें तो 38 फीसदी के करीब प्रदेश की महिलाएं इंटरनेट का उपयोग कर रहीं हैं. हालात यह भी हैं कि प्रदेश में हर दिन 12 नाबालिग बच्चियां हैवानियत का शिकार हो रही हैं. लिंगानुपात में आज भी इतने प्रयासों के बाद अंतर बरकरार है.