लखनऊ : यूपी का आम अब देश- दुनिया में और भी खास बनेगा. आम उत्पादकों को बड़ी राहत मिली है. अब आम उत्पादकों को आम के पुराने पेड़ों की ऊंचाई कम करने और उनकी उत्पादकता बनाए रखने के लिए की जाने वाली काट-छांट के लिए किसी सरकारी विभाग से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है. इससे आम के पुराने बागों का कैनोपी प्रबंधन आसान हो गया है. इसका नतीजा आने वाले कुछ वर्षों में दिखेगा. कैनोपी के कारण आम के पुराने बाग नए सरीखे हो जाएंगे. इससे उत्पादन बढ़ने के साथ गुणवत्ता में भी सुधरेगी.
उत्तर प्रदेश में 2.6 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में आम की खेती से 45 लाख टन आम की पैदावार होती है. प्रदेश में 40 साल से अधिक उम्र के बगीचे लगभग 40 फीसद (लगभग एक लाख हेक्टयर) हैं. इन बागों में पुष्पों और फलों के लिए जरूरी नई पत्तियों और टहनियों की संख्या कम हो चुकी है. लंबी और मोटी-मोटी शाखाओं की ही अधिकता है. आपस में फंसी हुई शाखाओं के कारण बागों में पर्याप्त रोशनी का अभाव है.
पुराने बागों में दवा के छिड़काव में भी आती है दिक्कत : पेड़ों में कीट और बीमारियों का प्रकोप अधिक है. दवा अधिक लगने के साथ दवा का छिड़काव भी मुश्किल है. आम के भुनगे और थ्रिप्स के नियंत्रण के लिए छिड़की गई दवा अंदर तक नहीं पहुच पाती है. दवा की अधिक मात्रा से छिड़काव करने पर पर्यावरण भी प्रदूषित होता है. ऐसे बागों की उत्पादकता बमुश्किल सात टन तक मिल पाती है, जबकि एक बेहतर प्रबंधन वाले प्रति हेक्टेयर आम के बाग से 12-14 टन उपज लेना संभव है.
क्या है कैनोपी प्रबंधन : केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान रहमान खेड़ा लखनऊ के प्रधान वैज्ञनिक डॉ. हरिशंकर सिंह ने बताया कि सरकार के फैसले से आम उत्पादक आसानी से कैनोपी प्रबंधन कर सकेंगे. केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान ने आम के ऐसे वृक्षों के जीर्णोद्धार के लिए उचित काट-छांट की तकनीक विकसित की है, जिससे वृक्ष का छत्र खुल जाता है. पेड़ की ऊंचाई भी कम हो जाती है. इससे वृक्ष की तृतीयक शाखाओं की काट-छांट या टेबल टॉप प्रूनिंग भी कहा जाता है. इस प्रकार की काट-छांट से पेड़ दो से तीन साल में ही 100 किलोग्राम/वृक्ष का उत्पादन देने लगता है. इसी को कैनोपी कहते हैं.
रकबे और उत्पादन में आम का नंबर देश में प्रथम है. यहां के दशहरी, लंगड़ा, चौसा, आम्रपाली, गौरजीत की अपनी बेजोड़ खुशबू और स्वाद है. फिलहाल 15 साल से ऊपर के तमाम बाग जंगल जैसे लगते हैं. इनका रख-रखाव संभव नहीं. इसके नाते उत्पादन और उत्पाद की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है. कैनोपी प्रबंधन ही इसका एक मात्र हल है.
एक साथ सभी शाखाओं को कभी न काटें : वरिष्ठ प्रधान वैज्ञानिक डा. हरिशंकर सिंह के मुताबिक ऐसे बागों की सभी शाखाओं को एक साथ कभी न काटें, क्योंकि तब पेड़ को तनाबेधक कीट से बचाना मुश्किल हो जाता है. इनके प्रकोप से 20 से 30 प्रतिशत पौधे मर जाते हैं. गुजिया कीट के रोकथाम के लिए वृक्षों के तने के चारों ओर गुड़ाई कर क्लोर्पयरीफोस 250 ग्राम वृक्ष पर लगाएं. तनों पर पॉलीथिन की पट्टी बांधें. पाले से बचाव के लिए बाग की सिंचाई करें और अगर खाद नहीं दी गई है तो दो किलो यूरिया, तीन किलोग्राम एसएसपी और 1.5 किलो म्यूरियट ऑफ पोटाश प्रति वृक्ष देनी चाहिए.
फल के लिए संरक्षा और सुरक्षा का उपाय होगा आसान : उन्होंने बताया कि पौधरोपण के समय से ही छोटे पौधों का और 15 साल से ऊपर के बागानों का अगर वैज्ञानिक तरीके से कैनोपी प्रबंधन कर दिया जाए तो इनका रख-रखाव, समय-समय पर बेहतर बौर और फल के लिए संरक्षा और सुरक्षा का उपाय आसान होगा. इससे उत्पादन और गुणवत्ता दोनों सुधरेगी. निर्यात की संभावनाएं बढ़ जाएंगी. शुरुआत में ही मुख्य तने को 60 से 90 सेमी पर काट दें. इससे बाकी शाखाओं को बेहतर तरीके से बढ़ने का मौका मिलेगा. इन शाखाओं को किसी डोरी से बांधकर या पत्थर आदि लटकाकर प्रारम्भिक वर्षों (एक से पांच वर्ष) में पौधों को उचित ढांचा देने का प्रयास भी कर सकते हैं.
शाखाओं को काटने के बाद जरूर करें ये काम : उन्होंने बताया किकटे हुए स्थान पर 1:1:10 के अनुपात में कॉपर सल्फेट, चूना और पानी, 250 मिली अलसी का तेल, 20 मिली कीटनाशक मिलाकर लेप करें. गाय का गोबर और चिकनी मिट्टी का लेप भी एक विकल्प हो सकता है. इस प्रकार काटने से शुरू के वर्षों में बाकी बची शाखाओं से भी 50 से 150 किलोग्राम प्रति वृक्ष तक फल प्राप्त हो जाते हैं और लगभग तीन वर्षों में वृक्ष फिर से छोटा आकार लेकर फल देना प्रारंभ कर देते हैं.
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