वाराणसी : बड़ी संख्या में लोग गंगा में मिलने वाली मछलियों का सेवन करते हैं, लेकिन अब यह मछलियां लोगों की सेहत के लिए खतरनाक हैं. इसको लेकर पर्यावरण वैज्ञानिक ने शोध किया है. उन्होंने बताया कि, गंगा में पलने वाली मछलियों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा ज्यादा पाई गई है, जो पर्यायवरण के साथ लोगों की सेहत के लिए भी बेहद घातक है. इसके सेवन से न सिर्फ मछलियों का जीवन प्रभावित होता है, बल्कि मानव सेहत पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
बता दें कि, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के पर्यावरण एवं धारणीय विकास संस्थान में यह शोध किया गया. यह शोध 3 वर्षों तक चला, जिसमें इस बात का पता चला कि गंगा में कभी नष्ट न होने वाले प्लास्टिक के अति सूक्ष्म कण मौजूद हैं जो मछलियों के भीतर भी मिले हैं और इन मछलियों को खाने वाले मनुष्य के शरीर में यह पहुंचकर बीमारियों का खतरा भी बढ़ा रहे हैं. पर्यावरण वैज्ञानिक के मुताबिक, कानपुर से लेकर वाराणसी तक में शोध किया गया, जिसमें वाराणसी में सबसे ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक पाया गया. आंकड़ों की बात करें तो कानपुर में गंगा के साथ ही जल में माइक्रोप्लास्टिक की संख्या 2.6 पार्टिकल्स पर मीटर क्यूब है, जबकि वाराणसी में माइक्रोप्लास्टिक की संख्या 2.42 पार्टिकल्स पर मीटर क्यूब मौजूद है.
कानपुर से ज्यादा बनारस में माइक्रोप्लास्टिक : इस विषय पर शोध कर रहे असिस्टेंट प्रो. डॉ. कृपाराम ने बताया कि माइक्रोप्लास्टिक के 5000 माइक्रोमीटर तक छोटे आकार के कण होते हैं, जो गंगा और मछलियों में पाए गए हैं. यह शोध बनारस से कानपुर तक गंगाजल में हुआ है. शोध में कानपुर और प्रयागराज से कहीं ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक वाराणसी के गंगा जल में मिली है. उन्होंने बताया कि कानपुर की तुलना में बनारस में गंगाजल में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा दोगुनी से भी ज्यादा है. यहां पर प्लास्टिक मिलना बेहद हैरान करने वाला था, क्योंकि यहां पर कोई बड़ी इंडस्ट्री या कल कारखाना नहीं है, लेकिन यह हकीकत है. गंगा में माइक्रोप्लास्टिक सीवेज में मिलकर जा रहा है, जिससे गंगा की सेहत के साथ उनमें पलने वाली मछलियों के सेहत पर भी बुरा असर पड़ रहा है. जो आम जनमानस के लिए भी बेहद घातक है.
बनारस में चार प्रमुख घाटों पर शोध : उन्होंने बताया कि शोध में यदि बनारस की बात करें तो हमने बनारस में चार प्रमुख घाटों को लिया. जिसमें केदारेश्वर घाट, दशाश्वमेध घाट, शीतला घाट, अस्सी घाट हैं. इसमें सबसे ज्यादा माइक्रो प्लास्टिक अस्सी घाट पर मिली है. उन्होंने बताया कि, यदि गंगा में इनके स्रोत को देखें तो यह सीवेज व अन्य स्रोतों के जरिए पहुंचते हैं. सीवरेज के साथ लंबे समय तक कूड़े में धूप में प्लास्टिक पड़े होने से वह टूटकर हवा के जरिए भी गंगा में मिलते हैं, क्योंकि वह नष्ट नहीं होते इसलिए वह गंगा में मौजूद रहते हैं. यह बेहद छोटे होते हैं और खाने के साथ मछलियां इनका भी सेवन करती है, जिस वजह से यह उनके शरीर में माइक्रोप्लास्टिक ज्यादा है.
रोहू में सबसे ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक : उन्होंने बताया कि मछलियों की बात करें तो वाराणसी क्षेत्र में चार प्रजातियों की मछलियां कॉमन क्रॉप, टेंगरा मछली, भोला मछली और रोहू पकड़ी गई. उनके 62 नमूने लिए गए, जिसमें उनके गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट और मांसपेशियों की जांच की गई. जिसमें पता चला कि, 66 फीसदी मछलियों में गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट और 15 फीसदी मछलियों के मांसपेशियों में माइक्रो प्लास्टिक मिला है. ब्रिड की बात करें तो रोहू में सबसे ज्यादा माइक्रोप्लास्टिक पाई गई है.
आम जनमानस को भी कर रहे प्रभावित : प्रो. कृपाराम बताते हैं कि माइक्रोप्लास्टिक युक्त मछली का सेवन करना मानव शरीर के लिए घातक है, लेकिन ये कितना ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है, इस पर अभी शोध किया जा रहा है. ये केवल पर्यावरण तक ही सीमित नहीं है. मानव शरीर जैसे मल, रक्त, प्लेसेंटा, फेफड़ों में भी पाए गए हैं. नॉन डिग्रेडेबल होने की वजह से इन्हें आसानी से पचाया नहीं जा सकता. निगले गए माइक्रोप्लास्टिक की वजह से पाचन तंत्र खासा प्रभावित होता है. एक बार जब यह मानव शरीर में चला जाता है तो आरओएस उत्पादन और एंटीऑक्सीडेंट प्रणाली के बीच असंतुलन पैदा करता है, जिससे मेटाबॉलिज्म शरीर में सबसे ज्यादा प्रभावित होता है. WHO ने भी माइक्रोप्लास्टिक की प्रतिकूल प्रभावों के बारे में चेतावनी दी थी, हालांकि यह अभी तक नहीं क्लियर हो पाया है कि यह मानव शरीर के लिए कितना ज्यादा नुकसानदायक है.
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