दुमकाः संथाल परगना के प्रसिद्ध राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव की शुक्रवार को धूमधाम से शुरुआत हुई. मेला का उद्घाटन हिजला गांव के ग्राम प्रधान सुनीलाल हांसदा ने किया. दुमका में हिजला मेले के आयोजन का यह 135वां वर्ष है. इस मौके पर दुमका डीडीसी अभिजीत सिन्हा सहित कई पदाधिकारी मौजूद रहे. वहीं मेले में आदिवासी समाज के लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा. लोगों में उत्साह देखते ही बन रहा था. आदिवासी समाज के लोगों ने पारंपरिक नृत्य पेश कर खुशी का इजहार किया. वहीं मेले में विभागों की ओर से कई स्टॉल लगाए गए हैं. जहां ग्रामीणों को सरकार की योजनाओं की जानकारी दी जा रही है. मेले में व्यापारियों द्वारा तरह-तरह की दुकानें लगाई गई हैं. जहां लोग जमकर खरीदारी भी कर रहे हैं.
हिजला मेला का इतिहास
दुमका शहर से लगभग 05 किलोमीटर दूर मयूराक्षी नदी के तट पर प्रति वर्ष आयोजित होने वाला यह हिजला मेला कई मायनों में बेहद खास है. अगर इस मेले के आयोजन की पृष्ठभूमि की बात करें तो संथाल परगना के तत्कालीन अंग्रेज उपायुक्त जान आर. कास्टेयर्स ने इस क्षेत्र के ग्रामीणों को प्रशासन के करीब लाने के लिए 03 फरवरी 1890 में इस ऐतिहासिक मेले की नींव रखी थी. दरअसल, महाजनों के अत्याचार और प्रशासनिक शोषण से मुक्ति के लिए भोगनाडीह गांव के सिदो कान्हू जैसे वीरों ने स्थानीय लोगों को एकत्रित कर अंग्रेजों के खिलाफ 30 जून 1855 को 'संथाल हूल' का शंखनाद किया था. इस क्रांति के दौरान संतालों के नेता सिदो-कान्हू, चांद-भैरव सहित हजारों संताल सेनानियों ने अपनी शहादत दी थी. जिससे पूरा संथाल परगना आक्रोशित हो गया था. इससे क्षेत्र की शांति और प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई थी.
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संथालों को शांत कराना था मकदस
उस वक्त अंग्रेजों का अत्याचार और शोषण चरम पर था. संथाल जनजाति का विद्रोह, अंग्रेज शासन के लिए एक बड़ी समस्या बन गई थी. इसके साथ ही संथालों और स्थानीय जनता में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति आक्रोश, घृणा और रोष काफी बढ़ गया था. ऐसे में अंग्रेजों के लिए क्षेत्र की शांति और स्थिर शासन व्यवस्था के लिए संथालों और अंग्रेजी हुकूमत के बीच, शांति-सामंजस्य की स्थापना अति आवश्यक हो गई थी. इसलिए एक लंबे अरसे से चले आ रहे है इस आक्रोश को पाटने के लिए, ‘जॉन रॉबर्ट कैस्टर्स’ के द्वारा 03 फरवरी 1890 ई. को इस मेले की शुरुआत की गई थी. जानकारों की मानें तो ब्रिटिश प्रशासन मेले का आयोजन कर क्षेत्र के ग्राम प्रधान , मांझी के साथ स्थानीय लोगों के बैठक आयोजित करते और विभिन्न मुद्दों विचार-विमर्श करते थे. बैठक के बाद बनने वाले नियमावाली को अंग्रेजों के द्वारा ‘हिज लॉ’ कहा गया. जो बाद में चलकर धीरे-धीरे हिजला के नाम से प्रसिद्ध हुआ. इसी वजह से धीरे-धीरे यह आयोजन हिजला मेला के नाम से प्रसिद्ध हुआ. हिजला का अर्थ हिज-लॉ से है. इस स्थान पर हिजला नाम से एक गांव भी बस गया.
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बाबूलाल ने किया था राजकीय महोत्सव घोषित
झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की सरकार ने 2001 में इस मेले को एक महोत्सव के रूप में मनाने का निर्णय लिया था और इस मेले को “राजकीय महोत्सव ” घोषित किया था. तत्पश्चात इस मेले का नामकरण, “राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव” हो गया. दुमका में आयोजित होने वाला हिजला मेला संथाल जनजातियों के साथ-साथ अन्य सभी लोगों के लिए विशेष स्थान रखता है. इस मेले में दुमका के लोग बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं. साथ ही आसपास के जिलों में रहने वाले लोग भी इस मेले का आनंद लेने के लिए यहां पहुंचते हैं . कुल मिलाकर यह मेला दुमका के लिए एक पर्व-त्योहार की तरह बन चुका है. यह मेला लोगों को एक सूत्र में बांधने का भी काम करता है.
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समय बीतने के साथ हिजला मेला जनजातीय समुदाय की पारंपरिक संस्कृति , रीति-रिवाज और लोक कला को संरक्षित करते हुए लोगों से सीधे संवाद का बड़ा मंच बन गया. प्रतिवर्ष इस मेले में राज्य सरकार के सहयोग से झारखंड ही नहीं दूसरे राज्यों के भी लोक कलाकार आकर अपनी कला से लोगों का मनोरंजन करते हैं. इसके साथ ही सरकार के तमाम विभागों के आकर्षक स्टॉल लगाए जाते हैं. जिससे चल रही विकास योजनाओं की जानकारी दी जाती है. खासकर कृषि विभाग की प्रदर्शनी लोगों को काफी आकर्षित करती है. स्थानीय और दूर-दराज के व्यवसायी यहां अपनी दुकानें लगाते हैं.
हिजला मेला के उद्घाटन से जुड़ा अंधविश्वास
अक्सर आपने देखा होगा कि कोई भी बड़ा आयोजन होता है तो उसका उद्घाटन करने के लिए जनप्रतिनिधियों में होड़ मच जाती है, पर दुमका का यह राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव एक ऐसा आयोजन है जिसका उद्घाटन करने के लिए सभी दूर भागते हैं. चाहे वे मंत्री हो विधायक हो या फिर कोई उच्च अधिकारी. पिछले 25-30 वर्षों से यह अंधविश्वास फैल गया है कि जो इस मेले का उद्घाटन करते हैं उनकी कुर्सी चली जाती है. अगर हम 70-80 या 90 की दशक की बात करें तो उस वक्त ऐसी स्थिति नहीं थी. संयुक्त बिहार में मुख्यमंत्री के तौर पर भागवत झा आजाद, जगन्नाथ मिश्रा, लालू प्रसाद यादव सभी इस मेले का उद्घाटन कर चुके हैं. मेले का क्रेज ऐसा था कि इसका समापन समारोह में बिहार के गवर्नर आते थे.
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कहते हैं कि मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले में फंसने के बाद जब उनकी कुर्सी चली गई थी, तब इस अंधविश्वास को हवा दे दी गई कि उन्होंने कुछ दिनों पहले हिजला मेला का उद्घाटन किया था इस कारण गड़बड़ हो गया. धीरे-धीरे ऐसी स्थिति हो गई कि कोई मुख्यमंत्री या अन्य जनप्रतिनिधि इस ऐतिहासिक हिजला मेला के उद्घाटन और समापन समारोह में शामिल होने से कतराने लगे. यहां तक कि नेताओं के साथ अधिकारी भी हिजला मेला का उद्घाटन करने बचने लगे.
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ग्राम प्रधान ने दी जानकारी
ऐसे में पिछले कई वर्षों से स्थानीय हिजला गांव के ग्राम प्रधान सुनीलाल हांसदा ही इस मेले का उद्घाटन करते हैं. इस संबंध में सुनीलाल हांसदा ने कहा कि सभी कुर्सी जाने के डर से हिजला मेला का उद्घाटन नहीं करते हैं, पर मुझे उद्घाटन करने में कोई झिझक नहीं होती है. इसके उलट मुझे काफी खुशी होती है. मेले के उद्घाटन का मैं प्रत्येक वर्ष इंतजार करता हूं.
क्या कहते हैं दुमका सांसद और बुद्धिजीवी
हिजला मेला का उद्घाटन करने वाले जनप्रतिनिधि की कुर्सी चली जाती है इस मुद्दे पर ईटीवी भारत ने दुमका के सांसद नलिन सोरेन से फोन पर बातचीत की. इस पर उन्होंने बताया कि मैं पिछले सात टर्म से यहां से विधायक हूं. वर्तमान में दुमका सांसद हूं. उन्होंने कहा कि यह अंधविश्वास फैला है कि उद्घाटन करने वाले की कुर्सी चली जाती है. उन्होंने कहा कि हमने भी हिजला मेला का कभी उद्घाटन नहीं किया है. इधर, इस संबंध में दुमका के वरिष्ठ पत्रकार और व्यवहार न्यायालय के अधिवक्ता शिवशंकर चौधरी भी कहते हैं कि यह अंधविश्वास इतना जोर पकड़ा कि कोई भी जनप्रतिनिधि , मंत्री , विधायक , अधिकारी इसका उद्घाटन नहीं करना चाहते हैं. इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि एक-दो वरिष्ठ अधिकारियों जिन्होंने मेला का उद्घाटन किया था उनका दुमका से तबादला हो गया था. तब से यह अंधविश्वास और जड़ कर गया.
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