मेरठ : पश्चिमी यूपी में पावरफुल माने जाने वाली राष्ट्रीय लोकदल के अगर राजनीतिक कॅरियर की बात करें, तो पार्टी ने यहां अपने साथियों को कई बार बदला है. यही वजह है कि इस पार्टी ने कई बार उतार चढ़ाव देखे हैं. कई बार गिर कर खुद को संभाला भी है. ऐसी परिस्थितियां भी आई हैं जब कभी लोकसभा में खाता नहीं खुला तो कभी विधानसभा चुनाव में अकेला ही विधायक पार्टी का पहुंच पाया. रालोद की खासियत यही रही कि राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पार्टियों को भी इस दल का साथ पसंद रहा.
देश की राजनीति में यूपी की बड़ी अहमियत है. ठीक उसी तरह पश्चिमी यूपी में राष्ट्रीय लोकदल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. इसकी वजह है कि इस दल का साथ कई दलों को पसंद आता रहा. यह क्रम अब भी जारी है. अपने पिता चौधरी अजित सिंह के द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय लोकदल को मजबूत करने का जिम्मा अब जयंत चौधरी पर है. जयंत भी राजनीतिक उठा पटक के बीच सोच समझ कर आगे बढ़ रहे हैं. चौधरी परिवार का गठबंधन कांग्रेस, सपा के साथ भी रहा है. भाजपा के साथ पहले भी कई बार रालोद लगा रहा. वर्ष 1989 में चौधरी अजित सिंह राजनीतिक रूप से जनता दल का ही हिस्सा रहे थे.
देश में 2004 में हुए लोकसभा चुनावों की बात करें तो राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी तब मिलकर चुनाव लड़े थे. आरएलडी ने तब तीन लोकसभा सीटें जीत ली थीं. हालांकि सपा को ज्यादा फायदा हुआ था. तब सपा को 35 सीटें मिली थीं, लेकिन यह गठबंधन चार साल ही चल पाया था. इसके बाद वर्ष 2007 में फिर सपा और आरएलडी अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं तब आरएलडी 10 सीटें जीतने में सफलता मिली थी.
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने तब बीजेपी के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ा. इसका नतीजा यह रहा कि न सिर्फ अजित सिंह बल्कि उनके बेटे जयंत भी तब सांसद बने कुल पांच लोकसभा सीटों पर रालोद चुनाव जीती थी. बीजेपी को तब महज 10 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा था. बाद में दोनों दलों ने अपनी अपनी राहें जुदा कर लीं. उसके बाद अजित सिंह ने कांग्रेस के साथ जाने का निर्णय लिया और वर्ष 2011 में रालोद यूपीए-2 का हिस्सा बन गई थी. उस वक़्त रालोद अध्यक्ष अजित सिंह को मनमोहन सिंह की सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बनाया गया.
इसके बाद यूपी के 2012 के विधानसभा के चुनाव हुए तो इन चुनावों में कांग्रेस और आरएलडी मिलकर मैदान में उतरे. आरएलडी ने 46 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे. जिनमें से 9 सीटें रालोद तब जीत गई थी. उस वक़्त प्रदेश में हालांकि केंद्र में कांग्रेस थी, लेकिन कांग्रेस 355 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद महज 22 सीटों पर ही विजयी रही थी. वर्ष 2014 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो आरएलडी और कांग्रेस एक साथ चुनाव लड़े. वर्ष 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों का नुकसान अजित सिंह और आरएलडी को उठाना पड़ गया. यही वजह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजित सिंह और अजित और उनके बेटे जयंत चौधरी दोनों ही चुनाव में हार गए. पार्टी का जहां खाता ही नहीं खुला. वहीं कांग्रेस भी रायबरेली और अमेठी में चुनाव जीत पाई. यहां से पीएम मोदी के नेतृत्व में भाजपा मजबूती से आगे बढ़ी.
वर्ष 2017 में प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा में दोस्ती हो गई. आरएलडी अकेले पड़ गई और इसका हश्र यह हुआ कि रालोद ज़ब अकेले चुनावी मैदान में उत्तरी तो सिर्फ एक प्रत्याशी ही जीत दर्ज करा पाया. छपरौली से जीत दर्ज करने वाला विधायक भी पार्टी को छोड़कर भाजपा के साथ चला गया. वर्ष 2018 में कैराना में लोकसभा उपचुनाव हुआ सपा और आरएलडी एक साथ नजदीक आए तो रालोद ने सपा के साथ से इस सीट पर जीत दर्ज कर ली. इसके बाद वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में आरएलडी, बसपा और सपा के साथ हाथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरी. पार्टी को गठबंधन में तीन सीटें सपा और बसपा ने दीं, लेकिन पिता अजित सिंह और पुत्र जयंत चौधरी समेत पार्टी के तीनों प्रत्याशी बुरी तरह चुनाव हार गए. इस गठबंधन का फायदा बसपा को मिला. इसके बाद सपा रालोद की दोस्ती से बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने खुद को अलग कर लिया.
वर्ष 2022 में विधानसभा चुनाव हुए तो रालोद सपा का गठबंधन बरकरार रहा. दोनों पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा और इस बार रालोद पश्चिमी यूपी में कुछ मजबूत हुई और रालोद के आठ प्रत्याशी जीत गए. फिर खतौली विधानसभा पर हुए उपचुनाव में रालोद को सपा के अलावा चंद्रशेखर का साथ भी मिल गया. जिसके बाद रालोद प्रत्याशी ने जीत दर्ज की. इस तरह से रालोद के विधायकों की संख्या 9 हो गई. जबकि समाजवादी पार्टी ने दोस्ती को मजबूत करने के लिए रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी को राज्यसभा सांसद बना दिया. अब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न मिलने के बाद रालोद ने लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा है. जयंत ने एक झटके में इंडिया गठबंधन का साथ छोड़कर NDA से दोस्ती कर ली है.