देहरादून (रोहित सोनी): उत्तराखंड में शहरी स्थानीय निकाय चुनावों का शोर पूरे चरम पर है. नामांकन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अब राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह से चुनावी तैयारियों में जुट गई हैं. ऐसे में सभी लोग ये जानना चाहते हैं कि जिन पदों पर चुनाव लड़ने के लिए मारामारी हो रही हैं, उन पदों पर बैठने के बाद आखिरकार उन्हें कितनी तनख्वाह या कितना फायदा मिलता है.
आखिर क्या है एक मेयर की तनख्वाह और कितने पैसे मिलते हैं नगर पालिका अध्यक्ष से लेकर नगर पंचायत अध्यक्ष और पार्षदों को? नगर निकाय चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवारों को मिलने वाली सुविधा पर पढ़िए ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट.
लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव के साथ ही नगर निकायों का चुनाव भी काफी महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि ये शहरी क्षेत्र में गठित होने वाली स्थानीय सरकार होती है जो अपने क्षेत्र में तमाम विकास कार्यों को धरातल पर उतारने के साथ ही साफ सफाई समेत तमाम व्यवस्थाओं को दुरुस्त करती है. नगर निकायों में नगर प्रमुख यानी मेयर के साथ ही सभासद, नगर पालिका परिषद अध्यक्ष, नगर पालिका परिषद सदस्य, नगर पंचायत अध्यक्ष और नगर पंचायत सदस्य शामिल होते हैं. नगर निकायों के आरक्षण और चुनाव कार्यक्रमों समेत अन्य जिम्मेदारी शहरी विकास विभाग के पास होती है.
कितनी होती है मेयर और पार्षद की सैलरी? नगर निकायों के चुनाव हर 5 साल में कराए जाते हैं. लेकिन आपको ये जानकर बहुत हैरानी होगी कि जिस चुनाव के लिए उत्तराखंड में इन दिनों काफी शोर मचा हुआ है. इस चुनाव में जीतने वाले नेता को भले ही एक बड़ा पद मिल रहा हो, लेकिन उन्हें सैलरी के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता है. हालांकि, पद की गरिमा के अनुसार उन्हें तमाम सुविधाएं जरूर उपलब्ध कराई जाती हैं, जिसका सारा खर्च नगर निगम प्रशासन की ओर से उठाया जाता है. कुल मिलाकर नगर निकाय चुनाव में जीतने वाले नेता मेयर हों, सभासद हों, नगर पालिका परिषद अध्यक्ष हों, नगर पालिका परिषद सदस्य हों, नगर पंचायत अध्यक्ष हों या फिर नगर पंचायत सदस्य हो, इन्हें किसी भी तरह की कोई सैलरी नहीं दी जाती है.
राजनीतिक रसूख है बड़ी वजह: बावजूद इसके जब नगर निकाय चुनाव की तिथियों का ऐलान हुआ और प्रदेश की दोनों मुख्य पार्टियां, भाजपा और कांग्रेस की ओर से उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया शुरू हुई, तो नेताओं में टिकट पाने की होड़ मचने लगी. यहां तक कि टिकट न मिलने पर तमाम नेताओं ने न सिर्फ अपनी पार्टी का दामन छोड़ दिया, बल्कि कुछ नेताओं ने चुनाव लड़ने की इच्छा को पूरा करने के लिए निर्दलीय ही नामांकन भर दिया. हालांकि इसके पीछे एक बड़ी वजह यही मानी जा रही है कि अगर कोई व्यक्ति मेयर बन जाता है, तो इससे न सिर्फ उसका राजनीतिक कद बढ़ जाता है, बल्कि बड़ा मान सम्मान भी मिलता है.
मेयर, पार्षद का कोई वेतन नहीं-पूर्व मेयर: वहीं, ईटीवी भारत से बात करते हुए बीजेपी से पूर्व मेयर रहे और वर्तमान विधायक विनोद चमोली ने कहा कि मेयर पद पर कोई भी आर्थिक लाभ नहीं है. उत्तराखंड में न तो किसी मेयर का कोई वेतन है और नहीं किसी पार्षद का कोई वेतन है. हालांकि, ये व्यवस्था जरूर है कि मेयर को प्रशासनिक कार्य और ऑफिस चलाने के लिए सुविधाएं नगर निगम की ओर से उपलब्ध कराई जाती हैं. लेकिन किसी भी रूप में मेयर के खाते में कोई पैसा नहीं आता है. इसलिए इन पदों को लाभ का पद नहीं माना गया है.
'राजनीति में मेयर एक शुरुआती सीढ़ी': विनोद चमोली कहा कि कुछ लोग राजनीति को आजीविका से जोड़ लेते हैं, तो कुछ लोग उसको प्रतिष्ठा से जोड़कर देखते हैं. लेकिन मेयर एक प्रतिष्ठा का पद है, जिसमें लोग खुद से खर्चा करके मेयर के पद पर रहते हैं और शहर की सेवा करते हैं. जब कोई मेयर के पद पर रहता है, तो वो शहर का पहला नागरिक कहलाता है और ये सौभाग्य की बात है. साथ ही कहा कि अगर कोई व्यक्ति मेयर बन जाता है, तो उसका एक स्टेटस तो बन ही जाता है. ऐसे में उसकी राजनीतिक पार्टी की ओर से उसको खाली नहीं रखा जाएगा, बल्कि उसका उपयोग समाज में किया जाएगा. लिहाजा, मेयर रहने के बाद राजनीतिक क्षेत्र में एक रास्ता बनाया है.
चुनाव का खर्चा नहीं, ये खुद पर इन्वेस्टमेंट है-विनोद चमोली: देहरादून के पूर्व मेयर विनोद चमोली ने कहा कि वो दो बार चेयरमैन रह चुके हैं. एक बार मेयर रह चुके हैं, लेकिन उन्होंने कभी नहीं चाहा कि उन्होंने चुनाव में जो खर्च किया है, उसको रिकवर करें. हालांकि, उनका बहुत ज्यादा खर्च नहीं हुआ था, क्योंकि समाज भी चुनाव लड़ाता है, लोग सहयोग करते हैं. इसके साथ ही पार्षद भी चुनाव लड़ते हैं साथ ही वह मेयर के लिए भी वोट मांगते हैं. इससे मेयर का खर्चा कम होता है. ऐसे में अगर मेयर बनने के बाद मान सम्मान मिल रहा है और अपने आपको साबित कर पा रहे हैं, तो वह खर्च नहीं बल्कि अपने ऊपर इन्वेस्टमेंट है, जिसमें रिकवरी का कोई सवाल नहीं होता है. लेकिन जो लोग ये सोचकर काम करते हैं, वो एक व्यावसायिक मानसिकता है, जो ठीक नहीं है. ऐसे लोग ही राजनीति में समस्या बने हुए हैं.
'मेयर को ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए': साथ ही विनोद चमोली ने कहा कि हर पहलू में भ्रष्टाचार एक आचरण है, जो किसी भी व्यक्ति का हो सकता है. इसी तरह ईमानदारी भी एक आचरण है, जो किसी भी व्यक्ति में हो सकती है. ऐसे में ईमानदारी का आचरण राजनीति में भी हो सकता है, व्यापार में भी हो सकता है और वह आम जीवन में भी हो सकता है. साथ ही कहा कि बात सिर्फ मेयर की नहीं है, बल्कि जो व्यक्ति समाज में आगे आ गया है, समाज जिससे प्रेरित होता है उसका आचरण समाज में हमेशा अनुकरणीय होना चाहिए. हालांकि, मेयर एक बड़ा स्टेटस है, क्योंकि वह शहर का पहला नागरिक है, जिससे लोग प्रेरित होते हैं. मेयर का आचरण का बहुत शुद्ध, ईमानदार, सहनशील, विकासशील और संघर्ष पूर्ण होना चाहिए.
करोड़ों में रुतबा खरीद रहे उम्मीदवार? राजनीतिक जानकार जय सिंह रावत ने ईटीवी भारत से बातचीत में बताया कि मेयर बनने के बाद कोई आर्थिक लाभ नहीं होता है. सिर्फ व्यक्ति का रुतबा बढ़ता है. ऐसे में एक बड़ा सवाल यही उठता है कि कोई व्यक्ति रुतबा करोड़ों रुपए में क्यों खरीद रहा है? जय सिंह रावत ने कहा कि भ्रष्टाचार का असली कारण चुनाव है. यानी भ्रष्टाचार की गंगोत्री चुनाव से ही बहती है. शुरुआती दौर में जब टिकट बंटवारे की माथापच्ची चल रही थी, उस दौरान मेयर का टिकट करोड़ों में बिकने की बात सामने आई थी. ऐसे में अगर कोई व्यक्ति करोड़ रुपए खर्च करके मेयर बनेगा, तो उससे कैसे ईमानदारी की अपेक्षा की जा सकती है, कि वह शहर का भला सोचेगा. जबकि वह पहले खर्च की गई रकम को वसूलने की सोचेगा.
राज्य निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के अनुसार 61 वार्ड से अधिक वाले नगर निगम क्षेत्र में मेयर का चुनाव लड़ने के लिए खर्च सीमा 30 लाख रुपए रखी गई है. लेकिन देहरादून जैसे शहर में मात्र 30 लाख रुपए में मेयर का चुनाव नहीं लड़ा जा सकता है, क्योंकि मेयर के चुनाव में करोड़ के करीब रुपए खर्च होते हैं. यानी एक बड़ा भ्रष्टाचार होता है. इसके बारे में सभी लोग जानते हैं, लेकिन कोई भी इसका इलाज नहीं करता. जय सिंह रावत ने कहा कि लोकल चुनाव लोकतंत्र की बुनियादी इकाइयां हैं, ताकि इन बुनियादी इकाइयों से युवाओं और महिलाओं का नेतृत्व उभरे. हालांकि, इस लोकल चुनाव से नेतृत्व तो उभरता है, लेकिन लाखों करोड़ों रुपए खर्च भी करने पड़ते हैं.
मेयर को मंत्री जैसा अधिकार मिले-राजनीतिक जानकार: साथ ही राजनीतिक जानकार जय सिंह रावत ने कहा कि लोकतंत्र की जो बुनियादी इकाइयां हैं, उनको ज्यादा महत्व नहीं दिया जा रहा है. जबकि संविधान में जो संशोधन किया गया उसके अनुसार, यह बुनियादी इकाइयां संवैधानिक इकाइयां हैं और इनका उतना ही लीगल स्टेटस है जितना विधानसभा और लोकसभा का है. लेकिन उनको अधिकार नहीं दिया जाता है. जबकि मेयर को कैबिनेट मिनिस्टर का स्टेटस मिलना चाहिए, साथ ही मेयर को सैलरी पैकेज भी मिलना चाहिए क्योंकि जब मेयर को आर्थिक लाभ नहीं मिलेगा तो वह दाएं बाएं से इसका जुगाड़ करेगा. कुल मिलाकर बुनियादी इकाइयों से जुड़े नेताओं को आर्थिक लाभ दिया जाना चाहिए साथ ही इनको मंत्रियों और विधायकों की तरह अधिकार भी दिये जाने चाहिए.
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