दमोह। 24 जून को सिंग्रामपुर में रानी दुर्गावती का बलिदान दिवस मनाया जाएगा. सभी तैयारियां पूरी हो गई है. संस्कृति मंत्री धर्मेंद्र लोधी कार्यक्रम में मौजूद रहेंगे. पेश है रानी दुर्गावती से जुड़े ऐतिहासिक पहलुओं को उजागर करती रिपोर्ट.
रानी की वीर गाथाओं से भरा पड़ा इतिहास
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी. बाल भारती की किताबों में सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता तो सभी ने खूब पढ़ी होगी, लेकिन इसी भारत भूमि पर जन्म लेने वाली रानी दुर्गावती के साहस और वीरता की भी गाथाएं भरी पड़ी है. यह बात अलग है कि उन्हें इतिहास में वह स्थान और सम्मान नहीं मिला जो अन्य राजाओं और रानियों की वीरता को मिला है.
अकबर की दासता को ठुकराया
52 गढ़ की रानी के नाम से मशहूर वीरांगना दुर्गावती ऐसी ही रानी थीं. जिन्होंने अकबर की दासता स्वीकार करने से बेहतर खुद को राज्य के लिए बलिदान करना उचित समझा. देश भर में 24 जून को रानी दुर्गावती का बलिदान दिवस मनाया जाता है. इस बार भी वृहद कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. सिंग्रामपुर में प्रतिवर्ष 24 जून को मनाए जाने वाले वृहद बलिदान दिवस की शुरुआत मध्य प्रदेश शासन में मंत्री रहे रत्नेश सोलोमन ने करीब 30 साल पहले शुरू कराई थी. दमोह जिला मुख्यलय से करीब 65 किलोमीटर दूर जबलपुर रोड पर स्थित सिंगौरगढ़ किला और उसका इतिहास किसी परिचय का मोहताज नहीं है.
प्रतिहार राजाओं ने कराया था निर्माण
इस किले का निर्माण सातवीं शताब्दी में प्रतिहार राजाओं ने कराया था. उनके बाद कलचुरी राजाओं ने इस पर राज किया. कलचुरी राजाओं के बाद यह किला संग्राम शाह के कब्जे में आ गया. उन्होंने करीब 40 वर्ष तक यहां पर शासन किया. 1541 में संग्राम शाह की मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे दलपत शाह ने गौंड साम्राज्य की कमान संभाली, लेकिन सिर्फ 7 सालों तक ही वह सत्ता का सुख भोग सके और बीमारी के कारण 1548 में उनकी मृत्यु हो गई. इसके बाद वीरांगना दुर्गावती सिंग्रामपुर में गद्दी संभाली. उन्होंने सिंगौरगढ़ को अपनी राजधानी बनाया.
मुगलों से लिया लोहा
रानी की सुंदरता की चर्चे हर जगह थे. 1964 में अकबर के कानों में यह बात पहुंची तो उसने अपने सिपहसालार और मानिकपुर के सामंत आसफ खान को 10 हजार घोड़ों और कई हजार पैदल सेना के साथ सिंगौरगढ़ पर चढ़ाई करने भेज दिया. अपनी वीरता का परिचय देते हुए रानी और उनकी सेना ने आसफ खान को मार भगाया.
शिल्प कला का अद्भुत नमूना
करीब 13 सौ वर्ष पूर्व इस महल का निर्माण किया गया था. उस समय की वास्तु एवं शिल्प कला कितनी समृद्ध थी. इस बात का पता किले और उसके आसपास बिखरी पुरा संपदा पर की गई नक्काशी, बारीकी से किए गए निर्माण को देखने पर चलता है. जबकि उस समय आज की तरह आधुनिक संसाधनों का पूरी तरह अभाव था. यहां पर भगवान विष्णु, गणेश, नाग सहित विभिन्न देवी देवताओं की कई प्रतिमाएं मौजूद है. द्वार स्तंभों पर कमल दल बने हुए हैं जो इसके वैभवशाली इतिहास का वर्णन करते हैं.
कटार से किया आत्म बलिदान
पुरातत्व के पितामह कहे जाने वाले अलेक्जेंडर कनिंघम के मेंमायर में इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब रानी से आसफ खान ने अकबर की दासता स्वीकार करने की बात कही तो रानी ने बदले में उसे एक पैजनी (पैजनी जुलाहों का एक यंत्र होता है) भेज दी. आसफ खान जाति से जुलाहा था, इसलिए रानी ने पैजनी भेज कर उसे संदेश दिया की युद्ध में लड़ना तुम्हारा काम नहीं है. तुम जुलाहा हो और वही काम करो. इस बात से आसफ खान और भी अधिक आग बबूला हो गया. उसने इसके बाद किले पर एक बड़ी सेना के साथ चढ़ाई कर दी.
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देवर चंद्र शाह ने की गद्दारी
इस युद्ध में रानी के देवर चंद्र शाह और कुछ गद्दारों ने आसफ का सहयोग किया. इस बार रानी को उनके विश्ववस्त सिपाहसालारों ने मंडला की ओर रवाना कर दिया व खुद भी लड़ते हुए शहीद हो गए. आसफ खान उनका पीछा करता हुआ जबलपुर के निकट नरेन नाला तक पहुंच गया. वहां पर जब रानी ने अपने आप को शत्रुओं से घिरा पाया तो उन्होंने अपनी कटार निकाल कर अपना आत्म बलिदान कर दिया. इसके पूर्व उन्होंने अपने कुछ सैनिकों के साथ अपने एक मात्र पुत्र वीर नारायण जिसकी उम्र उस समय करीब 7 साल थी. नरसिंहपुर के निकट रवाना कर दिया, लेकिन वहां पर भी शत्रु दल पहुंच गया और रानी के सैनिक वीर नारायण को बचाते हुए शहीद हो गए. इसके बाद मुगलों ने वीर नारायण की भी हत्या.