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लकड़ी की ताव पर बनता है परंपरागत मूढ़ी, बिना किसी की मदद के महिलाएं करती हैं तैयार - MAKAR SANKRANTI SPECIAL

मटरुखा एक ऐसा गांव है जहां की महिलाएं स्वावलंबी हैं. हालांकि इन महिलाओं को सरकार सहयोग करें तो क्षेत्र को अलग पहचान दे सकती हैं.

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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Jan 12, 2025, 1:02 PM IST

गिरिडीह: मकर संक्रांति का पर्व देश के कई हिस्सों में मनाया जाता है. तिल, गुड़, चूड़ा, दही और नया चावल के पकवान के अलावा इस पर्व में चावल से बनने वाले मूढ़ी (मुरमुरे) का भी अपना महत्व है. झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में मूढ़ी से लडडू बनता है. इस पर्व के अलावा मूढ़ी का उपयोग सालों भर किया जाता है.

झारखंड के कई जिलों और पश्चिम बंगाल में तो सुबह का नास्ता ही मूढ़ी है. इसी मूढ़ी को परंपरागत तरीके से बनाने का काम गिरिडीह जिले के सदर प्रखंड के मटरुखा में किया जाता है. मटरुखा पंचायत के मटरुखा और महतोडीह में मूढ़ी बनाने का काम दशकों से चलता आ रहा है. इन दोनों गांव की सैकड़ों महिलाएं अपने परिवार के साथ मूढ़ी बनाने और इसे बेचने का काम करती रही हैं.

संवाददाता अमरनाथ सिन्हा की रिपोर्ट (ETV BHARAT)

शादी-विवाह से लेकर बच्चों को पढ़ाया भी

इस काम में वृद्ध महिलाओं के साथ-साथ युवतियां भी जुड़ी रही हैं. वर्तमान में सौ परिवार के रोजगार का मुख्य साधन मूढ़ी ही है. वैसे कुछ वर्ष पहले तक इस व्यवसाय से इन दोनों गांव की लगभग तीन सौ से अधिक परिवार जुड़े थे. इस कार्य से जुड़ी वृद्ध साबिया देवी, सगोरी देवी के अलावा सगोरी की बेटी खोमा देवी, कौशल्या देवी, प्रशांत मंडल, संजय मंडल बताते हैं कि पहले एक-एक परिवार 24-25 किलो से लेकर 50 किलो चावल का मूढ़ी बनाकर बेचते थे. लेकिन जलावन, चावल के महंगा होने और मशीन से मूढ़ी बनाने के कारण उनके व्यवसाय पर असर पड़ा है. अभी एक सप्ताह में आठ किलो मूढ़ी बनाते हैं और बेचते हैं. वे बताते हैं कि इस काम से उनलोगों ने बच्चों को पढ़ाया, शादी की, रोजगार से लेकर नौकरी के लिए तैयार किया. लेकिन अब मुश्किलें आ रही हैं.

लकड़ी की आंच में तैयार होता है मूढ़ी

यहां परंपरागत तरीके से मूढ़ी को तैयार किया जाता रहा है. लकड़ी की आंच पर बनने वाली मूढ़ी का स्वाद निराला है. हालांकि समय गुजरते गुजरते अब कई स्थानों पर मशीन से मूढ़ी बनने लगी है. सामाजिक कार्यकर्त्ता लवन मंडल कहते हैं कि सरकार को इस तरफ ध्यान देनी चाहिए.

सरकार से सहयोग की दरकार

स्थानीय मुखिया रविन्द्र मंडल कहते हैं कि यहां की मूढ़ी का डिमांड आसपास के कई जिलों में है. यह परम्परागत खाद्य पदार्थ है. झारखंड - बंगाल के रहने वाले ज्यादातर लोगों की सुबह के नास्ते की शुरुआत भी इसी मूढ़ी से होती है. लेकिन अब इस उद्योग को बचाने की जरूरत है. यहां के महिलाओं को सहयोग की जरूरत है ताकि यह परम्परा जीवित रहे और लकड़ी की सोंधी खुशुब से भरे मूढ़ी का स्वाद लोगों को मिलता रहे.

ये भी पढ़ें: कानपुर के तिल और छत्तीसगढ़ के गुड़ की कुटाई, तिलकुट से आए ऐसा स्वाद कि याद आ जाए रमना!

ये भी पढ़ें: जमशेदपुर के लोगों को शहर में ही मिल रहा गया के तिलकुट का स्वाद!

गिरिडीह: मकर संक्रांति का पर्व देश के कई हिस्सों में मनाया जाता है. तिल, गुड़, चूड़ा, दही और नया चावल के पकवान के अलावा इस पर्व में चावल से बनने वाले मूढ़ी (मुरमुरे) का भी अपना महत्व है. झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में मूढ़ी से लडडू बनता है. इस पर्व के अलावा मूढ़ी का उपयोग सालों भर किया जाता है.

झारखंड के कई जिलों और पश्चिम बंगाल में तो सुबह का नास्ता ही मूढ़ी है. इसी मूढ़ी को परंपरागत तरीके से बनाने का काम गिरिडीह जिले के सदर प्रखंड के मटरुखा में किया जाता है. मटरुखा पंचायत के मटरुखा और महतोडीह में मूढ़ी बनाने का काम दशकों से चलता आ रहा है. इन दोनों गांव की सैकड़ों महिलाएं अपने परिवार के साथ मूढ़ी बनाने और इसे बेचने का काम करती रही हैं.

संवाददाता अमरनाथ सिन्हा की रिपोर्ट (ETV BHARAT)

शादी-विवाह से लेकर बच्चों को पढ़ाया भी

इस काम में वृद्ध महिलाओं के साथ-साथ युवतियां भी जुड़ी रही हैं. वर्तमान में सौ परिवार के रोजगार का मुख्य साधन मूढ़ी ही है. वैसे कुछ वर्ष पहले तक इस व्यवसाय से इन दोनों गांव की लगभग तीन सौ से अधिक परिवार जुड़े थे. इस कार्य से जुड़ी वृद्ध साबिया देवी, सगोरी देवी के अलावा सगोरी की बेटी खोमा देवी, कौशल्या देवी, प्रशांत मंडल, संजय मंडल बताते हैं कि पहले एक-एक परिवार 24-25 किलो से लेकर 50 किलो चावल का मूढ़ी बनाकर बेचते थे. लेकिन जलावन, चावल के महंगा होने और मशीन से मूढ़ी बनाने के कारण उनके व्यवसाय पर असर पड़ा है. अभी एक सप्ताह में आठ किलो मूढ़ी बनाते हैं और बेचते हैं. वे बताते हैं कि इस काम से उनलोगों ने बच्चों को पढ़ाया, शादी की, रोजगार से लेकर नौकरी के लिए तैयार किया. लेकिन अब मुश्किलें आ रही हैं.

लकड़ी की आंच में तैयार होता है मूढ़ी

यहां परंपरागत तरीके से मूढ़ी को तैयार किया जाता रहा है. लकड़ी की आंच पर बनने वाली मूढ़ी का स्वाद निराला है. हालांकि समय गुजरते गुजरते अब कई स्थानों पर मशीन से मूढ़ी बनने लगी है. सामाजिक कार्यकर्त्ता लवन मंडल कहते हैं कि सरकार को इस तरफ ध्यान देनी चाहिए.

सरकार से सहयोग की दरकार

स्थानीय मुखिया रविन्द्र मंडल कहते हैं कि यहां की मूढ़ी का डिमांड आसपास के कई जिलों में है. यह परम्परागत खाद्य पदार्थ है. झारखंड - बंगाल के रहने वाले ज्यादातर लोगों की सुबह के नास्ते की शुरुआत भी इसी मूढ़ी से होती है. लेकिन अब इस उद्योग को बचाने की जरूरत है. यहां के महिलाओं को सहयोग की जरूरत है ताकि यह परम्परा जीवित रहे और लकड़ी की सोंधी खुशुब से भरे मूढ़ी का स्वाद लोगों को मिलता रहे.

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