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यूपी के इस गांव के पेड़ पर 52 स्वतंत्रता सेनानियों को दी गई थी फांसी, 36 दिन तक चील-कौवे नोचते रहे थे शव - Story of Independence - STORY OF INDEPENDENCE

आजादी के इतिहास में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान देश की इकलौती ऐसी घटना जिसमें अंग्रेजों ने एक साथ 52 लोगों को इमली के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया था. पेड़ पर 36 दिन तक क्रांतिकारियों के शवों को चील और कौवे नोच-नोच कर खाते रहे. जिले की बिंदकी तहसील में इमली के पेड़ को इस घटना के बाद से 52 इमली के नाम से जाना गया. आजाद भारत में यह स्थान बलिदान स्थल घोषित है.

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फतेहपुर के बिंदकी के पारादान गांव में स्थित इमली का पेड़. (Photo Credit; ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Aug 15, 2024, 1:15 PM IST

फतेहपुर: शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही बांकी निशा होगा'. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंकने वाले यूपी के फतेहपुर के अमर शहीद ठाकुर जोधा सिंह अटैया व उनके 51 साथियों को 28 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी गई. जिस इमली के पेड़ में इन क्रांतिकारियों को फांसी दी गई, आज वह एक वृक्ष तीर्थ बन चुका है. यहां पहुंचने वाले लोग खुद ये पंक्तियां शहीदों की याद में गुनगुनाने लगते हैं.

आजादी के इतिहास में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान देश की इकलौती ऐसी घटना जिसमें अंग्रेजों ने एक साथ 52 लोगों को इमली के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया था. पेड़ पर 36 दिन तक क्रांतिकारियों के शवों को चील और कौवे नोच-नोच कर खाते रहे. जिले की बिंदकी तहसील में इमली के पेड़ को इस घटना के बाद से 52 इमली के नाम से जाना गया. आजाद भारत में यह स्थान बलिदान स्थल घोषित है.

बिंदकी तहसील मुख्यालय से तीन किमी दूर मुगल रोड पर पारादान गांव में शहीद स्मारक स्थल पर खड़ा इमली का पेड़ स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का प्रतीक है. 28 अप्रैल 1858 की इस घटना के वर्षों बीतने के बाद अब इमली का यह पेड़ बूढ़ा हो चला है, पर मौसम के तमाम झंझावतों को झेलने बाद भी हरा भरा है.

10 मई 1857 को मेरठ की बैरकपुर छावनी में चर्बी वाली कारतूसों को लेकर मंगल पांडेय ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था. इसी के साथ फतेहपुर के क्रांतिकारी वीर जोधासिंह अटैया के नेतृत्व में आजादी का बिगुल फूंक दिया गया था.

फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खां इनके प्रमुख सहयोगी थे. क्रांतिकारियों ने 10 जून 1857 को सबसे पहले फतेहपुर कचहरी व कोषागार पर कब्जा कर लिया था. जोधासिंह अटैया का संबंध अब देश अन्य क्रांतिकारियों से संबंध स्थापित हो गए.

अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारियों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ने लगे. इन लोगों ने 27 अक्टूबर 1857 को महमूदपुर गांव में ठहरे एक दारोगा व सिपाही को उसी घर में जलाकर मार डाला. 7 दिसम्बर 1857 को महमूदपुर गांव में ठहरे एक दारोगा व सिपाही को उसी घर में जलाकर मार डाला.

सात दिसम्बर 1857 को गंगापार रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला कर अंग्रेजों के खास मुखबिर को मार डाला. क्रांतिकारियों ने खजुहा को केंद्र बनाया, क्योंकि यहां से चारों ओर आने जाने की बेहतर सुविधा थी. इसी दौरान किसी देशद्रोही ने प्रयागराज से कानपुर जा रहे कर्नल पावेल को यहां क्रांतिकारियों के एकत्र होने की जानकारी दे दी. कर्नल ने क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया.

हालांकि गुरिल्ला युद्ध में निपुण क्रांतिकारियों ने कर्नल पावेल को मार दिया. इसकी खबर लगते ही अंग्रेजी हुकूमत ने कर्नल नील के नेतृत्व में सेना भेजी. इसमें क्रांतिकारियों को भारी हानि उठानी पड़ी. इसके बाद भी जोधा सिंह अटैया व उनके साथियों का हौसला कम नहीं हुआ.

इन्होंने फिर नए सिरे से सेना को संगठित करने के साथ ही शस्त्र एकत्र कर धन संग्रह के लिए योजना बनाई. दुर्भाग्य से जोधा सिंह अटैया अरगल नरेश से आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने के बारे में सलाह मसविरा कर खजुहा लौट रहे थे. इसी दौरान किसी देशद्रोही की सूचना पर घोरहा गांव के पास कर्नल क्रिस्टाइल की घुड़ सवार सेना ने इन्हें घेर लिया. कुछ देर तक लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने जोधा सिंह अटैया व उनके 51 क्रांतिकारी साथियों को बंदी बना लिया.

28 अप्रैल 1858 को पारादान गांव के पास इन सभी सभी को अंग्रेजों ने इमली के पेड़ में फांसी पर लटका दिया. 28 अप्रैल 1858 को फांसी पर लटकाए जाने के बाद ठाकुर जोधा सिंह अटैया व उनके 51 क्रांतिकारियों के शव इमली के पेड़ पर लटकते रहे.

अंग्रेजों ने मुनादी करा दी थी कि जो भी शव को उतारेगा उसे भी फांसी दे देंगे. चार जून 1857 को ठाकुर महराज सिंह ने क्रांतिकारियों को एकत्र कर इमली के पेड़ से कंकाल उतर कर शिवराजपुर गंगा तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया.

ये भी पढ़ेंः लखनऊ की पुरानी इमारते कहती हैं आजादी की कहानी; दीवारों पर आज भी दिखते क्रांति के निशान

फतेहपुर: शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही बांकी निशा होगा'. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंकने वाले यूपी के फतेहपुर के अमर शहीद ठाकुर जोधा सिंह अटैया व उनके 51 साथियों को 28 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी गई. जिस इमली के पेड़ में इन क्रांतिकारियों को फांसी दी गई, आज वह एक वृक्ष तीर्थ बन चुका है. यहां पहुंचने वाले लोग खुद ये पंक्तियां शहीदों की याद में गुनगुनाने लगते हैं.

आजादी के इतिहास में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान देश की इकलौती ऐसी घटना जिसमें अंग्रेजों ने एक साथ 52 लोगों को इमली के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया था. पेड़ पर 36 दिन तक क्रांतिकारियों के शवों को चील और कौवे नोच-नोच कर खाते रहे. जिले की बिंदकी तहसील में इमली के पेड़ को इस घटना के बाद से 52 इमली के नाम से जाना गया. आजाद भारत में यह स्थान बलिदान स्थल घोषित है.

बिंदकी तहसील मुख्यालय से तीन किमी दूर मुगल रोड पर पारादान गांव में शहीद स्मारक स्थल पर खड़ा इमली का पेड़ स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान का प्रतीक है. 28 अप्रैल 1858 की इस घटना के वर्षों बीतने के बाद अब इमली का यह पेड़ बूढ़ा हो चला है, पर मौसम के तमाम झंझावतों को झेलने बाद भी हरा भरा है.

10 मई 1857 को मेरठ की बैरकपुर छावनी में चर्बी वाली कारतूसों को लेकर मंगल पांडेय ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था. इसी के साथ फतेहपुर के क्रांतिकारी वीर जोधासिंह अटैया के नेतृत्व में आजादी का बिगुल फूंक दिया गया था.

फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खां इनके प्रमुख सहयोगी थे. क्रांतिकारियों ने 10 जून 1857 को सबसे पहले फतेहपुर कचहरी व कोषागार पर कब्जा कर लिया था. जोधासिंह अटैया का संबंध अब देश अन्य क्रांतिकारियों से संबंध स्थापित हो गए.

अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारियों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ने लगे. इन लोगों ने 27 अक्टूबर 1857 को महमूदपुर गांव में ठहरे एक दारोगा व सिपाही को उसी घर में जलाकर मार डाला. 7 दिसम्बर 1857 को महमूदपुर गांव में ठहरे एक दारोगा व सिपाही को उसी घर में जलाकर मार डाला.

सात दिसम्बर 1857 को गंगापार रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला कर अंग्रेजों के खास मुखबिर को मार डाला. क्रांतिकारियों ने खजुहा को केंद्र बनाया, क्योंकि यहां से चारों ओर आने जाने की बेहतर सुविधा थी. इसी दौरान किसी देशद्रोही ने प्रयागराज से कानपुर जा रहे कर्नल पावेल को यहां क्रांतिकारियों के एकत्र होने की जानकारी दे दी. कर्नल ने क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया.

हालांकि गुरिल्ला युद्ध में निपुण क्रांतिकारियों ने कर्नल पावेल को मार दिया. इसकी खबर लगते ही अंग्रेजी हुकूमत ने कर्नल नील के नेतृत्व में सेना भेजी. इसमें क्रांतिकारियों को भारी हानि उठानी पड़ी. इसके बाद भी जोधा सिंह अटैया व उनके साथियों का हौसला कम नहीं हुआ.

इन्होंने फिर नए सिरे से सेना को संगठित करने के साथ ही शस्त्र एकत्र कर धन संग्रह के लिए योजना बनाई. दुर्भाग्य से जोधा सिंह अटैया अरगल नरेश से आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने के बारे में सलाह मसविरा कर खजुहा लौट रहे थे. इसी दौरान किसी देशद्रोही की सूचना पर घोरहा गांव के पास कर्नल क्रिस्टाइल की घुड़ सवार सेना ने इन्हें घेर लिया. कुछ देर तक लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने जोधा सिंह अटैया व उनके 51 क्रांतिकारी साथियों को बंदी बना लिया.

28 अप्रैल 1858 को पारादान गांव के पास इन सभी सभी को अंग्रेजों ने इमली के पेड़ में फांसी पर लटका दिया. 28 अप्रैल 1858 को फांसी पर लटकाए जाने के बाद ठाकुर जोधा सिंह अटैया व उनके 51 क्रांतिकारियों के शव इमली के पेड़ पर लटकते रहे.

अंग्रेजों ने मुनादी करा दी थी कि जो भी शव को उतारेगा उसे भी फांसी दे देंगे. चार जून 1857 को ठाकुर महराज सिंह ने क्रांतिकारियों को एकत्र कर इमली के पेड़ से कंकाल उतर कर शिवराजपुर गंगा तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया.

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