लखनऊ : राजधानी के कैसरबाग स्थित सफेद बरादरी और सलेमपुर हाउस में चल रहे 'सनतकदा महोत्सव' में इस बार ‘गली कूचे’ की थीम पर विशेष प्रदर्शनी लगाई गई है. इस प्रदर्शनी में लखनऊ की ऐतिहासिक गलियों, पारंपरिक कारीगरी, लज्जत, हुनर और धरोहर को जीवंत रूप में प्रदर्शित किया गया है.
पुरानी गलियों की झलक : लखनऊ की गलियों के नाम सदियों से अपनी खास पहचान बनाए हुए हैं. फूल वाली, बान वाली, रोटी वाली, चूड़ी वाली, कंघी वाली, डोर वाली, दरी वाली, जूते वाली, मैदे वाली और सिरके वाली गलियां. ये गलियां कभी अपने नाम के अनुसार ही मशहूर थीं, लेकिन वक्त के साथ इनका स्वरूप बदल चुका है. इसी विरासत को सहेजने के लिए इस महोत्सव में इन गलियों के पुराने रूप को प्रस्तुत किया गया है.
लखनऊ की ऐतिहासिक धरोहर का पुनर्जागरण : 1775 में नवाब आसफउद्दौला ने जब अवध की राजधानी को फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित किया तो शहर को नवाबी शान-ओ-शौकत के अनुरूप बसाने की जरूरत महसूस हुई. इस महोत्सव में उसी दौर की झलक दिखाने के लिए ‘हमारी गली, हमारी दुनिया’ फिल्म से इसकी शुरुआत की गई. इसके अलावा ‘गलियों में लखनऊ’, ‘कहानी हर मोड़ पर’, ‘गलियों के साथी’, ‘राजा बाजार की सैर’ और ‘अमीनाबाद की झलक’ जैसी प्रस्तुतियां भी की गईं.
बावर्ची टोला में लजीज व्यंजन : सलेमपुर हाउस में बावर्ची टोला को फिर से जीवंत किया गया है, जहां लखनऊ के मशहूर जायकों का स्वाद चखने को मिल रहा है. रहीम की कुल्चा-निहारी, द वेलवेट बॉक्स, मनीषा की किचन, शुक्ला मिठाई, स्ट्रीट फूड ये सभी स्टॉल लखनवी व्यंजनों के पुराने स्वाद को संजोए हुए हैं, जो दर्शकों को अपनी ओर खींच रहे हैं.
पुरानी यादों को ताजा करता महोत्सव : डॉ. दुआ नकवी ने इस महोत्सव को खास बताते हुए मुनव्वर राणा का शेर सुनाया—
"इक लुत्फ़-ए-ख़ास दिल को तेरी आरज़ू में है,
अल्लाह जाने कितनी कशिश लखनऊ में है."
उन्होंने कहा कि यह महोत्सव पुरानी यादों को ताजा करने और युवा पीढ़ी को लखनऊ की तहज़ीब, कला और परंपरा से रूबरू कराने का बेहतरीन प्रयास है.
डायरेक्टर तस्वीर हसन का कहना है कि इस बार लखनऊ की पहचान को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने के लिए 'गली कूचे' थीम रखी गई है. उन्होंने कहा कि लखनऊ सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि तहजीब, परंपरा, शिल्प और जायकों का संगम है.
लखनऊ की कारीगरी और हस्तशिल्प की झलक : महोत्सव में विभिन्न पारंपरिक हस्तशिल्प का स्टॉल भी लगाया गया है, जिनमें चिकनकारी, झूमर बनाना, चांदी के जूते-चप्पल, लकड़ी और कपड़े पर नक्काशी शामिल है. यहां आए लोगों का मानना है कि इस महोत्सव से उन्हें लखनऊ की पुरानी कारीगरी और मेहनतकश कारीगरों की कला को करीब से समझने का मौका मिला. इस महोत्सव में कई ऐसे लोग शामिल हुए, जिन्होंने अपने पुराने लखनऊ को फिर से देखने का अनुभव साझा किया.
दर्शक हरीश श्रीवास्तव ने कहा कि यह महोत्सव हमें हमारे जमाने की याद दिला रहा है. हम जिन गलियों में पले-बढ़े, जहां नवाबी तहजीब हर घर में बसती थी, वे अब धीरे-धीरे बदल रही है. महोत्सव में आईं अमिता श्रीवास्तव ने कहा कि पुराने दौर में जब हम लखनऊ आते थे, तो तांगे चलते थे, गलियों में अलग रौनक होती थी. इस महोत्सव में वह सब देखना बहुत सुखद है.
युवा पीढ़ी के लिए सीख : महोत्सव में शामिल युवाओं के लिए यह एक अनोखा अनुभव रहा. पहली बार महोत्सव आईं अनुष्का ने कहा कि मैं लखनऊ की नहीं हूं, लेकिन यहां आकर मुझे शहर की तहज़ीब को समझने का बेहतरीन मौका मिला. चौक और अमीनाबाद की गलियों की खूबसूरती को शानदार तरीके से दिखाया गया है. इशिता सिंह ने कहा कि हमने अपने दादा-दादी, नाना-नानी से लखनऊ की जो कहानियां सुनी थीं, उन्हें यहां देखकर बहुत अच्छा लग रहा है. इशिका ने कहा कि इस महोत्सव से उन्हें यह समझने का अवसर मिला कि कारीगरी के पीछे कितनी मेहनत होती है और इसका ऐतिहासिक महत्व क्या है.
संस्कृति और विरासत को सहेजने की पहल : महोत्सव में आईं नशरा ने कहा कि यह सिर्फ एक प्रदर्शनी नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर का उत्सव है. हम अपने तहज़ीब और परंपरा को आगे बढ़ाना चाहते हैं और चाहते हैं कि इस तरह के आयोजन होते रहें, ताकि हम अपनी विरासत को संजो सकें.
उन्होंने कहा कि लखनऊ की गलियां सिर्फ रास्ते नहीं, बल्कि शहर की आत्मा हैं. इस महोत्सव में उन गलियों को जीवंत किया गया है, जिनमें नवाबी दौर की झलक मिलती थी. लखनऊ सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि गंगा-जमुनी तहज़ीब, अदब, मिठास और शिल्प का संगम है. 'सनतकदा महोत्सव' इसी विरासत को संजोने और अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का बेहतरीन जरिया साबित हो रहा है.
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